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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 53 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 53/ मन्त्र 4
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    ए॒भिर्द्युभिः॑ सु॒मना॑ ए॒भिरिन्दु॑भिर्निरुन्धा॒नो अम॑तिं॒ गोभि॑र॒श्विना॑। इन्द्रे॑ण॒ दस्युं॑ द॒रय॑न्त॒ इन्दु॑भिर्यु॒तद्वे॑षसः॒ समि॒षा र॑भेमहि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒भिः । द्युभिः॑ । सु॒ऽमनाः॑ । ए॒भिः । इन्दु॑ऽभिः । निः॒ऽउ॒न्धा॒नः । अम॑तिम् । गोभिः॑ । अ॒श्विना॑ । इन्द्रे॑ण । दस्यु॑म् । द॒रय॑न्तः । इन्दु॑ऽभिः । यु॒तऽद्वे॑षसः । सम् इ॒षा । र॒भे॒म॒हि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एभिर्द्युभिः सुमना एभिरिन्दुभिर्निरुन्धानो अमतिं गोभिरश्विना। इन्द्रेण दस्युं दरयन्त इन्दुभिर्युतद्वेषसः समिषा रभेमहि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एभिः। द्युभिः। सुऽमनाः। एभिः। इन्दुऽभिः। निःऽउन्धानः। अमतिम्। गोभिः। अश्विना। इन्द्रेण। दस्युम्। दरयन्तः। इन्दुऽभिः। युतऽद्वेषसः। सम् इषा। रभेमहि ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 53; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 15; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    वयं योऽमतिं निरुन्धानः सुमना विद्वानस्ति तं प्राप्य तत्सहायेनैभिर्द्युभिरेभिरfन्दुभिर्गोभिरश्विनेन्दुभिरिषेन्द्रेण सह दस्युं दरयन्तो युतद्वेषसः शत्रुभिः सह युद्धं सुखेन समारभेमहि ॥ ४ ॥

    पदार्थः

    (एभिः) प्रत्यक्षैः (द्युभिः) प्रकाशयुक्तैर्गुणैर्द्रव्यैर्वा (सुमनाः) शोभनं मनो विज्ञानं यस्य सभाध्यक्षस्य सः (एभिः) वक्ष्यमाणैः (इन्दुभिः) आह्लादकारिभिर्गुणैः पदार्थैर्वा (निरुन्धानः) निरोधं कुर्वन् (अमतिम्) अविद्यमाना मतिर्विज्ञानं सुखं वा यस्यामविद्यायां दरिद्रायां वा तां सुरूपं वा (गोभिः) प्रशस्ताभिर्वाग्धेनुपृथिवीभिः (अश्विना) अग्निजलसूर्यचन्द्रादिभिः (इन्द्रेण) विद्युता तद्रचितेन विदारकेण शस्त्रेण वा (दस्युम्) बलात्कारेण परस्वापहर्त्तारम् (दरयन्तः) विदारयन्तः (इन्दुभिः) अभिषुतैर्बलकारिभिः पेयैः सोमरसाभियुक्तैर्जलैः (युतद्वेषसः) युता अमिश्रिताः पृथग्भूता द्वेषा येभ्यस्ते (सम्) सम्यगर्थे (इषा) इच्छया अन्नादिना वा (रभेमहि) आरम्भं कुर्वीमहि ॥ ४ ॥

