ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 41/ मन्त्र 9
ऋषिः - कण्वो घौरः
देवता - वरुणमित्रार्यमणः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
च॒तुर॑श्चि॒द्दद॑मानाद्बिभी॒यादा निधा॑तोः । न दु॑रु॒क्ताय॑ स्पृहयेत् ॥
स्वर सहित पद पाठच॒तुरः॑ । चि॒त् । दद॑मानात् । बि॒भी॒यात् । आ । निऽधा॑तोः । न । दुः॒ऽउ॒क्ताय॑ । स्पृ॒ह॒ये॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
चतुरश्चिद्ददमानाद्बिभीयादा निधातोः । न दुरुक्ताय स्पृहयेत् ॥
स्वर रहित पद पाठचतुरः । चित् । ददमानात् । बिभीयात् । आ । निधातोः । न । दुःउक्ताय । स्पृहयेत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 41; मन्त्र » 9
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 23; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(चतुरः) घ्नन्तं शपन्तं द्वावुक्तौ। द्वौ वक्ष्यमाणौ (चित्) अपि (ददमानात्) दुःखार्थं विषादिकं प्रयच्छतः (बिभीयात्) भयं कुर्य्यात् (आ) आभिमुख्ये (निधातोः) अन्यायेन परपदार्थानां स्वीकर्त्तुः (न) निषेधार्थे (दुरुक्ताय) दुष्टमुक्तं येन तस्मै (स्पृहयेत्) ईप्सेदाप्तुमिच्छेत् ॥९॥
अन्वयः
उक्तवक्ष्यमाणेभ्यश्चतुर्भ्यो दुष्टेभ्यो भयं कृत्वा कदाचिन्न विश्वसेदित्युपदिश्यते।
पदार्थः
मनुष्यो घ्नतः शपतो ददमानान्निधातोरेताञ्चतुरः प्रति न विश्वसेच्चिद्विभीयात्तथा दुरुक्ताय न स्पृहयेदेतान्पं च मित्रान्कर्त्तुं नेच्छेत् ॥९॥
भावार्थः
मनुष्यैर्दुष्टकर्म्मकारिणां दुष्टवचसां सङ्गविश्वासौ कदाचिन्नैव कार्यौ मित्रद्रोहापमानविश्वासघाताश्च कदाचिन्नैव कर्त्तव्या इति ॥९॥ अस्मिन्सूक्ते प्रजारक्षणं शत्रुविजयमार्गशोधनं यानरचनचालने द्रव्योन्नतिकरणं श्रेष्ठैः सह मित्रत्वभावनं दुष्टेष्वविश्वासकरणमधर्म्माचरणान्नित्यं भयमित्युक्तमतः पूर्वसूक्तार्थेन सहैतदर्थस्य संगतिरस्तीति बोध्यम्। इति प्रथमस्य तृतीये त्रयोविंशो वर्गः। २३। प्रथममंडल एकचत्वारिंशं सूक्तं च समाप्तम् ॥४१॥
हिन्दी (4)
विषय
जो कहे और जिनको आगे कहते हैं, उन चार दुष्टों से नित्य भय करके उनका विश्वास कभी न करे, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
मनुष्य (चतुरः) मारने शाप देने और (ददमानात्) विषादि देने और (निधातोः) अन्याय से दूसरे के पदार्थों को हरनेवाले इन चार प्रकार के मनुष्यों का विश्वास न करे (चित्) और इन से (बिभीयात्) नित्य डरे और (दुरुक्ताय) दुष्ट वचन कहने वाले मनुष्य के लिये (न स्पृहयेत्) इन पाचों को मित्र करने की इच्छा कभी न करें ॥९॥
भावार्थ
जैसे मनुष्य को दुष्ट कर्म्म करने वा दुष्ट वचन बोलने वाले मनुष्यों का संग विश्वास और मित्र से द्रोह, दूसरे का अपमान और विश्वासघात आदि कर्म्म कभी न करें ॥९॥ सं० भा० के अनुसार जैसे पद नहीं चाहिये। सं० इस सूक्त में प्रजा की रक्षा शत्रुओं को जीतना, मार्ग का शोधना यान की रचना और उनका चलाना, द्रव्यों की उन्नति करना श्रेष्ठों के साथ मित्रता दुष्टों में विश्वास न करना और अधर्माचरण से नित्य डरना इस प्रकार कथन से पूर्व सूक्तार्थ के साथ इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। यह पहिले अष्टक के तीसरे अध्याय में तेईसवां वर्ग। २३। और पहिले मण्डल में इकतालीसवां सूक्त समाप्त हुआ ॥४१॥
