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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 25 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 25/ मन्त्र 20
    ऋषिः - शुनःशेप आजीगर्तिः देवता - वरुणः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    त्वं विश्व॑स्य मेधिर दि॒वश्च॒ ग्मश्च॑ राजसि। स याम॑नि॒ प्रति॑ श्रुधि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । विश्व॑स्य । मे॒धि॒र॒ । दि॒वः । च॒ । ग्मः । च॒ । रा॒ज॒सि॒ । सः याम॑नि॒ । प्रति॑ । श्रु॒धि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं विश्वस्य मेधिर दिवश्च ग्मश्च राजसि। स यामनि प्रति श्रुधि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। विश्वस्य। मेधिर। दिवः। च। ग्मः। च। राजसि। सः यामनि। प्रति। श्रुधि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 25; मन्त्र » 20
    अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स ईश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे मेधिर वरुण ! त्वं यथा यो जगदीश्वरो दिवश्च ग्मश्च विश्वस्य यामनि राजति, सोऽस्माकं स्तुतिं प्रतिशृणोति तथैतन्मध्ये राजसि राजेः स्तुतिं प्रतिश्रुधि शृणु॥२०॥

    पदार्थः

    (त्वम्) यो वरुणो जगदीश्वरः (विश्वस्य) सर्वस्य जगतो मध्ये (मेधिर) मेधाविन् (दिवः) प्रकाशसहितस्य सूर्य्यादेः (च) अन्येषां लोकलोकान्तराणां समुच्चये (ग्मः) पृथिव्यादेः। ग्मेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (च) अनुकर्षणे (राजसि) प्रकाशसे (सः) (यामनि) यान्ति गच्छन्ति यस्मिन् कालावयवे प्रहरे तस्मिन् (प्रति) प्रतीतार्थे (श्रुधि) शृणु। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। श्रुशृणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसि (अष्टा०६.४.१०२) इति हेर्धिश्च॥२०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेश्वरेण सर्वस्य जगतो द्विधा भेदः कृतोऽस्ति। एकः प्रकाशसहितः सूर्य्यादिर्द्वितीयः प्रकाशरहितः पृथिव्यादिश्च यस्तयोरुत्पत्तिर्विनाशनिमित्तः कालोऽस्ति, तत्राभिव्याप्तः सर्वेषां प्राणिनां संकल्पोत्पन्ना अपि वार्त्ताः शृणोति, तस्मान्नैव केनापि कदाचिदधर्मानुष्ठानकल्पना कर्त्तव्याऽस्ति, तथैव सकलैर्मानवैर्विज्ञायानुचरितव्यमिति॥२०॥

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    हिन्दी (6)

    विषय

    फिर वह परमात्मा कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे (मेधिर) अत्यन्त विज्ञानयुक्त वरुण विद्वन् ! (त्वम्) आप जैसे जो ईश्वर (दिवः) प्रकाशवान् सूर्य्य आदि (च) वा अन्य सब लोक (ग्मः) प्रकाशरहित पृथिवी आदि (विश्वस्य) सब लोकों के (यामनि) जिस-जिस काल में जीवों का आना-जाना होता है, उस-उसमें प्रकाश हो रहे हैं (सः) सो हमारी स्तुतियों को सुनकर आनन्द देते हैं, वैसे होकर इस राज्य के मध्य में (राजसि) प्रकाशित हूजिये और हमारी स्तुतियों को (प्रतिश्रुधि) सुनिये॥२०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे परब्रह्म ने इस सब संसार के दो भेद किये हैं-एक प्रकाशवाला सूर्य्य आदि और दूसरा प्रकाशरहित पृथिवी आदि लोक। जो इनकी उत्पत्ति वा विनाश का निमित्तकारण काल है, उसमें सदा एक-सा रहनेवाला परमेश्वर सब प्राणियों के संकल्प से उत्पन्न हुई बातों का भी श्रवण करता है, इससे कभी अधर्म के अनुष्ठान की कल्पना भी मनुष्यों को नहीं करनी चाहिये, वैसे इस सृष्टिक्रम को जानकर मनुष्यों को ठीक-ठीक वर्त्तना चाहिये॥२०॥

