ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 156/ मन्त्र 5
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विष्णुः
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ यो वि॒वाय॑ स॒चथा॑य॒ दैव्य॒ इन्द्रा॑य॒ विष्णु॑: सु॒कृते॑ सु॒कृत्त॑रः। वे॒धा अ॑जिन्वत्त्रिषध॒स्थ आर्य॑मृ॒तस्य॑ भा॒गे यज॑मान॒माभ॑जत् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । यः । वि॒वाय॑ । स॒चथा॑य । दैव्यः॑ । इन्द्रा॑य । विष्णुः॑ । सु॒ऽकृते॑ । सु॒कृत्ऽत॑रः । वे॒धाः । अ॒जि॒न्व॒त् । त्रि॒ऽस॒ध॒स्थः । आर्य॑म् । ऋ॒तस्य॑ । भा॒गे । यज॑मान॑म् । आ । अ॒भ॒ज॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ यो विवाय सचथाय दैव्य इन्द्राय विष्णु: सुकृते सुकृत्तरः। वेधा अजिन्वत्त्रिषधस्थ आर्यमृतस्य भागे यजमानमाभजत् ॥
स्वर रहित पद पाठआ। यः। विवाय। सचथाय। दैव्यः। इन्द्राय। विष्णुः। सुऽकृते। सुकृत्ऽतरः। वेधाः। अजिन्वत्। त्रिऽसधस्थः। आर्यम्। ऋतस्य। भागे। यजमानम्। आ। अभजत् ॥ १.१५६.५
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 156; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
यो दैव्यस्त्रिसधस्थः सुकृत्तरो विष्णुर्वेधा सचथाय सुकृत इन्द्रायर्तस्य भाग आर्यं यजमानमाभजद्यश्च सर्वान् विद्याशिक्षादानेनाजिन्वत् स पूर्णं सुखमाविवाय ॥ ५ ॥
पदार्थः
(आ) (यः) (विवाय) गच्छेत् (सचथाय) प्राप्तसम्बन्धाय (दैव्यः) विद्वत्सम्बन्धी (इन्द्राय) परमैश्वर्याय (विष्णुः) प्राप्तविद्यः (सुकृते) धर्मात्मने (सुकृत्तरः) अतिशयेन सुष्ठु करोति यः (वेधाः) मेधावी (अजिन्वत्) जिन्वेत् (त्रिसधस्थः) त्रिषु यः कर्मोपासनाज्ञानेषु स्थितः (आर्यम्) सकलशुभगुणकर्मस्वभावेषु वर्त्तमानम् (ऋतस्य) सत्यस्य (भागे) सेवने (यजमानम्) विद्यादातारम् (आ) (अभजत्) सेवेत ॥ ५ ॥
भावार्थः
ये विद्वत्प्रियाः कृतज्ञाः सुकृतिनः सर्वविद्याविदः सत्यधर्मविद्याप्रापकत्वेन सर्वान् जनान् सुखयन्ति तेऽखिलसुखभाजो जायन्ते ॥ ५ ॥अस्मिन् सूक्ते विद्वदध्यापकाऽध्येतृगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥इति षट्पञ्चाशदुत्तरं शततमं सूक्तं षड्विंशो वर्ग एकविंशोऽनुवाकश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
(यः) जो (दैव्यः) विद्वानों का सम्बन्धी (त्रिसधस्थः) कर्म, उपासना और ज्ञान इन तीनों में स्थित (सुकृत्तरः) अतीव उत्तम कर्मवाला (विष्णुः) विद्या को प्राप्त (वेधाः) मेधावी धीरबुद्धि सज्जन (सचथाय) धर्म सम्बन्ध को प्राप्त (सुकृते) धर्मात्मा (इन्द्राय) परमैश्वर्यवान् जन के लिये (ऋतस्य) सत्य के (भागे) सेवने के निमित्त (आर्य्यम्) समस्त शुभ, गुण, कर्म और स्वभावों में वर्त्तमान (यजमानम्) विद्या देनेवाले को (आ, अभजत्) अच्छे प्रकार सेवे और जो सबको विद्या और शिक्षा देने से (अजिन्वत्) प्राण पोषण करे, वह पूरे सुख को (आ, विवाय) अच्छे प्रकार प्राप्त हो ॥ ५ ॥
भावार्थ
जो विद्वानों के प्रिय, किये को जानने-माननेवाले, सुकृति, सर्वविद्यावेत्ता जन, सत्य धर्म विद्या पहुँचाने से सब जनों को सुख देते हैं, वे अखिल सुख भोगनेवाले होते हैं ॥ ५ ॥
विषय
‘सचथ, सुकृत् व इन्द्र'
पदार्थ
१. (यः) = वह (दैव्यः) = देवों के लिए हित करनेवाले, (सुकृत्तर:) = अत्यन्त उत्कृष्ट कार्यों को करनेवाले (विष्णुः) = व्यापक प्रभु (सुकृते) = उत्तम कर्म करनेवाले (सचथाय) = सबके साथ मिलकर चलनेवाले (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिए (आविवाय) = प्राप्त होते हैं। प्रभु 'दैव्य, सुकृत्, विष्णु हैं। वे 'सुकृत्, सचथ व इन्द्र' को प्राप्त होते हैं । २. वे (त्रिषधस्थः) = पृथिवी, अन्तरिक्ष व द्युलोकरूप तीनों लोकों में साथ ही स्थित होनेवाले (वेधा) = विधाता, ज्ञानी प्रभु (आर्यम्) = आर्य पुरुष को [क] अपने कर्त्तव्य कर्म को करनेवाले, [ख] अकर्त्तव्य से दूर रहनेवाले, [ग] प्रकृत आचरण में स्थित होनेवाले पुरुष को [कर्तव्यमाचरन् कर्ममकर्तव्यमनाचरन् । तिष्ठति प्रकृताचारे स वै आर्य इति स्मृतः ॥] (अजिन्वत्) = प्रीणित करते हैं और (यजमानम्) = इस यज्ञशील उपासक पुरुष को (ऋतस्य भागे) = ऋत के सेवन में (आभजत्) = भागी बनाते हैं। प्रभुकृपा से यज्ञशील उपासक सदा ऋत अटल-नियमन का सेवन करनेवाला बनता है। =