विषय
विष न देनेवाले व चोर न बनें [दुरुक्त से भय]
पदार्थ
१. (चतुरः चित् ददमानात्) - चार संख्यावाले पासों को हाथों में धारण करते हुए पुरुष से (अनिधातोः) - पासों को फलक पर डालने के समय तक जैसे दूसरा पुरुष (बिभीयात्) - डरता रहता है, ऐसे ही (दुरुक्ताय) - दुर्वचन के लिए (नः) - नहीं (स्पृहयेत्) - कामना करें, दुर्वचन से डरता ही रहे, अर्थात् हम कभी दुर्वचन न बोलें, न दुर्वचन बोलनेवालों के साथ मेल - जोल रक्खें ।
२. प्रस्तुत मन्त्र का अर्थ पिछले मन्त्र के अर्थ के साथ मिलाकर इस प्रकार भी किया जा सकता है कि (ददमानात्) - विष देनेवाले तथा (निधातोः) - चोरी करके इधर - उधर धनादि को गाड़नेवाले से (आ बिभीयात्) - सर्वथा डरे । पिछले मन्त्र में वर्णित 'घ्नन् व शपन्' के साथ "ददमान व निधातु" इन (चतुरः चित्) - चारों के प्रति (दुरुक्ताय) - दुर्वचन कहने के लिए भी (न स्पृहयेत्) - कामना न करे । इनको बुरा - भला कहने से सुधार की सम्भावना नहीं । वे हमारे शत्रु बनकर हमें परेशान ही करेंगे । इनको राजा ही उचित दण्ड देगा । हमें उनसे वास्ता न रखना ही ठीक है । मनु लिखते हैं - अग्निदान् भक्तदाँश्चैव तथा शस्त्रावकाशदान् । संनिधातॄंश्च मोषस्य हन्याच्चौरमिवेश्वरः ।। [मनु० ९/२७८] आग लगा देनेवाले, भोजन में विष देनेवाले, शस्त्रप्रयोग का अवसर देनेवाले तथा चोरी का माल छिपाकर रखनेवालों को राजा चोर की भाँति दण्ड दे ।
भावार्थ
भावार्थ - जैसे जुआरी से डर लगता है, उसी प्रकार दुरुक्त से डरना चाहिए ।
विशेष / सूचना
विशेष - सूक्त का आरम्भ इस प्रकार हुआ है कि हम 'निर्द्वेषता, स्नेह, दान तथा संयम' से चलें [१] । तभी हम पूर्ण वृद्धि को प्राप्त हो सकेंगे [२] । ऋत पर चलने से हमारा मार्ग अकण्टक होगा [४] । जो भी यज्ञ हम करेंगे, वह हमारे ही कल्याण के लिए होगा [५] । इस जीवन में हम हिंसा व अपशब्दों से बचें [६] । दुरुक्त की कभी कामना न करें [९] । ऐसा होने पर ही हम आगे बढ़ेंगे -
विषय
चार भय स्थानों का वर्णन
भावार्थ
(चतुरः चित्) चार पदार्थों को (ददमानात्) देने वाले पुरुष से और (निधातोः) चोरे हुए पदार्थों को स्थान देने वाले पुरुष से भी (आ बिभीयात्) डरे। (दुरुक्ताय) दुष्ट, दुःखदायी वचन और उसको कहने वाले को कभी (न स्पृहयेत्) स्नेह न करे। अथवा—द्यूत खेलने वाला पुरुष (चित्) जिस प्रकार (चतुरः ददमानात्) चार पासों को हाथ में लेने वाले से तभी तक डरता है (आनिधातोः) जब तक वह पासों को नीचे नहीं धरता, उसी प्रकार (दुरुक्ताय) दुर्वचन कहने वाले से डरे। उससे कभी प्रेम न करे [निरुक्तकार यास्क तथा सायण] । (हे मनुष्याः! घ्नतः शपतो ददमानात् निघातोरेताश्चतुरः प्रति न विश्वसेत् बिभीयात् । दुरुक्ताय न स्पृहयेत्। एतान् मित्रकर्तुं नेच्छेत्।) मारने वाले हत्याकारी, निन्दक, विष आदि देने वाले और अन्याय से पर पदार्थ के लेने वाले इन चारों पर विश्वास न करे। इनसे डरे। और दुर्वचन कहने वाले के साथ प्रेम न करे। इन चारों को मित्र न बनावे [दया०]। (१) दूसरे के घर में आग लगा देने वाले (२) विषयुक्त अन्न देनेवाले, (३) हत्या के लिए शस्त्र देने वाले और (४) हत्यारे, विषदायी और अग्नि लगानेवाले इन तीनों प्रकार के अपराधियों को अपने घर में स्थान देनेवाले इन चारों को, और