    भावार्थः

    यः सभाद्यध्यक्षो वा सर्वं दारिद्र्यं विनाश्य शत्रुविजयं कृत्वा सर्वा विद्याः शिक्षित्वाऽस्मान् सुखयति स सर्वैर्मनुष्यैः समाश्रयितव्यश्चेति नहि खल्वेतत्सहायेन विना कश्चिदपि व्यावहारिकं चानन्दं प्राप्तुं शक्नोति, तस्मादेतत्सहायेन सर्वेषां धर्म्याणां कार्याणामारम्भः सुखसेवनं च नित्यं कार्य्यमिति ॥ ४ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हम लोग जो (अमतिम्) विज्ञान वा सुख से अविद्या दरिद्रता तथा सुन्दर रूप को (निरुन्धानः) निरोध वा ग्रहण करता हुआ (सुमनाः) उत्तम विज्ञानयुक्त सभाध्यक्ष है, उसकी प्राप्ति कर उसके सहाय वा (एभिः) इन (द्युभिः) प्रकाशयुक्त द्रव्य (एभिः) इन (इन्दुभिः) आह्लादकारक गुण वा पदार्थ इन (गोभिः) प्रशंसनीय गौ पृथिवी (अश्विना) अग्नि, जल, सूर्य्य, चन्द्र आदि (इषा) इच्छा वा अन्नादि (इन्दुभिः) सोमरसादि पेयों (इन्द्रेण) बिजुली और उसके रचे हुए विदारण करनेवाले शस्त्र से (दस्युम्) बल से दूसरे के धन को लेनेवाले दुष्ट को (दरयन्तः) विदारण करते हुए (युतद्वेषसः) द्वेष से अलग होनेवाले शत्रुओं के साथ युद्ध को सुख से (समारभेमहि) आरम्भ करें ॥ ४ ॥

    भावार्थ

    जो सभाध्यक्ष सब विद्याओं की शिक्षा कर हम लोगों को सुखी करता है, उसका सब मनुष्यों को सेवन करना चाहिये । इस के सहाय के विना कोई भी मनुष्य व्यावहारिक और परमार्थविषयक आनन्द को प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता, इससे इसके सहाय से सब धर्मयुक्त कार्यों का आरम्भ वा सुख का सेवन करना चाहिये ॥ ४ ॥

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    विषय

    उत्तम जीवन

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! आपकी कृपा से हममें से प्रत्येक व्यक्ति (एभिः द्युभिः सुमनाः) = इन आपसे दी गई ज्ञान - ज्योतियों से उत्तम मनवाला हो । ज्ञान प्राप्त करके ही मनुष्य मन की मैल को दूर कर पाता है । ज्ञान ही आन्तर पवित्रता का साधन है । २. आपकी कृपा से हमारे सब व्यक्ति (एभिः इन्दुभिः) = इन सोमकणों से (अमतिम्) = बुद्धि की मन्दता को (निरुन्धानः) = रोकनेवाले हों । सोम की रक्षा से इन सोमकणों से दीप्त हुई - हुई प्रत्येक व्यक्ति की बुद्धि दीप्त हो । हममें कोई भी मन्दबुद्धि न हो । यह बुद्धि - मान्दता ही सब अवनतियों का मूल हुआ करती है ३. (गोभिः) = गोदुग्ध के सेवन से (अश्विना) = प्राणापान की शक्ति के वर्धन से तथा (इन्द्रेण) = जितेन्द्रियता से (दस्यु दरयन्तः) = दास्यव वृत्ति को विदीर्ण करते हुए हों । हममें तोड़ - फोड़ की भावना न पनपे, हम सदा निर्माण की वृत्तिवाले हों । ४. (इन्दुभिः) = इन सोमकणों की रक्षा से हम (युतद्वेषसः) = परस्पर द्वेष से रहित हों [युत अनिश्चिते] । ५. हे प्रभो ! आप ऐसी कृपा करें कि हम (इषा) = आपकी प्रेरणा से ही (संरभेमहि) = प्रत्येक कार्य को आरम्भ करें । 'स्वस्य च प्रियमात्मनः' इन मनु शब्दों के अनुसार अन्तः स्थित आपको जो प्रिय हो वही कार्य हम करें ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ज्ञान प्राप्त करना, सोमकणों का रक्षण करना, गोदुग्ध का प्रयोग तथा प्रभु - प्रेरणा के अनुसार कार्य करना - ये बातें हैं जिनसे हम 'प्रशस्त मनवाले, तीन बुद्धिवाले, दास्यव वृत्ति से शून्य व निर्द्वेष' बनते हैं ।

