ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 161/ मन्त्र 14
दि॒वा या॑न्ति म॒रुतो॒ भूम्या॒ग्निर॒यं वातो॑ अ॒न्तरि॑क्षेण याति। अ॒द्भिर्या॑ति॒ वरु॑णः समु॒द्रैर्यु॒ष्माँ इ॒च्छन्त॑: शवसो नपातः ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वा । या॒न्ति॒ । म॒रुतः॑ । भूम्या॑ । अ॒ग्निः । अ॒यम् । वातः॑ । अ॒न्तरि॑क्षेण । या॒ति॒ । अ॒त्ऽभिः । या॒ति॒ । वरु॑णः । स॒मु॒द्रैः । यु॒ष्मान् । इ॒च्छन्तः॑ । श॒व॒सः॒ । न॒पा॒तः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवा यान्ति मरुतो भूम्याग्निरयं वातो अन्तरिक्षेण याति। अद्भिर्याति वरुणः समुद्रैर्युष्माँ इच्छन्त: शवसो नपातः ॥
स्वर रहित पद पाठदिवा। यान्ति। मरुतः। भूम्या। अग्निः। अयम्। वातः। अन्तरिक्षेण। याति। अत्ऽभिः। याति। वरुणः। समुद्रैः। युष्मान्। इच्छन्तः। शवसः। नपातः ॥ १.१६१.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 161; मन्त्र » 14
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ।
अन्वयः
हे शवसो नपातो विद्वांसो यूयं यथा मरुतो दिवा सह यान्ति। अयमग्निर्भूम्या सह वातोऽन्तरिक्षेण च सह याति वरुणोऽद्भिः समुद्रैः सह याति तथा युष्मानिच्छन्तो जना यान्तु ॥ १४ ॥
पदार्थः
(दिवा) सूर्येण सह (यान्ति) गच्छन्ति (मरुतः) सूक्ष्मा वायवः (भूम्या) पृथिव्या (अग्निः) विद्युत् (अयम्) (वातः) मध्यो वायुः (अन्तरिक्षेण) (याति) (अद्भिः) जलैः (याति) (वरुणः) उदानः (समुद्रैः) सागरैः (युष्मान्) (इच्छन्तः) (शवसः) बलवतः (नपातः) न विद्यते पात् पतनं येषां ते ॥ १४ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यमरुतोर्भूम्याग्न्योर्वाय्वन्तरिक्षयोर्वरुणाऽपां सह वासोऽस्ति तथा मनुष्या विद्याविदुषां सह वासं कृत्वा नित्यसुखबलिष्ठा भवन्त्विति ॥ १४ ॥अस्मिन् सूक्ते मेधाविकर्मवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥इति एकषष्ट्युत्तरं शततमं सूक्तं षष्ठो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (शवसः) बलवान् के सन्तान (नपातः) पतन नहीं होता जिनका वे विद्वानो ! तुम जैसे (मरुतः) पवन (दिवा) सूर्यमण्डल के साथ (यान्ति) जाते हैं (अयम्) यह (अग्निः) बिजुली रूप अग्नि (भूभ्या) पृथिवी के साथ और (वातः) लोकों के बीच का वायु (अन्तरिक्षेण) अन्तरिक्ष के साथ (याति) जाता है (वरुणः) उदान वायु (अद्भिः) जल और (समुद्रैः) सागरों के साथ (याति) जाता है वैसे (युष्मान्) तुमको (इच्छन्तः) चाहते हुए जन जावें ॥ १४ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य, पवन, भूमि, अग्नि, वायु, अन्तरिक्ष तथा वरुण और जलों का एक साथ निवास है वैसे मनुष्य विद्या और विद्वानों के साथ वास कर नित्य सुखयुक्त और बली होवें ॥ १४ ॥इस सूक्त में मेधावि के कर्मों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह एकसौ इकसठवाँ सूक्त और छठा वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
वृष्टि के सहायक देव
पदार्थ
१. (मरुतः) = वृष्टि लानेवाली वायुएँ (दिवा यान्ति) = द्युलोकस्थ सूर्य की गरमी से चलती हैं। (भूम्या) = भूमि से (अयं अग्निः) = यह अग्नि उत्पन्न होती है । (वातः) = वायु अन्तरिक्षेण (याति) = अन्तरिक्ष से गति करता है। (वरुणः) = सब रोगों का निवारण करनेवाला जल (अद्भिः समुद्रैः) = जलों व समुद्रों के साथ (याति) = गति करता है । २. ये 'मरुत्, अग्नि, वात व वरुण' हे (शवसः नपातः) = शक्ति को न गिरने देनेवाली सूर्य-रश्मियो! इस वृष्टि कार्य के लिए (युष्मान् इच्छन्तः) = तुम्हारी कामना करते हैं। सूर्य किरणें ही वस्तुतः वाष्पीकरणरूप कार्य को प्रारम्भ करके वृष्टि का उपक्रम करती हैं। इस कार्य में 'मरुत्' आदि देव इन सूर्य-किरणों के सहायक होते हैं। इन सब देवों का कार्य होनेपर वृष्टि होती है। यह वृष्टि अन्नोत्पादन के द्वारा हमारी शक्ति का कारण बनती है। इसीलिए इन सूर्यकिरणों का यहाँ 'शवसो नपातः' इन शब्दों में स्मरण किया है ।
