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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 25/ मन्त्र 15
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - वरुणः छन्दः - पादनिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उ॒त यो मानु॑षे॒ष्वा यश॑श्च॒क्रे असा॒म्या। अ॒स्माक॑मु॒दरे॒ष्वा॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । यः । मानु॑षेषु । आ । यशः॑ । च॒क्रे । असा॑मि । आ । अ॒स्माक॑म् । उ॒दरे॑षु । आ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत यो मानुषेष्वा यशश्चक्रे असाम्या। अस्माकमुदरेष्वा॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। यः। मानुषेषु। आ। यशः। चक्रे। असामि। आ। अस्माकम्। उदरेषु। आ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 25; मन्त्र » 15
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    योऽस्माकमुदरेषूतापि बहिरसामि यश आचक्रे यो मानुषेषु जीवेषूतापि जडेषु पदार्थेष्वाकीर्त्तिं प्रकाशितवानस्ति, स वरुणो जगदीश्वरो विद्वान् वा सकलैर्मानवैः कुतो नोपासनीयो जायेत॥१५॥

    पदार्थः

    (उत) अपि (यः) जगदीश्वरो वायुर्वा (मानुषेषु) नृव्यक्तिषु (आ) अभितः (यशः) कीर्त्तिमन्नं वा। यश इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (चक्रे) कृतवान् (असामि) समस्तम् (आ) समन्तात् (अस्माकम्) मनुष्यादिप्राणिनम् (उदरेषु) अन्तर्देशेषु (आ) अभितोऽर्थे॥१५॥

    भावार्थः

    येन सृष्टिकर्त्तान्तर्यामिणा जगदीश्वरेण परोपकाराय जीवानां तत्तकर्मफलभोगाय समस्तं जगत्प्रतिकल्पं विरच्यते, यस्य सृष्टौ बाह्याभ्यन्तरस्थो वायुः सर्वचेष्टा हेतुरस्ति, विद्वांसो विद्याप्रकाशका अविद्याहन्तारश्च प्रायतन्ते, तदिदं धन्यवादार्हं कर्म परमेश्वरस्यैवाखिलैर्मनुष्यैर्विज्ञेयम्॥१५॥

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    हिन्दी (6)

    विषय

    फिर वह वरुण किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    (यः) जो हमारे (उदरेषु) अर्थात् भीतर (उत) और बाहर भी (असामि) पूर्ण (यशः) प्रशंसा के योग्य कर्म को (आचक्रे) सब प्रकार से करता है, जो (मानुषेषु) जीवों और जड़ पदार्थों में सर्वथा कीर्त्ति को किया करता है, सो वरुण अर्थात् परमात्मा वा विद्वान् सब मनुष्यों को उपासनीय और सेवनीय क्यों न होवे॥१५॥

    भावार्थ

    जिस सृष्टि करनेवाले अन्तर्यामी जगदीश्वर ने परोपकार वा जीवों को उनके कर्म के अनुसार भोग कराने के लिये सम्पूर्ण जगत् कल्प-कल्प में रचा है, जिसकी सृष्टि में पदार्थों के बाहर-भीतर चलनेवाला वायु सब कर्मों का हेतु है और विद्वान् लोग विद्या का प्रकाश और अविद्या का हनन करनेवाले प्रयत्न कर रहे हैं, इसलिये इस परमेश्वर के धन्यवाद के योग्य कर्म सब मनुष्यों को जानना चाहिये॥१५॥

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    विषय

    फिर वह वरुण किस प्रकार का है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यः अस्माकम् उदरेषु उत(अपि बहिः) असामि यश आचक्रे यः मानुषेषु जीवेषु उत अपि जडेषु पदार्थेषु आ कीर्त्तिं प्रकाशितवान् अस्ति, स वरुणः(जगदीश्वरः विद्वान् वा) सकलैः मानवैः कुतः न उपासनीयः जायेत॥१५॥