चोरे हुए पदार्थ को अपने घर में रखने वालों को भी राजा चोर के समान दण्ड दे। वेद में भी उक्त चारों पदार्थों को देने वाले और चोरित पदार्थ को लेकर रखनेवाले से भय करने और शंकित रहने को कहा है। अथवा (चतुरः चित् ददमानात्) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इनके ग्राप्ति साधनों के देनेवाले पुरुष से और (आ निधातोः) वीर्य निषेक करनेहारे मातापिता से भी (विभीयात्) भय करे। परन्तु (न दुरुक्ताय स्पृहयेत्) उनके दुर्वचन को स्वयं ग्रहण न करे। अथवा उनके दोषयुक्त वचन या बुरे उपदेश का आदर या प्रेम न करे। राजापक्ष में— (चतुरःचित्) चारों सेनाओं के देने में समर्थ और प्रचुर कोश वाले राजा से भय करे। परन्तु दुर्वचन कहानेवालो का आदर न करे। इति त्रयोविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
‘चतुरःचित् ददमानात्’ - इस प्रसंग में मनु कहते हैं- अग्निदान् भक्तदाँश्चैव तथा शस्त्रावकाशदान् । संनिधातूंश्च मोषस्य हन्यात् चौरमिवेश्वरः ।॥ मनु० अ० ९ । २७७ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
काण्वो घौर ऋषिः ॥ देवता—१—३, ७-९ वरुणमित्रार्यमणः । ४–६ आदित्याः ॥ छन्दः-१, ४, ५, ८ गायत्री । २, ३, ६ विराड् गायत्री । ७, ९ निचृद् गायत्री ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
जो कहे और जिनको आगे कहते हैं, उन चार दुष्टों से नित्य भय करके उनका विश्वास कभी न करे, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
मनुष्यः घ्नतः शपतः ददमानात् निधातोः एतान् चतुरः प्रति न विश्वसेत् चित् बिभीयात् तथा दुरुक्ताय न स्पृहयेत् एतान् पंच मित्रान् कर्त्तुं न इच्छेत् ॥९॥
पदार्थ
(मनुष्यः)=मनुष्य, (घ्नतः)=मारनेवाले, (शपतः)=अभिशप्त करनेवाले, (ददमानात्) दुःखार्थं विषादिकं प्रयच्छतः=दुःख के लिये विष आदि देते हुए, (निधातोः) अन्यायेन परपदार्थानां स्वीकर्त्तुः एतान्=अन्याय के द्वारा इन दूसरों के पदार्थों को स्वीकार करनेवाला, (चतुरः) घ्नन्तं शपन्तं द्वावुक्तौ=मारनेवाले और अभिशप्त करनेवाले जो दोनों कहे गये हैं, उनके (प्रति)=प्रति, (न) निषेधार्थे=न, (विश्वसेत्)=विश्वास करे, (चित्) अपि=भी, (बिभीयात्) भयं कुर्य्यात्=भय करता है, (तथा)=और, (दुरुक्ताय) दुष्टमुक्तं येन तस्मै=कहे गये दुष्ट जिसके द्वारा, (न) निषेधार्थे=न, (स्पृहयेत्) ईप्सेदाप्तुमिच्छेत्=ईर्षा करने की इच्छा करे, (एतान्)=इन, (पंच)=पाँच, (मित्रान्)=मित्रों को, (कर्त्तुम्)=करने के लिये, (न) निषेधार्थे=न, (इच्छेत्)=इच्छा करे ॥९॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों के द्वारा दुष्ट कर्म करने और दुष्ट वचन बोलने वाले मनुष्यों का संग और विश्वास कभी भी नहीं करना चाहिए। मित्र से द्रोह, उसका अपमान और विश्वासघात कभी भी नहीं करना चाहिए। ॥९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(मनुष्यः) मनुष्य (घ्नतः) मारनेवाले, (शपतः) अभिशप्त करनेवाले, (ददमानात्) दुःख के लिये विष आदि देते हुए, (निधातोः) अन्याय के द्वारा इन दूसरों के पदार्थों को स्वीकार करनेवाले, (चतुरः) मारनेवाले और अभिशप्त करनेवाले जो दोनों कहे गये हैं, उनके (प्रति) प्रति (न+विश्वसेत्) विश्वास न करे। [जो] (बिभीयात्+चित्) भय भी करता है (तथा) और (दुरुक्ताय) जो दुष्ट कहे गये हैं, [उनसे] (न+स्पृहयेत्) ईर्षा करने की इच्छा न करे। (एतान्) इन [सब] (पंच) पाँच [लोगों से] (मित्रान्) मित्रता (कर्त्तुम्) करने की (न+इच्छेत्) इच्छा न करे ॥९॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (चतुरः) घ्नन्तं शपन्तं द्वावुक्तौ। द्वौ वक्ष्यमाणौ (चित्) अपि (ददमानात्) दुःखार्थं विषादिकं प्रयच्छतः (बिभीयात्) भयं कुर्य्यात् (आ) आभिमुख्ये (निधातोः) अन्यायेन परपदार्थानां स्वीकर्त्तुः (न) निषेधार्थे (दुरुक्ताय) दुष्टमुक्तं येन तस्मै (स्पृहयेत्) ईप्सेदाप्तुमिच्छेत् ॥९॥ विषयः- उक्तवक्ष्यमाणेभ्यश्चतुर्भ्यो दुष्टेभ्यो भयं कृत्वा कदाचिन्न विश्वसेदित्युपदिश्यते। अन्वयः- मनुष्यो घ्नतः शपतो ददमानान्निधातोरेताञ्चतुरः प्रति न विश्वसेच्चिद्बिभीयात्तथा दुरुक्ताय न स्पृहयेदेतान्पं च मित्रान्कर्त्तुं नेच्छेत् ॥९॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैर्दुष्टकर्म्मकारिणां दुष्टवचसां सङ्गविश्वासौ कदाचिन्नैव कार्यौ मित्रद्रोहापमानविश्वासघाताश्च कदाचिन्नैव कर्त्तव्या इति ॥९॥ सूक्तस्य भावार्थः (महर्षिकृतः)- अस्मिन्सूक्ते प्रजारक्षणं शत्रुविजयमार्गशोधनं यानरचनचालने द्रव्योन्नतिकरणं श्रेष्ठैः सह मित्रत्वभावनं दुष्टेष्वविश्वासकरणमधर्म्माचरणान्नित्यं भयमित्युक्तमतः पूर्वसूक्तार्थेन सहैतदर्थस्य संगतिरस्तीति बोध्यम् ॥९॥ महर्षिकृत सूक्त के भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में प्रजा की रक्षा, शत्रुओं को जीतना, मार्ग को शुद्ध करना, यान की रचना करना और उनका चलाना, द्रव्यों की उन्नति करना, श्रेष्ठ लोगों के साथ मित्रता की भावना रखना, दुष्टों में विश्वास न करना और अधर्माचरण से नित्य डरना, इस प्रकार कथन से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ इस सूक्त के अर्थ की सङ्गति जाननी चाहिये। ॥९॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी दुष्ट कर्म करणाऱ्या, दुष्ट वचन बोलणाऱ्या माणसांचा संग, विश्वासघात तसेच मित्रांशी द्रोह, दुसऱ्याचा अपमान इत्यादी कर्मे कधी करू नयेत. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Trust not, fear the man who gives you four: hurt, curse, pain and depression. Off with the thief, the encroacher and misappropriator. Love not one who speaks evil.$Feel reverence and awe, without fear, for the man who gives you four: Dharma, Artha (wealth), Kama (fulfilment), Moksha (ultimate freedom). Respect the parent. Love not the man of evil tongue.
Subject of the mantra
Whatever they say and those whom they tell, never trust those four wicked people by being constantly afraid of them, this topic has been preached in this verse.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(manuṣyaḥ)=Human, (ghnataḥ)=killers, (śapataḥ)=cursers, (dadamānāt)=by giving poison etc. for sorrow, (nidhātoḥ)=those who accept the goods of others through injustice, (caturaḥ)=the one who kills and the one who curses, both of them are called, (prati)=towards, (na+viśvaset)=must not believe, [jo]=who, (bibhīyāt+cit)=does fear too, (tathā)=and, (duruktāya) jo duṣṭa kahe gaye haiṃ, [unase] (na+spṛhayet)=must not wish to be jealous, (etān)=these, [saba]=all, (paṃca)=five,[logoṃ se]=from people, (mitrān)=friendship, (karttum)=for making, (na+icchet)=must not wish.