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    जो पुरुष ( सुमनाः ) शुभचित्तवाला, उत्तम ज्ञानवान् ( गोभिः ) ज्ञानवाणियों से हमारे (अयतिम्) अज्ञान, अविद्या या दारिद्र्य दशा को ( निरुन्धानः ) रोकनेवाला है, उसके साहाय्य से और (एभिः) इन नाना प्रकार के ( द्युभिः ) प्रकाशयुक्त, द्रव्यों और उत्तम गुणों से, और (एभिः इन्दुभिः) इन ऐश्वर्यों, आह्लादक सुखजनक पदार्थों और अति वेग से जाने वाले वीर पुरुषों से और (अश्विना ) अश्व, अग्नि, जल आदि युक्त रथ बल, तथा अश्व अर्थात् राष्ट्र और राष्ट्रपति से और ( इन्द्रेण ) शत्रुओं के नाशक, विद्युत् से बने अस्त्र से हम लोग ( दस्युम् ) प्रजा के से नाशक अत्याचारी डाकू लोगों को ( दश्यन्तः ) भयभीत करते हुए और उसको मारते काटते हुए और ( इन्दुभिः) अति वेगवान्, द्रुतगामी, वीरों द्वारा ( युतद्वेषसः ) शत्रुओं को सदा के लिए दूर करके या ( इन्दुभिः ) ज्ञानवान्, उत्तम विद्वानों के द्वारा (युतद्वेषसः) परस्पर के द्वेष के भावों को दूर करके (इषा) अन्नों द्वारा या प्रबल इच्छा से या प्रबल सेना से ( संरभेमहि ) युद्ध आदि कार्य प्रारम्भ करें । अथवा ( इन्दुभिः इषा युतद्वेषसः ) जलों और अन्न के एक साथ उपभोग द्वारा परस्पर के द्वेष के भावों को दूर करके ( संरभेमहि ) एकत्र मिलकर, संगठित होकर कार्य आरम्भ करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-११ सव्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ३ निचृज्जगती । २ भुरिग्जगती । ४ जगती । ५, ७ विराड्जगती ६, ८,९ त्रिष्टुप् ॥१० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ सतः पङ्क्तिः ॥

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    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष कैसा है, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    वयं यः अमतिं निरुन्धानः{अमतिम्} सुमना विद्वान् अस्ति तं प्राप्य तत् सहायेन एभिः द्युभिः एभिः इन्दुभिः गोभिः अश्विना इन्दुभिः इषा इन्द्रेण सह दस्युं दरयन्तः युतद्वेषसः शत्रुभिः सह युद्धं सुखेन सम् आ रभेमहि॥४॥

