ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 41/ मन्त्र 4
सु॒गः पन्था॑ अनृक्ष॒र आदि॑त्यास ऋ॒तं य॒ते । नात्रा॑वखा॒दो अ॑स्ति वः ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒ऽगः । पन्था॑ । अ॒नृ॒क्ष॒रः । आदि॑त्यासः । ऋ॒तम् । य॒ते । न । अत्र॑ । अ॒व॒ऽखा॒दः । अ॒स्ति॒ । वः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुगः पन्था अनृक्षर आदित्यास ऋतं यते । नात्रावखादो अस्ति वः ॥
स्वर रहित पद पाठसुगः । पन्था । अनृक्षरः । आदित्यासः । ऋतम् । यते । न । अत्र । अवखादः । अस्ति । वः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 41; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(सुगः) सुखेन गच्छन्ति यस्मिन् सः (पंथाः) जलस्थलान्तरिक्षगमनार्थः शिक्षाविद्याधर्मन्यायप्राप्त्यर्थश्चमार्गः (अनृक्षरः) कंटकगर्त्तादिदोषरहितः सेतुमार्जनादिभिः सह वर्त्तमानः सरलः। चोरदस्युकुशिक्षाऽविद्याऽधर्माऽऽचरणरहितः (आदित्यासः) सुसेवितेनाष्टचत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्येण शरीरात्मबलसाहित्येनाऽऽदित्यवत्प्रकाशिता अविनाशिधर्मविज्ञाना विद्वांसः। आदित्या इति पदना०। निघं० ५।६। अनेन ज्ञानवत्त्वं सुखप्रापकत्त्वं च गृह्यते। (ऋतम्) ब्रह्म सत्यं यज्ञं वा (यते) प्रयतमानाय (न) निषेधार्थे (अत्र) विद्वत्प्रचारिते रक्षिते व्यवहारे (अवखादः) विखादो भयम् (अस्ति) भवति (वः) युष्माकम् ॥४॥
अन्वयः
पुनस्ते किं साधयेयुरित्युपदिश्यते।
पदार्थः
यत्रादित्यासो रक्षका भवन्ति यत्र चैतैरनृक्षरः सुगः पन्थाः सम्पादितस्तदर्थमृतं यते च वोऽत्रावखादो नास्ति ॥४॥
भावार्थः
मनुष्यैर्भूमिसमुद्रान्तरिक्षेषु रथनौकाविमानानां गमनाय सरला दृढाः कंटकचोरदस्युभयादिदोषरहिताः पंथानो निष्पाद्या यत्र खलु कस्याऽपि किंचिद्दुःखभये न स्याताम्। एतत्सर्वं संसाध्याखण्डचक्रवर्त्तिराज्यं भोग्यं भोजयितव्यमिति ॥४॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे क्या सिद्ध करें, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
जहां (आदित्यासः) अच्छे प्रकार सेवन से अड़तालीस वर्ष युक्त ब्रह्मचर्य से शरीर आत्मा के बल सहित होने से सूर्य्य के समान प्रकाशित हुए अविनाशी धर्म्म को जाननेवाले विद्वान् लोग रक्षा करनेवाले हों वा जहां इन्हों से जिस (अनृक्षरः) कण्टक गड्ढा चोर डाकू अविद्या अधर्माचरण से रहित सरल (सुगः) सुख से जानने योग्य (पन्थाः) जल स्थल अन्तरिक्ष में जाने के लिये वा विद्या धर्म न्याय प्राप्ति के मार्ग का सम्पादन किया हो उस और (ऋतम्) ब्रह्म सत्य वा यज्ञ को (यते) प्राप्त होने के लिये तुम लोगों को (अत्र) इस मार्ग में (अवखादः) भय (नास्ति) कभी नहीं होता ॥४॥
भावार्थ
मनुष्यों को भूमि समुद्र अन्तरिक्ष में रथ नौका विमानों के लिये सरल दृढ़ कण्टक चोर डाकू भय आदि दोष रहित मार्गों को संपादन करना चाहिये जहां किसी को कुछ भी दुःख वा भय न होवे इन सब को सिद्ध करके अखण्ड चक्रवर्ती राज्य को भोग करना वा कराना चाहिये ॥४॥
विषय
अनृक्षर पथ
पदार्थ
१. 'वरुण, मित्र और अर्यमा' ये तीनों (आदित्यासः ) -.सब गुणों का आदान करनेवाले होने से आदित्य हैं । हम 'वरुण, मित्र व अर्यमा' को अपनाकर आदित्य बन जाते हैं । हे (आदित्यासः) - आदित्यो ! (ऋतं यते) - ऋत की ओर चलनेवाले के लिए, अर्थात् अनृत मार्ग से हटकर ऋत के मार्ग को अपनानेवाले के लिए (पन्थाः) - मार्ग (सुगः) - सुगमता से जाने योग्य होता है । उसका रास्ता (अनुक्षरः) - कण्टकरहित होता है । वस्तुतः अनृतमार्ग में ही पेचदगियाँ हैं, वहीं छल - छिद्रादि के कण्टक आकीर्ण हुए - हुए हैं । सत्य में सरलता है, वहाँ किसी प्रकार का कण्टक नहीं ।