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    पदार्थ

    पदार्थ = हे  ( मेधिर ) = मेधाविन् वरुण ! ( त्वम् विश्वस्य ) = आप सब जगत् के  ( राजसि ) = प्रकाशक और राजा स्वामी हैं  ( दिवः च ) = द्युलोक के  ( ग्मः च ) = और भूलोक के भी स्वामी हैं  ( सः ) = वह आप  ( यामनि ) = बुलाने पर  ( प्रतिश्रुधि ) = हमारी प्रार्थना को सुनें।

    भावार्थ

    भावार्थ = हे बुद्धिमान् सर्वोत्तम प्रभो! आप सारे जगत् के द्युलोक के प्रकाश करनेवाले और सारी पृथिवी के स्वामी हैं। दयामय जब हम आपकी प्रेमपूर्वक प्रार्थना करें, तब आप सुनकर हमें प्रेमी भक्त बनावें, जिससे हमारा कल्याण हो ।

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    विषय

    फिर वह परमात्मा कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मेधिर वरुण ! त्वं यथा यः जगदीश्वरः दिवः च ग्मः च विश्वस्य यामनि राजति  सः अस्माकं स्तुतिं प्रति शृणोति तथा एतत् मध्ये राजसि राजेः स्तुतिं प्रतिश्रुधि शृणु॥२०॥ 

    पदार्थ

    हे (मेधिर) मेधाविन्=मेधावी विद्वान्! (त्वम्) यो वरुणो जगदीश्वरः=जो श्रेष्ठ परमेश्वर, (यथा)=जैसे, (यः) जगदीश्वरः=परमेश्वर, (दिवः) प्रकाशसहितस्य सूर्य्यादेः=प्रकाशवान् सूर्य्य आदि, (च) अन्येषां लोकलोकान्तराणां समुच्चये=वा अन्य सब लोक,  (ग्मः) पृथिव्यादेः=पृथिवी आदि,  (विश्वस्य) सर्वस्य जगतो मध्ये= सारे जगत् के  बीच में, (यामनि) यान्ति गच्छन्ति यस्मिन् कालावयवे प्रहरे तस्मिन्=जिस-जिस काल में जीवों का आना-जाना होता है, उस-उस काल के प्रहर में, (राजति)=प्रकाशित होता है, (अस्माकम्)=हमारी, (स्तुतिम्)=स्तुतियों को, (प्रति) प्रतीतार्थे=प्रतीत अर्थ में, (शृणोति)=सुनता है,  (तथा)=वैसे ही, (एतत्)=इनके, (मध्ये)=मध्य में, (राजसि) राजेः-प्रकाशसे=प्रकाशित होने से, (स्तुतिम्)=स्तुतियों को, (प्रतिश्रुधि) शृणु=सुनिये॥२०॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ईश्वर ने इस सकल जगत् के दो भेद किए हैं। एक प्रकाश सहित सूर्य है, दूसरा प्रकाशरहित पृथिवी आदि लोक है। जो इनकी उत्पत्ति वा विनाश का कारण काल है, उसमें सब ओर से व्याप्त सब प्राणियों के संकल्प से उत्पन्न हुओं का समाचार भी श्रवण करता है। उससे किसी को भी सम्भवतः अधर्म के   अनुष्ठान की कल्पना नहीं करनी चाहिये, वैसे ही जानकर सभी मनुष्यों को आचरण करना  चाहिये॥२०॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मेधिर) मेधावी विद्वान्! (त्वम्) जो श्रेष्ठ परमेश्वर (यथा) जैसे (दिवः)  प्रकाशवान् सूर्य आदि,  (च) या अन्य सब लोक  (ग्मः) पृथिवी आदि  (विश्वस्य) सारे जगत् के  बीच (यामनि)  जिस-जिस काल में जीवों का आना-जाना होता है, उस-उस काल के प्रहर में (राजति) प्रकाशित होता है। (अस्माकम्) हमारी (स्तुतिम्) स्तुतियों को (प्रति)  प्रतीत अर्थ में (शृणोति) सुनता है।  (तथा) वैसे ही (एतत्) इनके (मध्ये) मध्य में (राजसि) प्रकाशित होने से (स्तुतिम्) स्तुतियों को (प्रतिश्रुधि) सुनिये॥२०॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) यो वरुणो जगदीश्वरः (विश्वस्य) सर्वस्य जगतो मध्ये (मेधिर) मेधाविन् (दिवः) प्रकाशसहितस्य सूर्य्यादेः (च) अन्येषां लोकलोकान्तराणां समुच्चये (ग्मः) पृथिव्यादेः। ग्मेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) (च) अनुकर्षणे (राजसि) प्रकाशसे (सः) (यामनि) यान्ति गच्छन्ति यस्मिन् कालावयवे प्रहरे तस्मिन् (प्रति) प्रतीतार्थे (श्रुधि) शृणु। अत्र बहुलं छन्दसि इति श्नोर्लुक्। श्रुशृणुपॄकृवृभ्यश्छन्दसि (अष्टा०६.४.१०२) इति हेर्धिश्च॥२०॥
    विषयः- पुनः स ईश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे मेधिर वरुण ! त्वं यथा यो जगदीश्वरो दिवश्च ग्मश्च विश्वस्य यामनि राजति, सोऽस्माकं स्तुतिं प्रतिशृणोति तथैतन्मध्ये राजसि राजेः स्तुतिं प्रतिश्रुधि शृणु॥२०॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथेश्वरेण सर्वस्य जगतो द्विधा भेदः कृतोऽस्ति। एकः प्रकाशसहितः सूर्य्यादिर्द्वितीयः प्रकाशरहितः पृथिव्यादिश्च यस्तयोरुत्पत्तिर्विनाशनिमित्तः कालोऽस्ति, तत्राभिव्याप्तः सर्वेषां प्राणिनां संकल्पोत्पन्ना अपि वार्त्ताः शृणोति, तस्मान्नैव केनापि कदाचिदधर्मानुष्ठानकल्पना कर्त्तव्याऽस्ति, तथैव सकलैर्मानवैर्विज्ञायानुचरितव्यमिति॥२०॥