    पदार्थ

    (वयम्)=हम, (यः)=जो, (अमतिम्) अविद्यमाना मतिर्विज्ञानं सुखं वा यस्यामविद्यायां दरिद्रायां वा तां सुरूपं वा=विशेष ज्ञान की मानसिकता के सुख से रहित, जिसमें अविद्या और दरिद्रता विद्यमान नहीं है, ऐसे शोभनीय रूपवाले का, (निरुन्धानः) निरोधं कुर्वन्= विरोध करते हुए, (सुमनाः) शोभनं मनो विज्ञानं यस्य सभाध्यक्षस्य सः= शोभनीय मानसिकता वाले सभाध्यक्ष, (विद्वान्) = विद्वान्, (अस्ति)=है। (तम्)=उसको, (प्राप्य) =प्राप्त करके, (तत्) =उसकी, (सहायेन)=सहायता से, (एभिः) प्रत्यक्षैः=इस प्रत्यक्ष, (द्युभिः) प्रकाशयुक्तैर्गुणैर्द्रव्यैर्वा=प्रकाश से युक्त गुणों और द्रव्य से, (एभिः) वक्ष्यमाणैः=इस कहे गये, (इन्दुभिः) अभिषुतैर्बलकारिभिः पेयैः सोमरसाभियुक्तैर्जलैः= बल प्रदान करनेवाले सोम रस से मिश्रित जल से, (गोभिः) प्रशस्ताभिर्वाग्धेनुपृथिवीभिः= प्रशस्त वाणी, गाय और पृथिवी से, (अश्विना) अग्निजलसूर्यचन्द्रादिभिः= अग्नि, जल, सूर्य, चन्द्र आदि के द्वारा, (इन्दुभिः) आह्लादकारिभिर्गुणैः पदार्थैर्वा=आनन्द प्रदान करनेवाले गुणों और पदार्थों से, (इषा) इच्छया अन्नादिना वा=इच्छा और अन्न आदि के (इन्द्रेण) विद्युता तद्रचितेन विदारकेण शस्त्रेण वा=बिजली और उसके द्वारा रचे गये विदारक शस्त्रों के, (सह)=साथ, (दस्युम्) बलात्कारेण परस्वापहर्त्तारम्=जबरदस्ती दूसरों धन के हरण करनेवालों को, (दरयन्तः) विदारयन्तः= टुकड़े-टुकड़े करते हुए, (युतद्वेषसः) युता अमिश्रिताः पृथग्भूता द्वेषा येभ्यस्ते=जिनसे द्वेष दूर हो गये हैं, ऐसे, (शत्रुभिः)=शत्रुओं के, (सह)=साथ, (युद्धम्)= युद्ध का, (सुखेन)= सुख से, (सम्) सम्यगर्थे=अच्छी तरह से, (आ)=हर ओर से, (रभेमहि) आरम्भं कुर्वीमहि= आरम्भ करें ॥४॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो सभाध्यक्ष, सब दरिद्रताओं का नाश करके, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके, सब विद्याओं की शिक्षा देकर हमें सुखी करता है, वह सब मनुष्यों समान रूप से आश्रय देता है। और इसकी सहायता के विना कोई भी मनुष्य व्यावहारिक आनन्द को प्राप्त करने में समर्थ नहीं हो सकता है। इसलिये इसकी सहायता से सब धर्मयुक्त कार्यों का आरम्भ वा सुख का सेवन नित्य करना चाहिये ॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (वयम्) हम, (यः) जो (अमतिम्) विशेष ज्ञान की मानसिकता के सुख से रहित, जिसमें अविद्या और दरिद्रता विद्यमान नहीं है, ऐसे शोभनीय रूपवाले का (निरुन्धानः) विरोध करते हुए, (सुमनाः) जो शोभनीय मानसिकता वाले सभाध्यक्ष (विद्वान्) विद्वान् (अस्ति) है। (तम्) उसको (प्राप्य) प्राप्त करके, (तत्) उसकी (सहायेन) सहायता से, (एभिः) इस प्रत्यक्ष (द्युभिः) प्रकाश से युक्त गुणों और द्रव्य से (एभिः) कहे गये, (इन्दुभिः) बल प्रदान करनेवाले सोम रस से मिश्रित जल से, (गोभिः) प्रशस्त वाणी, गाय और पृथिवी से (अश्विना) अग्नि, जल, सूर्य, चन्द्र आदि के द्वारा (इन्दुभिः) आनन्द प्रदान करनेवाले गुणों और पदार्थों से (इषा) इच्छा और अन्न आदि के द्वारा (इन्द्रेण) बिजली और उसके द्वारा रचे गये विदारक शस्त्रों के (सह) साथ (दस्युम्) जबरदस्ती दूसरों धन के हरण करनेवालों के (दरयन्तः) टुकड़े-टुकड़े करते हुए, (युतद्वेषसः) जिनसे द्वेष दूर हो गये हैं, ऐसे (शत्रुभिः) शत्रुओं के (सह) साथ (युद्धम्) युद्ध का (सुखेन) सुख (सम्) अच्छी तरह से (आ) हर ओर से (रभेमहि) आरम्भ करें ॥४॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (एभिः) प्रत्यक्षैः (द्युभिः) प्रकाशयुक्तैर्गुणैर्द्रव्यैर्वा (सुमनाः) शोभनं मनो विज्ञानं यस्य सभाध्यक्षस्य सः (एभिः) वक्ष्यमाणैः (इन्दुभिः) आह्लादकारिभिर्गुणैः पदार्थैर्वा (निरुन्धानः) निरोधं कुर्वन् (अमतिम्) अविद्यमाना मतिर्विज्ञानं सुखं वा यस्यामविद्यायां दरिद्रायां वा तां सुरूपं वा (गोभिः) प्रशस्ताभिर्वाग्धेनुपृथिवीभिः (अश्विना) अग्निजलसूर्यचन्द्रादिभिः (इन्द्रेण) विद्युता तद्रचितेन विदारकेण शस्त्रेण वा (दस्युम्) बलात्कारेण परस्वापहर्त्तारम् (दरयन्तः) विदारयन्तः (इन्दुभिः) अभिषुतैर्बलकारिभिः पेयैः सोमरसाभियुक्तैर्जलैः (युतद्वेषसः) युता अमिश्रिताः पृथग्भूता द्वेषा येभ्यस्ते (सम्) सम्यगर्थे (इषा) इच्छया अन्नादिना वा (रभेमहि) आरम्भं कुर्वीमहि ॥४॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- वयं योऽमतिं निरुन्धानः सुमना विद्वानस्ति तं प्राप्य तत्सहायेनैभिर्द्युभिरेभिरिन्दुभिर्गोभिरश्विनेन्दुभिरिषेन्द्रेण सह दस्युं दरयन्तो युतद्वेषसः शत्रुभिः सह युद्धं सुखेन समारभेमहि ॥ ४ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यः सभाद्यध्यक्षो वा सर्वं दारिद्र्यं विनाश्य शत्रुविजयं कृत्वा सर्वा विद्याः शिक्षित्वाऽस्मान् सुखयति स सर्वैर्मनुष्यैः समाश्रयितव्यश्चेति नहि खल्वेतत्सहायेन विना कश्चिदपि व्यावहारिकं चानन्दं प्राप्तुं शक्नोति, तस्मादेतत्सहायेन सर्वेषां धर्म्याणां कार्याणामारम्भः सुखसेवनं च नित्यं कार्य्यमिति ॥४॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो सभाध्यक्ष दारिद्र्याचा नाश करून शत्रूवर विजय प्राप्त करतो व विद्येचे शिक्षण देऊन सुखी करतो. त्याचा सर्व माणसांनी स्वीकार केला पाहिजे. त्याच्या साह्याखेरीज कोणीही माणूस व्यावहारिक व पारमार्थिक आनंद प्राप्त करण्यास समर्थ होऊ शकत नाही. त्यामुळे त्याच्या साह्याने सर्व धर्मयुक्त कार्यांचा आरंभ व सुखाचा अंगीकार केला पाहिजे. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of power and glory, pleased at heart, with these lights of knowledge and these streams of soma, preventing our want and poverty of wealth and knowledge, bless us with cows and horses, gifts of divine speech, lands and wealth of mind and wisdom, and speedy movement in progress, so that, subduing the evil and wicked enemies, and free from the jealous and hateful, we may enjoy and live happily with plenty of food and energy and joyous drinks of soma in a state of power and prosperity.