भावार्थ
भावार्थ – 'सूर्यकिरणें व मरुत्' आदि देव मिलकर वृष्टि करते हैं।
विषय
विद्वानों, राष्ट्रवासियों को लाभप्रद उपदेश ।
भावार्थ
हे (शवसः नपातः) बलवीर्य और ज्ञान का पतन या विनाश न होने देने हारे विद्वान् पुरुषो ! जिस प्रकार (मरुतः दिवा याति) वायुगण सूर्य के बल से चलते हैं । ( भूम्यः अग्निः ) और अग्नि भूमि के आश्रय से बढ़ती और ( अयं वातः ) यह वायु ( अन्तरिक्षेण याति ) अन्तरिक्ष का आश्रय लेकर चलता है और जिस प्रकार ( वरुणः ) सर्व श्रेष्ठ राजा ( समुद्रैः अद्भिः) समुद्र के समान गम्भीर आप्तजनों के साथ जिस प्रकार ( वरुणः ) जल या मेत्र ( समुद्रैः ) आर्द्र करने वाले या भूतल से उठते हुए ( अद्भिः ) जलों के साथ ( याति ) गमन करता है उसी प्रकार ( युष्मान् ) तुम को ( इच्छन्तः ) चाहने वाले ( शवसो नपातः ) बल वीर्य का पतन या स्खलन होने देने वाले विद्वान् लोग प्राप्त हों । इति षष्ठो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
दीर्घतमा ऋषिः ॥ ऋभवो देवता ॥ छन्दः– १ विराट् जगती ॥ ३, ५, ६, ८, १२ निचृज्जगती । ७, १० जगती च । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४, १३ भुरिक् त्रिष्टुप् । ९ स्वराट् त्रिष्टुप । ११ त्रिष्टुप् । १४ स्वराट् पङ्क्तिः । चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्य, मरुत, भूमी, अग्नी, वायू, अंतरिक्ष व वरुण आणि जल एकत्र राहतात तसे माणसांनी विद्या व विद्वानांबरोबर राहून नित्य सुखी व बलवान व्हावे. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Maruts, waves of universal energy of the winds, go with the light of the sun. The fire energy goes with the earth. Vata, the currents of wind go with the middle region of the sky. Varuna, water energy, goes with the vapours and the seas. You, indefatigable seekers of knowledge, go with the Rbhus, imperishable children of might and omnipotence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The right path for the Wiseman indicated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O scholars ! you preserve strength, like the subtle particles go with the sun; the energy pervades the earth the mid-air is with the firmament and Vartra (Udana) is with the oceans. Likewise, the men desiring you, would remain ever associated with you.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As there is co-relation between the sun and the subtle particles (of the wind) between the mid air and the middle regions or firmament. between the Udāna (A vital breath) and the waters, the same manner, it is the duty of all men to have association with the highly educated persons and to become mighty and happy.
Foot Notes
(मरुतः) सूक्ष्मावयवाः = Subtle particles. (अग्नि:) विद्युत् = Electricity (वरुणः) उदानः = Udana or a particular vital energy.
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