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    विषय

    मेधिर की उपासना

    पदार्थ

    १. हे (मेधिर) - मेधा के देनेवाले वरुण! (त्वम्) - आप ही (दिवः च) - इस द्युलोक और अन्तरिक्ष के (ग्मः च) - और इस पृथिवीलोक के तथा (विश्वस्य) - सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के (राजसि) - क्षेम व कल्याण करनेवाले हो । सारा ब्रह्माण्ड आपके ही शासन में चल रहा है । 

    २. (सः) - वे आप (यामनि) - क्षेम व कल्याण के प्राप्त कराने में [या प्रापणे] (प्रतिश्रुधि) - हमारी प्रार्थना का 'हाँ' में उत्तर दीजिए , अर्थात् हमारी प्रार्थना को अवश्य स्वीकार कीजिए । 

    ३. प्रभु मेधिर हैं । मेधा देकर ही वे हमारा कल्याण करते हैं । इस मेधा से ही वे हमारे जीवन को दीप्त बनाते हैं । वस्तुतः प्रभु का रक्षण - प्रकार यही है कि वे बुद्धि दे देते हैं । इस बुद्धि से ठीक मार्ग पर चलते हुए हम अपनी मङ्गल की कामना को पूर्ण कर पाते हैं । 

     

     

    भावार्थ

    भावार्थ - बुद्धि के अनुसार चलते हुए हम जीवन को मङ्गलमय बनाएँ । 

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    विषय

    विद्वान् पुरुष ।

    भावार्थ

    हे ( मेधिर ) मेधाविन् ! विद्वन् ! ज्ञानवन् ! परमेश्वर ! राजन् ! ( त्वं ) तू ( विश्वस्य ) समस्त ( दिवश्च ) आकाश और ( ग्मः च ) पृथिवी के ऊपर ( राजसि ) राजा और सूर्य के समान प्रकाशित होता है और ( सः ) वह तू ( यामनि ) प्रति पहर ( प्रति श्रुधि ) प्रत्येक मनुष्य या जन्तु के कष्टों को श्रवण कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    शुनःशेप आजीगर्तिऋषिः॥ वरुणो देवता ॥ गायत्र्य: । एकविंशत्यृचं सूक्तम्॥

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    मन्त्रार्थ

    (मेधिर त्वं विश्वस्य दिवः-च ग्मः च राजसि) हे मेधावी वरुण परमात्मन्! तू समस्त द्युलोक का पृथिवी का स्वामित्व करता है “अधीगर्थदयेशां कर्मणि षष्ठी" (सः-यामनि प्रति श्रुधि) वह तू समय पर हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर ॥२०॥

