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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 191 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 191/ मन्त्र 7
    ऋषिः - अगस्त्यो मैत्रावरुणिः देवता - अबोषधिसूर्याः छन्दः - स्वराडुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    ये अंस्या॒ ये अङ्ग्या॑: सू॒चीका॒ ये प्र॑कङ्क॒ताः। अदृ॑ष्टा॒: किं च॒नेह व॒: सर्वे॑ सा॒कं नि ज॑स्यत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । अंस्याः॑ । ये । अङ्ग्याः॑ । सू॒चीकाः॑ । ये । प्र॒ऽक॒ङ्क॒ताः । अदृ॑ष्टाः । किम् । च॒न । इ॒ह । वः॒ । सर्वे॑ । सा॒कम् । नि । ज॒स्य॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये अंस्या ये अङ्ग्या: सूचीका ये प्रकङ्कताः। अदृष्टा: किं चनेह व: सर्वे साकं नि जस्यत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। अंस्याः। ये। अङ्ग्याः। सूचीकाः। ये। प्रऽकङ्कताः। अदृष्टाः। किम्। चन। इह। वः। सर्वे। साकम्। नि। जस्यत ॥ १.१९१.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 191; मन्त्र » 7
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ।

    अन्वयः

    हे अदृष्टा इह ये वोंऽस्या येऽङ्ग्याः सूचीका विषधरा ये प्रकङ्कताः सन्ति यत् किञ्चन विषादिकं चैते सर्वे यूयं साकं निजस्यत ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (ये) (अंस्याः) अंसेषु स्कन्धेषु भवाः (ये) (अङ्ग्याः) अङ्गेषु भवाः (सूचीकाः) सूचीव व्यथका वृश्चिकादयः (ये) (प्रकङ्कताः) प्रकृष्टपीडाप्रदाश्चञ्चलाः (अदृष्टाः) अदृश्यमानाः (किम्) (चन) किमपि (इह) अस्मिन् संसारे (वः) युष्माकम् (सर्वे) (साकम्) सह (नि) (जस्यत) मुञ्चन्तु मोचयन्तु वा ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    मनुष्यैः प्रयत्नेन शरीरात्मदुःखप्रदानि विषाणि दूरीकरणीयानि येनेह सततं पुरुषार्थो वर्द्धेत ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे (अदृष्टाः) दृष्टिगोचर न हुए विषधारी जीवो ! (इह) इस संसार में (ये) जो (वः) तुम्हारे बीच (अंस्याः) स्कन्धों में प्रसिद्ध होनेवाले (ये) जो (अङ्ग्याः) अङ्गों में प्रसिद्ध होनेवाले और (सूचीकाः) सूची के समान व्यथा देनेवाले बीछी आदि विषधारी जीव तथा (ये) जो (प्रकङ्कताः) अति पीड़ा देनेवाले चञ्चल हैं और जो (किञ्चन) कुछ विष आदि हैं ये (सर्वे) सब तुम (साकम्) एक साथ अर्थात् विष समेत (नि, जस्यत) हम लोगों को छोड़ देओ वा छुड़ा देओ ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को उत्तम यत्न के साथ शरीर और आत्मा को दुःख देनेवाले विष दूर करने चाहियें, जिससे यहाँ निरन्तर पुरुषार्थ बढ़े ॥ ७ ॥

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    विषय

    अंस्य, अंग्य, सूचिक व प्रकंकत

    पदार्थ

    १. (ये) = जो कृमि (अंस्या:) = [अंसगाः] कन्धों के बल सरकनेवाले हैं, ये (अङ्ग्या:) = हन्तारः जो कन्धों से विनाश करनेवाले हैं अथवा शरीर से नष्ट करनेवाले लूतिका [मकड़ी] आदि कृमि हैं। २. (सूचीकः) = जो सुईं के समान पूँछ के बालोंवाले बिच्छू आदि हैं और (ये) = जो (प्रकङ्कता:) = प्रकृष्ट विषवाले, अति तीव्र वेदना देनेवाले बड़े साँप हैं। ३. (अदृष्टा:) = अदृश्यमान किञ्चन जो कुछ सर्पादि का समूह (इह) = यहाँ है (व:) = तुम (सर्वे) = सब (साकम्) = साथ-साथ (नि जस्यत) = हमें छोड़नेवाले होओ। हम तुम्हारे दंश आदि से पीड़ित न हों।

    भावार्थ

    भावार्थ –'अंस्य, अंग्य, सूचीक व प्रकंकत' भेद से शतशः विषकृमि हैं। ये हमें पीड़ित करनेवाले न हों।

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    विषय

    विषैले जीवों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( ये ) जो ( अंस्या ) कन्धों के बल सरकने वाले, ( ये अंङ्गया ) जो अंग अर्थात् पावों के बल चलने वाले, (सूचीका) सूई के समान कांटे से काटने वाले और ( ये ) जो ( प्रकङ्कताः ) अति चंचल, अति वेगवान्, अति तीव्र वेदना देने वाले हैं जो (किंचन) कुछ भी (इह) यहां (अदृष्टाः) दिखाई नहीं पड़ते, हे (सर्वे) सब जीवो ! (वः) तुम सब (सार्क) एक साथ ही ( नि जस्यत ) हमें छोड़ जाओ या नष्ट हो जावो ।

    टिप्पणी

    विषैले जीवों का वर्णन ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अगस्त्य ऋषिः॥ अबोषधिसूर्या देवताः॥ छन्द:– १ उष्णिक् । २ भुरिगुष्णिक्। ३, ७ स्वराडुष्णिक्। १३ विराडुष्णिक्। ४, ९, १४ विराडनुष्टुप्। ५, ८, १५ निचृदनुष्टुप् । ६ अनुष्टुप् । १०, ११ निचृत् ब्राह्मनुष्टुप् । १२ विराड् ब्राह्म्यनुष्टुप । १६ भुरिगनुष्टुप् ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसांनी उत्तम प्रयत्नांनी शरीर व आत्मा यांना दुःख देणारे विष दूर केले पाहिजे. त्यामुळे निरंतर पुरुषार्थ वाढावा. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Those which creep or affect the shoulders, those which move or fly and affect all parts of the body, those which bite and burn, and those which are highly poisonous and painful, all those which are unseen or whatever, all together retire and exhaust yourselves of the bite and the poison, be eliminated all.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Again about the poisonous creatures.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O invisible venomous creatures ! you move with your shoulders, with your bodies and some sting with sharp fangs. They cause pain like the needle prick, like the scorpions etc. May the virulent venomous and moving from place to place creatures leave far from us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of all men to remove the poisons. They cause pain on the body and the mind, and on its removal industriousness may even grow more and more.

    Foot Notes

    (प्रकङ्कताः ) प्रकृष्ट पीड़ाप्रदाश्चञ्चलाः = Unsteady and causing severe pains. (जस्यत) मुन्चन्तु मोचयन्तु वा = Leave or depart far from us.

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