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु-प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि हम 'सबके साथ मिलकर चलें, जितेन्द्रिय बनें, पुण्यकर्मों में प्रवृत्त हों।' प्रभु उपासक को अमृत से हटाकर ऋत का सेवन करनेवाला बनाते हैं।
विषय
उपदेष्टा विद्वान् के कर्त्तव्य और परमेश्वर का वर्णन, इनका सूर्यवत् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( यः ) जो ( दैव्यः ) विद्वानों का हितकारी, उनका विद्या और जन्म द्वारा सम्बन्धी, (विष्णुः ) शुभ गुणों और विद्याओं में प्रवेश करने हारा जिज्ञासु पुरुष ( इन्द्राय ) विद्या आदि ऐश्वर्य से युक्त गुरुको प्रसन्न करने के लिए और ( सचथाय ) उसकी सेवा करने के लिए ( आविवाय ) उसको प्राप्त होता है और जो ( सुकृते ) उत्तम उपकार करने वाले के प्रति ( सुकृत्तरः ) और अधिक उपकार करने वाला होता है वह ( वेधा ) बुद्धिमान् पुरुष ( त्रि-सधस्थः ) कर्म, उपासना और ज्ञान तीनों में स्थिर होकर (आर्यम्) उत्तम शुभ गुणों और विद्या में निपुण श्रेष्ठ गुरु को ( अजिन्वत् ) प्रसन्न करे । धनार्थी जिस प्रकार दानशील को प्राप्त होता है उसी प्रकार और ( ऋतस्य भागे ) ज्ञान के प्राप्त करने के निमित्त वह ( यजमानं ) विद्या दान देने वाले को, ( आ भजत् ) प्राप्त हो और उसकी सेवा शुश्रूषा करे । इति षड्विंशो वर्गः । इत्येकविंशोऽनुवाकः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः । विष्णुर्देवता ॥ छन्दः- निचृत् त्रिष्टुप् । २ विराट् त्रिष्टुप् । ५ स्वराट् त्रिष्टुप् । निचृज्जगती । ४ जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वानांना प्रिय, कृतज्ञ चांगली कृती करणारे, सर्वविद्यावेत्ते, सत्य धर्म विद्या प्राप्त करून देतात व सर्व लोकांना सुखी करतात, ते संपूर्ण सुख भोगणारे असतात. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Vishnu, generous and divine lord of knowledge, friend of all, brilliant hero of action, better and ever more blissful doer, established in the threefold virtue of knowledge, action and worship, goes forward to join Indra, lord ruler of the world, who does good to all, and, in the direction of truth and rectitude, protects and promotes men of virtue, culture and creativity, and with all help blesses the yajamana in the performance of his acts of love and non-violence for peace and progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The chapter on teacher-student relationship still continues.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The divine enlightened persons are indeed well-versed in all branches of the sciences. Such persons perform good deeds for the welfare of a pious person. They also have good relations with all righteous persons and are genius, and well entrenched in three-tier device of knowledge, action and devotion. Such teachers, firmly establish a student in learning, who is of noble merits, actions and temperament. Such a pupil gives knowledge and pleases all with his wisdom and education and enjoys perfect happiness.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those persons enjoy all kinds of happiness, who are lovers of the learned, grateful, pious and expert in all sciences. Such men make all happy by conveying to them the message of truth, Vidya (wisdom) and Dharma (righteousness).
Foot Notes
(त्रिषधस्थ: ) त्रिषु यः कमपासना ज्ञानेषु स्थितः = Firmly established in three good devices of action, devotion and knowledge. (विष्णु:) प्राप्तविद्यः = A man who has received all education. (आर्यम् ) सक्लशुभगुणकर्म स्वभावेषु वर्तमानम् = To man who has all noble merits, actions and temperament. ( यजमानम् ) विद्यादातारम् = To a giver of knowledge.
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