    विशेष

    ऋषिः-आजीगर्तः शुनः शेपः (इन्द्रियभोगों की दौड में शरीरगर्त में गिरा हुआ विषयलोलुप महानुभाव) देवता-वरुणः (वरने योग्य और वरने वाला परमात्मा)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे परमेश्वराने या जगाचे दोन भेद केलेले आहेत एक प्रकाशमान सूर्य इत्यादी व दुसरे प्रकाशरहित पृथ्वी इत्यादी गोल. त्यांची उत्पत्ती किंवा विनाशाचे निमित्त कारण काल आहे. त्यात सदैव एकरस राहणारा परमेश्वर सर्व प्राण्यांच्या संकल्पाने उत्पन्न झालेल्या गोष्टींचेही श्रवण करतो, त्यामुळे कधी अधर्माच्या अनुष्ठानाची कल्पनाही माणसांनी करू नये. हा सृष्टिक्रम जाणून माणसांनी यथायोग्य वर्तन करावे. ॥ २० ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Varuna, Lord of cosmic intelligence, light of the universe who illuminate the heaven and earth over time, we pray, listen to our prayer and respond.

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    Subject of the mantra

    Then, What kind of that God is, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (medhira)= brilliant scholar, (tvam)= the supreme God, (yathā)=as, (divaḥ)=illuminating sun etc. (ca)=or other all regions, (gmaḥ)=earth etc. (viśvasya) =in the middle of the whole world, (yāmani)=the time in which living beings come and go, in the division of that period, (rājati)=gets illuminated, (asmākam)=our, (stutim)=to praises, (prati)=in the apparent sense (śṛṇoti) =listens, (tathā) =in the same way, (etat)=their, (madhye)=in the middle, (rājasi)=by being revealed, (stutim)=to praises, (pratiśrudhi)=listen.

    English Translation (K.K.V.)

    O brilliant scholar the Supreme God! Like you, illuminating Sun etc. or other all regions, earth etc. in the middle of the whole world, the time in which living beings come and go, illuminate in the division of that period, listens our praises in a seeming sense. In the same way, listen to the praises that are being revealed in the midst of them.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is vocal silent simile as a figurative in this mantra. Like the God has made two distinctions in this whole world. One is the Sun with light, the other is the earth without light et cetera. The reason for their origin and destruction is time, it also listens the news of those born due to the vows of all living beings pervaded from all sides. From that no one should possibly imagine the ritual of unrighteousness, knowing the same way all human beings should behave.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that God is further taught in the 20th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As God who shiniest over heaven and earth and all the world at all times, listens to our prayers, so O wise man, you should also do and respond to our call.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रम:) पृथिव्यादे: ग्मेतिपृथिवी नामसु ( निघ० १.१ ) = Of the earth etc. (यामनि ) यान्ति गच्छन्ति यस्मिन् कालावयवे महरे तस्मिन् ॥ = At suitable time. (श्रुधि) शृणु । अत्र बहुलं छन्दसीति क्षतोर्लुक् श्रुशृणु प कृवृभ्यश्छन्दसि (अ० ६.४.१०० ) इति हेर्धश्च ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God has divided the world in two ways. One iş brilliant ‘like the sun etc. and the other without light like the earth etc. Time is there as the common cause of their appearance and disappearance. God pervading all hearts even the intentional words of all beings. Therefore none should even think of doing anything un-righteous. All men should know this well and conduct themselves accordingly.

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    ত্বং বিশ্বস্য মেধির দিবশ্চ গ্মশ্চ রাজসি।

    স যামনি প্রতি শ্রুধি।।৯৭।।

    (ঋগ্বেদ ১।২৫।২০)

    পদার্থঃ হে (মেধির) সর্বজ্ঞাতা বরুণ! (ত্বম্ বিশ্বস্য) তুমি সমগ্র জগতের (রাজসি) প্রকাশক, রাজা ও স্বামী। [তুমি] (দিবঃ চ) দ্যুলোকের এবং (গ্মঃ চ) ভূলোকের অধিপতি। (সঃ) সেই তুমি (যামনি) আহ্বানের পর (প্রতি শ্রুধি) আমাদের প্রার্থনা শ্রবণ করো।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে সর্বজ্ঞানী পরমাত্মা! তুমি সমগ্র জগতের, ভূলোকের ও দ্যুলোকের প্রকাশকর্তা ও সমগ্র জগতের অধিপতি। হে দয়াময়! যখন আমরা তোমার প্রেমপূর্বক প্রার্থনা করি, তখন তুমি সেই আহ্বান শুনে আমাদের সদা আশীর্বাদ করো যাতে আমাদের কল্যাণ হয়।।৯৭।।

     

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