२. हे आदित्यो ! (अत्र) - इस मार्ग पर चलते हुए (वः) - आपका (अवखादः) - [अवमन्तव्यः खादो जुगुप्सितः, सा०] जुगुप्सित, घृणित, निन्दनीय भोजन (न, अस्ति) - नहीं हैं । आप सदा सात्विक भोजन का ही स्वीकार करते हो । उससे वस्तुतः आपकी बुद्धि सात्विक बनी रहती है और आप अन्त के मार्ग पर जाते ही नहीं हो ।
भावार्थ
भावार्थ - आदित्यों का मार्ग ऋत का होता है, यह सरल व अकण्टक है । इस मार्ग पर चलनेवाले राजस् और तामस् भोजनों से दूर रहते हैं ।
विषय
वरुण मित्र, अर्यमा, आदित्य इन अधिकारियों का वर्णन ।
भावार्थ
हे (आदित्यासः) आदित्य के समान तेजस्वी, ४८ वर्ष के ब्रह्मचर्य पालक विद्वानो! एवं अधिकारी पुरुषो! (ऋतं यते) सत्य ज्ञान और धर्मशास्त्र तथा वेदानुकूल चलने वाले का (पन्थाः) मार्ग सदा (सुगः) अति सुगम और (अनुक्षरः) काँटों और विघ्न, भय बाधा से रहित होता है। (अत्र) इस मार्ग में हे विद्वान् पुरुषो! (वः) आप लोगों के लिये भी (न अवखादः अस्ति) किसी प्रकार का कोई भय नहीं, न्यायानुसार मार्ग के उल्लंघन करने पर जहां प्रजाजन को राजगण का भय होता है वहां अन्याय से वर्त्तने वाले राजा और उसके अधीन अधिकारियों को भी पीड़ित प्रजा से भय उत्पन्न होता जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो घौर ऋषिः ॥ देवता—१—३, ७-९ वरुणमित्रार्यमणः । ४–६ आदित्याः ॥ छन्दः-१, ४, ५, ८ गायत्री । २, ३, ६ विराड् गायत्री । ७, ९ निचृद् गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वे क्या सिद्ध करें, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यत्र आदित्यासः रक्षका भवन्ति यत्र च एतैः अनृक्षरः सुगः पन्थाः सम्पादितः तदर्थम् ऋतं यते च वः अत्र अवखादः न अस्ति ॥४॥
पदार्थ
(यत्र)=जहाँ, (आदित्यासः) सु सेवितेन अष्टचत्वारिंशत् वर्ष ब्रह्मचर्येण शरीर आत्मबल साहित्येन आदित्यवत् प्रकाशिता अविनाशिधर्मविज्ञाना विद्वांसः=ब्रह्मचर्य से अच्छे प्रकार सेवन से अड़तालीस वर्ष तक आत्मबल के साथ सूर्य के समान प्रकाशित हुए, अविनाशी धर्म को जाननेवाले विद्वान् लोग, (रक्षका)=रक्षक, (भवन्ति)=होते हैं। (च)=और, (यत्र)=जहाँ, (एतैः)=इन सबके द्वारा, (अनृक्षरः) कंटकगर्त्तादिदोषरहितः सेतुमार्जनादिभिः सह वर्त्तमानः सरलः। चोरदस्युकुशिक्षाऽविद्याऽधर्माऽऽचरणरहितः=अर्थ-कंटक गड्ढा आदि दोषों से रहित, सेतुओं के निर्माण आदि के साथ विद्यमान सरल स्वभाव के। चोर, दस्यु कुशिक्षा अविद्या अधर्म के आचरण से रहित, (सुगः) सुखेन गच्छन्ति यस्मिन् सः=जिस मार्ग में सुख से जाते हैं, (पंथाः) जलस्थलान्तरिक्षगमनार्थः शिक्षाविद्याधर्मन्यायप्राप्त्यर्थश्चमार्गः=जल, थल और अन्तरिक्ष में जाने के लिये शिक्षा, विद्या, धर्म और न्याय की प्राप्ति के लिये मार्ग, (सम्पादितः)=बनाया हुआ है, (तदर्थम्)=उसके लिये, (ऋतम्) ब्रह्म सत्यं यज्ञं वा=ब्रह्म, सत्य और यज्ञ, (यते) प्रयतमानाय=प्रयास करनेवाले के लिये, (च)=भी, (वः) युष्माकम्=तुम्हारा, (अत्र) विद्वत्प्रचारिते रक्षिते व्यवहारे=विद्वान् के जैसे प्रचारित किये हुए व्यवहार में, (अवखादः) विखादो भयम्=नष्ट होने का भय, (न) निषेधार्थे=नहीं, (अस्ति) भवति=होता है ॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों के द्वारा भूमि, समुद्र और अन्तरिक्ष में रथ, नौका और विमानों के लिये सरल, और कण्टक, चोर, डाकू और भय आदि दोषों से रहित मार्गों को बनाना चाहिए, जहां किसी को कुछ भी कुछ भी दुःख या भय न होवे। इन सब को सिद्ध करके अखण्ड चक्रवर्ती राज्य का भोग करना और कराना चाहिये ॥४॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यत्र) जहाँ (आदित्यासः) ब्रह्मचर्य द्वारा अच्छे प्रकार सेवन करने से अड़तालीस वर्ष तक आत्मबल के साथ सूर्य के समान प्रकाशित हुए, अविनाशी धर्म को जाननेवाले विद्वान् लोग (रक्षका) रक्षक (भवन्ति) होते हैं। (च) और (यत्र) जहाँ (एतैः) इन सबके द्वारा (अनृक्षरः) कंटक, गड्ढे आदि दोषों से रहित, सेतुओं के निर्माण आदि के साथ विद्यमान सरल स्वभाव के लोग हों। जो चोरों, दस्युओं कुशिक्षा अविद्या अधर्म के आचरणों से रहित हैं। (सुगः) जिस मार्ग में सुख से जाते हैं और (पंथाः) जल, थल और अन्तरिक्ष में जाने के लिये शिक्षा, विद्या, धर्म और न्याय की प्राप्ति के लिये जो मार्ग (सम्पादितः) बनाया हुआ है, (तदर्थम्) उसके लिये (ऋतम्) ब्रह्म, सत्य और यज्ञ से (यते) प्रयास करनेवाले के लिये (च) भी (वः) तुम्हारे (अत्र) विद्वान् के जैसे प्रचारित किये हुए व्यवहार में (अवखादः) नष्ट होने का भय (न) नहीं (अस्ति) होता है ॥४॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (सुगः) सुखेन गच्छन्ति यस्मिन् सः (पंथाः) जलस्थलान्तरिक्षगमनार्थः शिक्षाविद्याधर्मन्यायप्राप्त्यर्थश्चमार्गः (अनृक्षरः) कंटकगर्त्तादिदोषरहितः सेतुमार्जनादिभिः सह वर्त्तमानः सरलः। चोरदस्युकुशिक्षाऽविद्याऽधर्माऽऽचरणरहितः (आदित्यासः) सुसेवितेनाष्टचत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्येण शरीरात्मबलसाहित्येनाऽऽदित्यवत्प्रकाशिता अविनाशिधर्मविज्ञाना विद्वांसः। आदित्या इति पदना०। निघं० ५।६। अनेन ज्ञानवत्त्वं सुखप्रापकत्त्वं च गृह्यते। (ऋतम्) ब्रह्म सत्यं यज्ञं वा (यते) प्रयतमानाय (न) निषेधार्थे (अत्र) विद्वत्प्रचारिते रक्षिते व्यवहारे (अवखादः) विखादो भयम् (अस्ति) भवति (वः) युष्माकम् ॥४॥ विषयः- पुनस्ते किं साधयेयुरित्युपदिश्यते। अन्वयः- यत्रादित्यासो रक्षका भवन्ति यत्र चैतैरनृक्षरः सुगः पन्थाः सम्पादितस्तदर्थमृतं यते च वोऽत्रावखादो नास्ति ॥४॥ भावार्थः(महर्षिकृत)- मनुष्यैर्भूमिसमुद्रान्तरिक्षेषु रथनौकाविमानानां गमनाय सरला दृढाः कंटकचोरदस्युभयादिदोषरहिताः पंथानो निष्पाद्या यत्र खलु कस्याऽपि किंचिद्दुःखभये न स्याताम्। एतत्सर्वं संसाध्याखण्डचक्रवर्त्तिराज्यं भोग्यं भोजयितव्यमिति ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी भूमी, समुद्र, अंतरिक्षात रथ, नौका, विमानातून जाण्यासाठी कंटक, चोर, डाकूंचे भय इत्यादी दोषांनी रहित सरळ दृढ मार्ग संपादन केला पाहिजे. जेथे कुणालाही कोणतेही दुःख किंवा भय होता कामा नये. हे सर्व सिद्ध करून अखंड चक्रवर्ती राज्याचा भोग केला, करविला गेला पाहिजे. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Adityas, men of divine brilliance, the path of those who go by truth and divine law is straight and simple. For you too (who are dedicated to Divinity and universal truth) there is no fear or danger.