    पदार्थ

    (यः) जगदीश्वरो वायुर्वा=परमेश्वर या वायु, (अस्माकम्) मनुष्यादिप्राणिनम्=हम मनुष्यादि प्राणियों के, (उदरेषु) अन्तर्देशेषु=अन्तःकरण में, (उत) अपि=भी, (बहिः)=बाहर भी, (असामि) समस्तम्=पूर्ण, (यशः) कीर्त्तिमन्नं वा=अथवा प्रशंसा के योग्य कर्म को, (आ) अभितः=सब प्रकार से, (चक्रे) कृतवान्=करता है, (यः) वरुणः=परमेश्वर या विद्वान्, (मानुषेषु) नृव्यक्तिषु=मनुष्यों, (जीवेषु)=जीवों को, (उत) अपि=भी, (जडेषु)=जड़, (पदार्थेषु)=पदार्थों में, आ= सब ओर से, (कीर्त्तिं)=यश, (प्रकाशितवान्)=प्रकाशित करने वाला, (अस्ति)=है, (सः)=वह, (वरुणः) जगदीश्वरो वायुर्वा= परमेश्वर या विद्वान्, (सकलैः)=समस्त, (मानवैः)=मनुष्यों के लिये, (कुतः)=क्यों, (न)=न, (उपासनीयः)=उपासना किये जाने योग्य, (जायेत)=होवे॥१५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जिस सृष्टि करनेवाले अन्तर्यामी जगदीश्वर ने परोपकार वा जीवों को उनके कर्म के अनुसार भोग कराने के लिये सम्पूर्ण जगत् कल्प-कल्प में रचा है, जिसकी सृष्टि में पदार्थों के बाहर-भीतर चलनेवाला वायु सब कर्मों का हेतु है और विद्वान् लोग विद्या का प्रकाश और अविद्या का हनन करनेवाले प्रयत्न कर रहे हैं। इसलिये इस परमेश्वर के धन्यवाद के योग्य कर्म सब मनुष्यों को जानना चाहिये॥१५॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- कल्प- ब्रह्मा का एक दिन या एक हजार युग। युग चार हजार, तीन सौ बीस लाख वर्षों की नश्वर अवधि है, जो दुनिया की अवधि को मापता है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) परमेश्वर या वायु, (अस्माकम्) मनुष्यादि प्राणियों के (उदरेषु) अन्तःकरण में (उत) भी [और] (बहिः) बाहर भी (असामि) पूर्ण (यशः) प्रशंसा के योग्य कर्म को, (आ) सब प्रकार से (चक्रे) करता है। (यः) परमेश्वर या विद्वान् (मानुषेषु) मनुष्यों में (जीवेषु) जीवों में [और]  (जडेषु) जड़ (पदार्थेषु) पदार्थों में (उत) भी (आ) सब ओर से (कीर्त्तिं) यश से (प्रकाशितवान्)  प्रकाशित करने वाला (अस्ति) है। (सः) वह (वरुणः) परमेश्वर या विद्वान्  (सकलैः) समस्त  (मानवैः) मनुष्यों के लिये (कुतः) क्यों (न) न (उपासनीयः) उपासना किये जाने योग्य (जायेत) होवे॥१५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उत) अपि (यः) जगदीश्वरो वायुर्वा (मानुषेषु) नृव्यक्तिषु (आ) अभितः (यशः) कीर्त्तिमन्नं वा। यश इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) (चक्रे) कृतवान् (असामि) समस्तम् (आ) समन्तात् (अस्माकम्) मनुष्यादिप्राणिनम् (उदरेषु) अन्तर्देशेषु (आ) अभितोऽर्थे॥१५॥
    विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- योऽस्माकमुदरेषूतापि बहिरसामि यश आचक्रे यो मानुषेषु जीवेषूतापि जडेषु पदार्थेष्वाकीर्त्तिं प्रकाशितवानस्ति, स वरुणो जगदीश्वरो विद्वान् वा सकलैर्मानवैः कुतो नोपासनीयो जायेत॥१५॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- येन सृष्टिकर्त्तान्तर्यामिणा जगदीश्वरेण परोपकाराय जीवानां तत्तकर्मफलभोगाय समस्तं जगत्प्रतिकल्पं विरच्यते, यस्य सृष्टौ बाह्याभ्यन्तरस्थो वायुः सर्वचेष्टा हेतुरस्ति, विद्वांसो विद्याप्रकाशका अविद्याहन्तारश्च प्रायतन्ते, तदिदं धन्यवादार्हं कर्म परमेश्वरस्यैवाखिलैर्मनुष्यैर्विज्ञेयम्॥१५॥