English Translation (K.K.V.)
One who kills, curses, gives poison for sorrow etc., accepts these other's things through injustice, kills and curses, both of them should not believe in those who have been said. One who fears and who has been called wicked should not wish to envy them. Do not wish to be friends with all these five people.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Humans should never associate or trust people who do evil deeds and speak evil words. One should never betray, insult or betray a friend. Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand- In this hymn, protection of the people, victory over the enemies, cleanliness of the path, construction and operation of vehicles, advancement of wealth, feeling of friendship with the best people, not trusting the wicked and always being afraid of unrighteous conduct, In this way, before narrating, the consistency of the interpretation of this hymn with the interpretation of the previous hymn should be known.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The following four wicked persons should never be trusted, is taught in the Ninth Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A man should not trust but have apprehension or want of confidence in the following four wicked persons. (1) One who kills or resorts to violence. (2) One who reviles or abuses.(3) Who administers poison to give trouble. (4) Who. misappropriates others' articles unjustly, one should also not love to speak ill words. A man should not make the above five including a man of ill words as his friends.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(ददमानात्) दुःखार्थ विषादिकं प्रयच्छतः = From giving poisonous substance to cause trouble. ( निधातो:) अन्यायेन परपदार्थान् स्वीकर्तुः = From a person misappropriating other's property.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
A man should not associate himself with or trust persons of ill words and wicked actions. He should not also be unfaithful to his friends, nor hate or insult them.
Translator's Notes
In this hymn the subjects like the protection of the people, conquering enemies, keeping friendship with righteous persons, not trusting the wicked, refraining from un-righteous conduct etc. have been told and so it has direct connection with the previous hymn. Here ends the commentary of the forty-first hymn of the first Mandala of the Rigveda.
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