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    Subject of the mantra

    Then what kind of Chairman is that, this matter is mentioned in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (vayam) =We, (yaḥ) =that, (amatim)=deprived of the happiness of mentality of special knowledge, in which ignorance and poverty do not exist, of such a beautiful form, (nirundhānaḥ) =protesting, (sumanāḥ) =Chairman with a dignified mentality, (vidvān) =scholar, (asti) =is, (tam) =to him, (prāpya) =obtaining, (tat) =his, (sahāyena) =with help, (ebhiḥ) =this evident, (dyubhiḥ)=with qualities and matter consisting of light, (ebhiḥ) =said, (indubhiḥ)=with water mixed with Soma juice which provides strength, (gobhiḥ)=by expansive speech, cow and earth, (aśvinā)= through fire, water, Sun, Moon etc., (indubhiḥ) =by qualities and substances that provide pleasure, (iṣā) =through desire and food etc., (indreṇa)= of electricity and the destructive weapons created by it, (saha) =with, (dasyum)=of those who forcefully snathing money from others, (darayantaḥ)= breaking into pieces, (yutadveṣasaḥ)=those from whom hatred has gone away, such (śatrubhiḥ) =of enemies, (saha) =against, (yuddham) =of battle, (sukhena) =delight, (sam)=thoroughly, (ā) =from all sides, (rabhemahi) =let us start.

    English Translation (K.K.V.)

    We, who are devoid of the happiness of the mentality of special knowledge, in which ignorance and poverty do not exist, are opposing the one with such a beautiful appearance, who is the learned scholar with a beautiful mentality. After attaining it, with its help, what is said from the qualities and matter containing this direct light, from water mixed with Soma juice which provides strength, from the eloquent speech, cow and earth, which provides happiness through fire, water, Sun, Moon et cetera. By forcefully cutting into pieces those snatching away the wealth of others, by means of desire and food etc. with the help of virtues and substances, with lightning and the disintegrating weapons created by him, the joy of war with such enemies from whom malice has gone away, is thoroughly enjoyed, let us start from all sides.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    The one, who makes us happy by eliminating all the poverty, by conquering the enemies and by teaching us all the knowledge, provides equal shelter to all human beings. And without its help no human being will be able to attain practical happiness. Therefore, with its help one should start all righteous activities or enjoy happiness daily.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Tearing off the thieves and robbers that take away others articles, with the help of Indra (The President of the Assembly) who is highly learned and wise and who dispels all ignorance and poverty, taking assistance from shining qualities and objects, delighting virtues and substances, admirable speech, cattle and land, fire and water, sun and moon, electricity and electrical Joyous and nourishing weapons, with drinking like Soma or essence of various herbs and food, let us commence fight with the wicked enemies with strong will to overcome them, being free from malice in our hearts.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (इन्दुभिः) आह्वाद्कारिभिर्गुणै: पदार्थैवा = With delighting virtues and substances. २. (इन्दुभि:) अभिषुतैर्बलकारिभिः पेयैः सोमरसादियुक्तैर्कलैः = With drinkable waters mixed with Soma or essence of various nourishing herbs. ( द्युभिः) प्रकाशयुक्तैर्गुणद्रव्यैर्वा = With shining qualities or objects.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The President of the Assembly or the commander of the army who gives us happiness by dispelling all ignorance and poverty, by conquering enemies and by educating all should be approached by all. No one can enjoy worldly happiness without his help. Therefore all should begin the performance of all righteous acts and the enjoyment of all legitimate happiness.

    Translator's Notes

    The word Indu ( इन्दु ) is derived from उन्दी-क्लेदने उन्हेरिच्चादे: ( उणादि० १.१२ ) उनति आद्रीकरोति पदार्थानानिति इन्दु चन्द्रमा वा चदि आह लादे So Rishi Dayananda taking इन्दु (Indu) and Chandra as synonymous terms has explained इन्दुभि: as आह् लादकारिभिगुर्णै:पदार्थैर्वा While giving the second meaning of waters mixed with Soma also he has derived it from the same root उन्दी-बलेदने to wet and has relied upon the Vedic Lexicon-Nighantu 1.12 इन्दुरिति उदकनाम ( निघ० १.१२ )

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