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    विषय

    यशस्वी होता

    पदार्थ

    १. वरुण का उपासक वरुण का स्तवन करते हुए कहता है कि (उत) - और वरुण वे हैं (यः) - जोकि (मानुषेषु) - मनुष्यों में (यशः) - हमारे यश को (असामि) - पूर्ण (आचक्रे) - करते हैं । गत मन्त्र के अनुसार वरुण की उपासना करते हुए हम वरुण - जैसे ही बनते हैं और 'दम्भ , द्रोह व दर्प' से ऊपर उठते हैं , ऐसा बनने पर हमारा जीवन यशस्वी बनता है । यह सब वरुण की कृपा से ही होता है । 

    २. वे वरुण (अस्माकम्) - हम सबके (उदरेषु) - अन्दर (आ) - सर्वत्र विद्यमान हैं । उस वरुण के दर्शन के लिए हमें कहीं इधर - उधर थोड़े ही जाना है । वे तो अन्दर ही विद्यमान हैं । ये प्रभु ही वस्तुतः हमें पूर्ण यशस्वी बनाते हैं । इस वरुण को अन्दर अनुभव करने पर ही हम दम्भादि आसुर वृत्तियों से हिंसित नहीं होते । 'पुराण' की भाषा में ये अन्तस्थ वरुण 'दम्भासुर , द्रोहासुर व दर्पासुर' का ध्वंस कर देते हैं और परिणामतः हम 'देव' बन जाते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - 'दम्भ , द्रोह व दर्प' से ऊपर उठकर हम देव बनें । 

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    विषय

    विद्वान् पुरुष ।

    भावार्थ

    ( उत् ) और (यः) जो परमेश्वर, सूर्य और मेघ ( मानुषेषु ) समस्त मननशील पुरुषों के निमित्त (असामि) पूर्णरूप से ( यज्ञः ) यज्ञ, अन्न ( आ चक्रे ) प्रदान करता है और ( अस्माकम् ) हमारे ( उदरेषु ) पेटों को भरने के लिए ( यशः ) अन्न ( आ चक्रे ) सर्वत्र पैदा कराता है वह ‘वरुण’ है । उसी प्रकार जो राजा ( मानुषेषु ) समस्त मनुष्यों में अपने यश, कीर्ति को विस्तृत करता और सब मनुष्यों और ( अस्माकम् उदरेषु ) हम प्रजाजन के उदरों की क्षुधा शान्ति के लिए ( यशः आ चक्रे ) सर्वत्र भूगोल पर अन्न उत्पन्न कराता है वह राजा ‘वरुण’ है । इत्यष्टादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः॥ वरुणो देवता ॥ गायत्र्य: । एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    Bhajan

    आज का वैदिक भजन 🙏 1150
    ओ३म् उ॒त यो मानु॑षे॒ष्वा यश॑श्च॒क्रे असा॒म्या ।
    अ॒स्माक॑मु॒दरे॒ष्वा ॥
    ऋग्वेद 1/25/15

    देखो प्रभु की कृपा 
    भूखे रहते ना हम 
    शाक, फल-फूल कन्द 
    औषधि खाते अन्न 
    होता रक्त का निर्माण 
    पुष्टि पाते अङ्ग-प्रत्यङ्ग 
    वन्द्य-विधाता वरुण 
    ना कहीं से भी कम 
    देखो प्रभु की कृपा 
    भूखे रहते ना हम 
    शाक, फल-फूल कन्द 
    औषधि खाते अन्न 

    भान्ति-भान्ति के अन्न 
    फल निर्माण किए 
    ना लिया मोल, 
    बीजों के दान दिए 
    जो दिया है सम्पूर्ण 
    ना अधूरा ना कम 
    पेट-भर खाते हम 
    भान्ति-भान्ति भोजन
    देखो प्रभु की कृपा 
    भूखे रहते ना हम 
    शाक, फल-फूल कन्द 
    औषधि खाते अन्न 

    बंटवारा अन्नों का 
    सभ्य समाज करे 
    'दीन' रोटी का 
    क्यों इन्तजार करें ?
    भूखे रह के जो 
    भूख की पीड़ा समझे 
    क्यों न खाएँ फिर 
    मिल बाँट के धान्य-अन्न 
    देखो प्रभु की कृपा 
    भूखे रहते ना हम 
    शाक, फल-फूल कन्द 
    औषधि खाते अन्न 