Subject of the mantra
Then what should they accomplice, this topic has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yatra)=Where, (ādityāsaḥ)=practiced by well by celibacy, enlightened like the sun for forty-eight years with self-strength, learned people who know the imperishable religion, (rakṣakā) =protector, (bhavanti)=are, (ca)=and, (yatra)=where, (etaiḥ)=by all these, (anṛkṣaraḥ)=there should be people of simple nature, free from defects like thorns, pits etc., with the construction of bridges etc. Those who are free from the conduct of thieves, bandits, illiteracy, ignorance, unrighteousness. (sugaḥ) the path in which you go happily and, (paṃthāḥ)=to go in water, land and space, the path which is there for the attainment of education, knowledge, religion and justice, (sampāditaḥ)=is made, (tadartham)=for that, (ṛtam)=from Brahman, Satya and Yagya, (yate)=for those who try, (ca)=also, (vaḥ)=your, (atra)=in scholarly prevalent behavior, (avakhādaḥ)=fear of destruction (na)=not, (asti)=happens.
English Translation (K.K.V.)
Where by maintaining good practice of celibacy, for forty-eight years, with self-strength, the learned people who know the imperishable righteousness are the protectors. And where there are people of simple nature existing with the construction of bridges etc. by all of them, free from defects, like thorns, pits et cetera. Those, who are free from the behaviour of thieves, bandits and act of illiteracy, ignorance and unrighteousness. The path in which you go with happiness and the path that has been made for the attainment of education, knowledge, righteousness and justice to go in water, land and space, for those who try with Brahma, Satya and Yajnam, there is no fear of being destroyed in the behaviour promoted by you as a scholar.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Human beings should create easy routes for chariots, boats and planes on land, sea and space, and should be free from obstacles like barb, thieves, robbers and fear etc., where no one should have any sorrow or fear. After achieving all these, entire Chakravarti Rajya should be enjoyed and made enjoyable.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should they accomplish is taught in the fourth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Where Adityas (learned persons who have observed Brahmacharya up to the age of 48 or more ) are the protectors and where the path has been made thornless (externally by which men can go to the land, water and sky and internally the path which leads to education, knowledge, Dharma ( Righteousness) and justice and free from the conduct of thieves, robbers, bad education and unrighteousness) on that and for the person that tries to attain God, Truth and Yajna, there is no fear in the dealing, protected and preached by the enlightened.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पन्था:) जलस्थलान्तरिक्षगमनार्थ: शिक्षाविद्याधर्मन्याय प्राप्त्यर्थश्च मार्ग: । = Path in the water, land and firmament ( externally) and leading to ducation, wisdom, Dharma and justice. ( अनृक्षर: ) कण्टकगर्तादिदोषरहितः सेतुमार्जनादिभिः सह वर्तमानः सरलः, चोरदस्युकुशिक्षाऽविद्याऽधर्माचरणरहितः । = Free from thorns, pits and other defects, endowed with bridges and sweeping etc. as well as free from thieves, robbers, bad education, ignorance and un-righteous conduct. ( आदित्यासः ) सुसेवितेनाष्टचत्वारिंशद्वर्ष ब्रह्मचर्येण शरीरात्मबलसाहित्येन आदित्यवत् प्रकाशिता अविनाशिधर्मविज्ञाना विद्वांसः । आदित्या इति पदनामसु ( निध० ५.६ ) अनेन ज्ञानवत्त्वं सुखप्रापकत्वं च गृह्यते । = Highly learned persons, shining like the sun on account of the observance of Brahmacharya (continence) up to the age of 48 years, extra-ordinarily wise and givers of happiness to all. ( दो-अवखण्डने ) ( अवखाद:) विखाद: भयम्
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should construct easy straight paths free from the fear of thorns, pits, thieves and robbers by which chariots, steamers and aero planes may travel on the earth, the sea and the sky and there may not be any inconvenience and fear to any one. Having done all this, they should enjoy the happiness of good and vast Government and should allow others to do the same.
Translator's Notes
अवखादः इति खादि: सामर्थ्याद् हिंसार्थः इतिस्कन्द स्वामी = This meaning is akin to Rishi Dayananda's interpretation.
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