    सृष्टि-यज्ञ से करें 
    प्रभु सर्वस्व सम्पन्न 
    दिया प्रभु ने तो संचित 
    क्यों करें अन्न-धन
    मेरे आत्मन्! उदार 
    तू बन दीन-अवन 
    दीन असहायों को 
    दे दे शस्त- शरण
    देखो प्रभु की कृपा 
    भूखे रहते ना हम 
    शाक, फल-फूल कन्द 
    औषधि खाते अन्न 
    होता रक्त का निर्माण 
    पुष्टि पाते अङ्ग-प्रत्यङ्ग 
    वन्द्य-विधाता वरुण 
    ना कहीं से भी कम 
    देखो प्रभु की कृपा 
    भूखे रहते ना हम 
    शाक, फल-फूल कन्द 
    औषधि खाते अन्न 
                   
    रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
    रचना दिनाँक :--  २८.९.२०२१     २१.५०

    राग :- भैरवी
    गायन समय प्रातः काल, ताल दादरा 6 मात्रा

    शीर्षक :- सबका अन्नदाता भजन ७२६ वां

    *तर्ज :- *
    737-00138

    पुष्टि = बल पाना
    वन्द्य = वन्दनीय
    दीन = ग़रीब
    संचित = जमा करना
    अवन = रक्षण, खुश रखना
    शस्त = उत्कृष्ट, कल्याण कारक

     

    Vyakhya

     

    प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
    प्राक्कथन
    वैदिक मंत्र में परमात्मा द्वारा दिए अन्नादि पदार्थ हमें जीवन प्रदान करते हैं। लेकिन साथ में यह भी उपदेश दिया है कि हम अन्न खाकर केवल स्वयं परिपुष्ट ना हों
    दीन और असहाय लोगों की भी सहायता करें, जिससे वे भी सुख की नींद सो सकें।
    हमारी सांताक्रुज आर्य समाज ने भी इस वैदिक मंत्र के महत्व को समझ कर
    भूखे गरीब असहाय लोगों की सहायता के लिए "वैदिक भोजन" के नाम सेअन्न दान करके काफी समय से एक सुघड़ कर्तव्य का पालन किया जिसके लिए वे धन्यवाद के पात्र हैं। "वैदिक भजन" शीर्षक देना अति उत्तम है। जो कुछ हमें प्राप्त हो रहा है या हम उस प्राप्तव्य वस्तु को बांट रहे हैं,सब वेदों की शिक्षाओं को आत्मसात करके परमात्मा के नाम से ही बांट रहे हैं।
    हम नहीं बांट रहे, हमें प्रेरणा देकर वह परमात्मा हमसे बंटवा रहा है।
    मैंने महामंत्री जी से प्रार्थना की,कि वैदिक भोजन आपने लिखा अब एक काम और कीजिए वेद मन्त्र  को बुलवाकर के  ही भोजन को बांटें, जिससे गरीब लोग भी परमात्मा का धन्यवाद कर सकें। यह शिक्षा भी तो हम आर्यों को ही देनी पड़ेगी।
    और समाजें भी अपनी-अपनी तरह से
    वैदिक रीति से दान कर रहे हैं। वे सभी बधाई के पात्र हैं। उनको शत-शत नमन है। अब मंत्र के स्वाध्याय और भजन का आनन्द लीजिए।
                   सबका अन्नदाता

    भगवान की कृपा तो देखो! हमारी भूख मिटती रहे हमारे उदरों में भोजन जाता रहे, जिससे हमारे शरीर में रक्त की उत्पत्ति होकर सब अंग प्रत्यंग और इंद्रियों को जीवन और क्रियाशक्ति मिलती रहे। इसके लिए उन्होंने भांति भांति के अन्नों का निर्माण किया है।
    मन्त्र में 'चक्रे' अर्थात् बनाया है।
    क्रिया के साथ आ उपसर्ग का प्रयोग किया है। 'आ' का अर्थ होता है चारों ओर से अतः 'आचक्रे' का अर्थ हुआ चारों ओर।  फिर मंत्र में 'आ' का तीन बार प्रयोग हुआ है। इसका भाव यह है कि भगवान ने हमें सब और से अन्न भोग्य सामग्री खूब प्रदान किया है। देने में कोई कमी नहीं रखी है। फिर यह अन्न "असामी," संपूर्ण दिया है, अधूरा नहीं दिया है। हमारे शरीरों के लिए जितने प्रकार के अन्नों की आवश्यकता है वे  सब पूरी मात्रा में दिए हैं। उन्होंने भान्ति भान्ति के शाक, फल,फूल,कंद,मूल, औषधीयें और अनाज देने में कोई कमी नहीं की है। यदि मनुष्य-समाज इन अन्नों का बंटवारा ठीक प्रकार से करे, तो धरती का कोई मनुष्य भूखा नहीं रह सकता। अन्न तो एक उपलक्षण मात्र है। भगवान ने हमारे लिए जितने मंगलों की वृष्टि की है उनका कोई अन्त नहीं है।
    हे मेरे आत्मा! जो प्रभु हमारी सब प्रकार की भूखों का नाश करनेवाले हैं तू उसकी शरण से दूर मत हो।

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    मन्त्रार्थ

    (उत-य:-मानुषेषु आसमि यश:-आचक्रे) अपितु जो वरुण परमात्मा मनुष्यों के उपयोगी पशुओं के निमित्त यशः-अन्नभोजन घास असामि-पूर्ण भरपूर समन्त रूप से उत्पन्न करता है "यश:अन्न नाम" (निघ० २।७) (अस्माकं-उदरेषु-आ) हमारे उदरों के निमित्त भी पूर्ण अन्न समन्त रूप से उत्पन्न करता है वह हमारा वरुण परमात्मा है तथा हमारे लिये हमारे पशुओं के लिये अन्नव्यवस्था करने वाला वरणीय राष्ट्रपति है ॥१५॥

    विशेष

    ऋषिः-आजीगर्तः शुनः शेपः (इन्द्रियभोगों की दौड में शरीरगर्त में गिरा हुआ विषयलोलुप महानुभाव) देवता-वरुणः (वरने योग्य और वरने वाला परमात्मा)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सृष्टिरचना करणाऱ्या अंतर्यामी जगदीश्वराने, परोपकारासाठी, जीवांच्या कर्मानुसार भोग मिळावा यासाठी संपूर्ण जग कल्पाकल्पामध्ये निर्माण केलेले आहे. ज्याच्या सृष्टीमध्ये पदार्थांच्या आत-बाहेर असणारा वायू सर्व कर्मांचा हेतू आहे. विद्वान लोक विद्येचा प्रकाश व अविद्येचा नाश करण्याचा प्रयत्न करतात, त्यामुळे परमेश्वराला धन्यवाद देण्यायोग्य कर्म सर्व माणसांनी जाणावे. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    It is He who bestows perfect honour on humanity and creates food and water for us. It is He who shines in glory over humanity and others in and out everywhere.

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that Varuņaȟ is, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ)=The God or air, (asmākam)=of men et cetera, living beings, (udareṣu)=inside the dwelling senses (uta)=also, [aura]=and, (bahiḥ)=outside as well, (asāmi)=absolute, (yaśaḥ)=to praiseworthy deeds, (ā)=in all respects, (cakre)=does, (yaḥ)=The God or scholar, (mānuṣeṣu)=among men, (jīveṣu)=among living beings, (uta)=also, [aura]=and, (jaḍeṣu)=in elements, (padārtheṣu)=in the substances, (ā)=from all sides, (kīrttiṃ)=by the glory, (prakāśitavān)=revealer, (asti)=is, (saḥ)=that, (varuṇaḥ)=The God or scholar, (sakalaiḥ)=all, (mānavaiḥ)=for men, (kutaḥ)=why, (na)=must not, (upāsanīyaḥ)=worthy of worship (jāyeta)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    The Supreme God, or air, performs actions worthy of full praise in all respects, both inside and outside the hearts of human beings. The God or the scholar is the one, who illuminates with fame from all sides in humans, in living beings, and even in inanimate objects. Why shouldn't that God or scholar be worthy of worship for all humans.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The creator of the inner world, Jagdishvara, has created the whole world in cycle-kalpa to provide charity or enjoyment to living beings according to their deeds, in whose creation the air moving in and out of matter is the cause of all actions and learned people are making efforts to destroy nescience. Therefore all men should know the deeds worthy of thanks to this God.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    A day of Brahmā or one thousand Yugas. Yugas is a period of four thousand, three hundred and twenty millions of years of mortals, measuring the duration of the world.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is He is taught further in the fifteenth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Why should not men always adore that God who has given complete glory and food to mankind and whose glory is manifest in all living and non-living or inanimate objects.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (यश:) कीर्तिम् अन्नं वा यश इत्यन्ननामसु पठितम् (निघ० २.७) । = Glory or food. (असामि) समस्तम् सामीति खण्डवाची = Semi. असामि Complete. सामिस्यते: असुसमाप्तम् निरुक्ते ६ . २३ ( उद रेषु ) अन्तर्देशेषु = Inside.

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