Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 53 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 53/ मन्त्र 9
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वमे॒ताञ्ज॑न॒राज्ञो॒ द्विर्दशा॑ब॒न्धुना॑ सु॒श्रव॑सोपज॒ग्मुषः॑। ष॒ष्टिं स॒हस्रा॑ नव॒तिं नव॑ श्रु॒तो नि च॒क्रेण॒ रथ्या॑ दु॒ष्पदा॑वृणक् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । ए॒तान् । ज॒न॒ऽराज्ञः॑ । द्विः । दश॑ । अ॒ब॒न्धुना॑ । सु॒ऽश्रव॑सा । उ॒प॒ऽज॒ग्मुषः॑ । ष॒ष्टिम् । स॒हस्रा॑ । न॒व॒तिम् । नव॑ । श्रु॒तः । नि । च॒क्रेण॑ । रथ्या॑ । दुः॒ऽपदा॑ । अ॒वृ॒ण॒क् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमेताञ्जनराज्ञो द्विर्दशाबन्धुना सुश्रवसोपजग्मुषः। षष्टिं सहस्रा नवतिं नव श्रुतो नि चक्रेण रथ्या दुष्पदावृणक् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। एतान्। जनऽराज्ञः। द्विः। दश। अबन्धुना। सुऽश्रवसा। उपऽजग्मुषः। षष्टिम्। सहस्रा। नवतिम्। नव। श्रुतः। नि। चक्रेण। रथ्या। दुःऽपदा। अवृणक् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 53; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 16; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे सभाद्यध्यक्ष ! यथा श्रुतस्त्वमेतानबन्धुना सुश्रवसा सह वर्त्तमानानुपजग्मुष उपगतां षष्टिं नवतिं नव दश च सहस्राणि जनराज्ञो दुष्पदा रथ्या दुष्प्रापकेन रथ्येन चक्रेण द्विर्न्यवृणक् नित्यं वृणक्षि दुःखैः पृथक् करोषि दुष्टांश्च दूरीकरोषि तथा त्वमपि दुराचारात्पृथक् वस ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) सभाद्यध्यक्षः (एतान्) मनुष्यादीन् (जनराज्ञः) जना धार्मिका राजानो येषां तान् (द्विः) द्विवारम् (दश) दशसंख्यायाम् (अबन्धुना) अविद्यमाना बन्धवो मित्रा यस्य तेनार्थेन सह (सुश्रवसा) शोभनानि श्रवांसि श्रवणान्यन्नानि वा यस्य तेन मित्रेण सह (उपजग्मुषः) य उप सामीप्ये गतवन्तस्तान् (षष्टिम्) एतत्संख्याकान् (सहस्रा) सहस्राणि (नवतिम्) एतत्संख्याकान् (नव) एतत्संख्यापरिमिताञ्छूरान् भृत्यान् (श्रुतः) यः श्रूयते सः (नि) नित्यम् (चक्रेण) शस्त्रसमूहेन चक्राङ्गयुक्तेन यानसमूहेन वा (रथ्या) यो रथं वहति तेन रथ्येन (दुष्पदा) दुःखेन पत्तुं प्राप्तुं योग्येन (अवृणक्) वृणक्षि ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    चक्रवर्त्तिना राज्ञा सर्वान् माण्डलिकान् महामाण्डलिकान् राज्ञो भृत्यान् गृहस्थान् विरक्तान् वाऽनुरज्य शरणागतान् पालयित्वा धर्म्यं सार्वभौमराज्यमनुशासनीयम्। यतो दशेत्यादयः संख्यावाचिनः शब्दा उपलक्षणार्थाः सन्त्यतो राजपुरुषैः सर्वेषां यथायोग्यं रक्षणं दण्डनं च विधेयमिति ॥ ९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे सभाध्यक्ष ! यथा श्रुतस्त्वमेतानबन्धुना सुश्रवसा सह वर्त्तमानानुपजग्मुष उपगतां षष्टिं नवतिं नव दश च सहस्राणि जनराज्ञो दुष्पदा रथ्या दुष्प्रापकेन रथ्येन चक्रेण द्विर्न्यवृणक् नित्यं वृणक्षि दुःखैः पृथक् करोषि दुष्टांश्च दूरीकरोषि तथा त्वमपि दुराचारात्पृथक् वस ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) सभाध्यक्षः (एतान्) मनुष्यादीन् (जनराज्ञः) जना धार्मिका राजानो येषां तान् (द्विः) द्विवारम् (दश) दशसंख्यायाम् (अबन्धुना) अविद्यमाना बन्धवो मित्रा यस्य तेनार्थेन सह (सुश्रवसा) शोभनानि श्रवांसि श्रवणान्यन्नानि वा यस्य तेन मित्रेण सह (उपजग्मुषः) य उप सामीप्ये गतवन्तस्तान् (षष्टिम्) एतत्संख्याकान् (सहस्रा) सहस्राणि (नवतिम्) एतत्संख्याकान् (नव) एतत्संख्यापरिमिताञ्छूरान् भृत्यान् (श्रुतः) यः श्रूयते सः (नि) नित्यम् (चक्रेण) शस्त्रसमूहेन चक्राङ्गयुक्तेन यानसमूहेन वा (रथ्या) यो रथं वहति तेन रथ्येन (दुष्पदा) दुःखेन पत्तुं प्राप्तुं योग्येन (अवृणक्) वृणक्षि ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    चक्रवर्त्तिना राज्ञा सर्वान् माण्डलिकान् महामाण्डलिकान् राज्ञो भृत्यान् गृहस्थान् विरक्तान् वाऽनुरज्य शरणागतान् पालयित्वा धर्म्यं सार्वभौमराज्यमनुशासनीयम्। यतो दशेत्यादयः संख्यावाचिनः शब्दा उपलक्षणार्थाः सन्त्यतो राजपुरुषैः सर्वेषां यथायोग्यं रक्षणं दण्डनं च विधेयमिति ॥ ९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह क्या करे, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे सभा और सेना के अध्यक्ष ! जैसे (श्रुतः) श्रवण करनेवाले (त्वम्) तुम (एतान्) इन (अबन्धुना) अबन्धु अर्थात् मित्ररहित अनाथ वा (सुश्रवसा) उत्तम श्रवण अन्नयुक्त मित्र के साथ वर्त्तमान (उपजग्मुषः) समीप होनेवाले (षष्टिम्) साठ (नवतिम्) नव्वे (नव) नौ (दश) (सहस्राणि) दस हजार (जनराज्ञः) धार्मिक राजायुक्त मनुष्यादिकों को (दुष्पदा) दुःख से प्राप्त होने योग्य (रथ्या) रथ को प्राप्त करनेवाले (चक्रेण) शस्त्र विशेष वा चक्रादि अङ्क युक्त यानसमूह से (द्विः) दो बेर (न्यवृणक्) नित्य दुःखों से अलग करते वा दुष्टों को दूर करते हो, वैसे तू भी पापाचरण से सदा दूर रह ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। चक्रवर्त्ति राजा को माण्डलिक वा महामाण्डलिक राजा भृत्य गृहस्थ वा विरक्तों को प्रसन्न और शरणागत आये हुए मनुष्य की रक्षा करके धर्मयुक्त सार्वभौम राज्य का यथावत् पालन करना चाहिये और दश आदि सब संख्यावाची शब्द उपलक्षण के लिये हैं, इससे राजपुरुषों को योग्य है कि सब की यथावत् रक्षा वा दुष्टों को दण्ड देवे ॥ ९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    शतशः प्रवाहवाली वासना - सरित्

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! (त्वम्) = आप (जनराज्ञः) = मनुष्यों पर शासन करनेवाली (एतान्) = इन (द्विर्दश) = बीस [दो बार दस] अशुभ वृत्तियों को (नि अवृणक्) = निश्चित रूप से दूर करते हो । ये अशुभ वृत्तियाँ यहाँ बीस कही गई हैं । 'दस इन्द्रियों, पाँच प्राणों, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार व हृदय - इन बीस के साथ इनका सम्बन्ध है । इनके साथ सम्बद्ध शुभ वृत्तियाँ तो बीस ही हैं । अशुभ वृत्तियाँ भी इनकी विरोधी होती हुई मुख्यरूप से बीस हैं, परन्तु अशुभ व असत्य की संख्या तो अनन्त हो जाती है, अतः यहाँ (षष्टिं सहस्त्रा) = इनकी संख्या साठ हजार कही गई है । (नवतिं नव) = इन्हें ९९ वर्ष पर्यन्त दूर करने का प्रयत्न करते रहना है, न जाने इनका आक्रमण कब हो जाए । २. ये अशुभवृत्तियों (अबन्धुना) = संसार में अपने को न बाँधनेवाले (सुश्रवसा) = उत्तम ज्ञान व कीर्तिवाले के साथ भी (उप जग्मुषः) = आ भिड़ती हैं । इनका आक्रमण किस पर नहीं होता । ३. इनके आक्रमण को (श्रुतः) = सम्पूर्ण ज्ञान का स्वामी अथवा जिसकी वाणी एक भक्त के द्वारा सुनी जाती है, वे प्रभु ही (दुष्पदा) = धर्म के दुर्गम [दुरत्यय] मार्ग पर चलनेवाले (रथ्या) = शरीररूप रथ में होनेवाले (चक्रेण) = गतिरूप, क्रियाशीलतारूप पहिये से (नि अवृणक्) = निश्चय से दूर करते हैं । प्रभु - कृपा के बिना मनुष्य पर शासन करनेवाली इन वासनाओं के आक्रमण को निष्फल करना सम्भव नहीं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - कृपा से ही हम अनन्त प्रवाहों में बहनेवाली इस वासना - नदी को तैर पाते हैं ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! वीर सेनापते ! (श्रुतः) प्रसिद्ध यशस्वी ( त्वम् ) तू ( अबन्धुना ) बन्धुओं से रहित और ( सुश्रवसा ) उत्तम ऐश्वर्य से सम्पन्न, राष्ट्रपति या प्रजाजन के साथ युद्ध करने के लिये ( एतान् ) इन ( उप अग्मुषः ) तेरे प्रति या युद्ध के लिए आनेवाले ( द्विःदर्दश ) बीसों धार्मिक राजाजनों तथा जनपदों के राजाओं को ( षष्टिं सहस्रा नवतिं नव) ६००९९ साठ हजार निन्यानवे पुरुषों को ( दुष्पदा ) दुष्प्राप्य अति प्रबल ( रथ्या चक्रेण ) रथों या महारथियों से बने चक्र या चक्रव्यूह द्वारा रक्षा करके शत्रुओं को भी ( निअवृणक् ) दूर करने में समर्थ हो । बीसों राजाओं के मुकाबले पर ६००९९ का एक प्रबल रथों का चक्रव्यूह रक्षा के लिए पर्याप्त है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-११ सव्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १, ३ निचृज्जगती । २ भुरिग्जगती । ४ जगती । ५, ७ विराड्जगती ६, ८,९ त्रिष्टुप् ॥१० भुरिक् त्रिष्टुप् । ११ सतः पङ्क्तिः ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष क्या करे, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सभाद्यध्यक्षः ! यथा श्रुतः त्वम् एतान् अबन्धुना सुश्रवसा सह वर्त्तमानान् उपजग्मुष उपगतां षष्टिं नवतिं नव दश च सहस्राणि जनराज्ञः दुष्पदा रथ्या दुष्प्रापकेन रथ्येन चक्रेण द्विः नि अवृणक् नित्यं वृणक्षि दुःखैः पृथक् करोषि दुष्टान् च दूरी करोषि तथा त्वम् अपि दुराचारात् पृथक् वस ॥ ९ ॥

    पदार्थ

    (महर्षिकृतः)- (त्वम्) सभाद्यध्यक्षः= सभा आदि का अध्यक्षः ! (एतान्) मनुष्यादीन्=ये मनुष्य आदि, (जनराज्ञः) जना धार्मिका राजानो येषां तान्= धार्मिक राजा लोग, (द्विः) द्विवारम्=दो बार, (दश) दशसंख्यायाम्=दश की संख्या में, (अबन्धुना) अविद्यमाना बन्धवो मित्रा यस्य तेनार्थेन सह=बन्धु और मित्र से भिन्न लोगों के साथ (सुश्रवसा) शोभनानि श्रवांसि श्रवणान्यन्नानि वा यस्य तेन मित्रेण सह= शोभनीय सुनने की शक्ति और अन्नवाले मित्र के साथ, (उपजग्मुषः) य उप सामीप्ये गतवन्तस्तान्= समीप में गये हुए, (षष्टिम्) एतत्संख्याकान्=साठ, (सहस्रा) सहस्राणि=हजार, (नवतिम्) एतत्संख्याकान्=नव्वे, (नव) एतत्संख्यापरिमिताञ्छूरान् भृत्यान्=नौ (श्रुतः) यः श्रूयते सः=ऐसा सुना गया है कि, (नि) नित्यम्=नित्य, (चक्रेण) शस्त्रसमूहेन चक्राङ्गयुक्तेन यानसमूहेन वा= शस्त्रों के समूह के द्वारा अथवा चक्रवाले अङ्ग से युक्त यानों के द्वारा, (रथ्या) यो रथं वहति तेन रथ्येन= रथ से जानेवाले, (दुष्पदा) दुःखेन पत्तुं प्राप्तुं योग्येन= दुःख के साथ पार किये जानेवाले स्थान को, (अवृणक्) वृणक्षि= त्याग देते हैं ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। चक्रवर्त्ति राजा को समस्त माण्डलिक और महामाण्डलिक राजाओं के सेवकों को, गृहस्थोंको और विरक्तों को स्नेह देकर और शरण में आये हुओं की रक्षा करके, सार्वभौमिक धर्म का राज्य करने का कानून बनाना चाहिये। जो दश आदि सब संख्यावाची शब्द उपलक्षण के लिये हैं, इससे राजपुरुषों के द्वारा उचित रूप से रक्षा और दण्ड के कानून बनाने चाहियें ॥९॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- भाष्यकार महर्षि दयानन्द सरस्वती ने भावार्थ में स्पष्ट लिखा है कि दश आदि संख्यावाची शब्द उपलक्षण के लिये हैं। अतः इन संख्याओं के आधार पर सायण आदि भाष्यकारों का वेद में इतिहास आरोपित करना उचित नहीं है। आचार्य धर्म देव विद्या मार्तंड ने भी इस मंत्र में प्रयुक्त संख्यात्मक शब्दों पर अधिक स्पष्टीकरण और शोध की आवश्यकता महसूस की है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (त्वम्) सभा आदि का अध्यक्ष ! (एतान्) ये मनुष्य आदि (जनराज्ञः) धार्मिक राजा लोग (द्विः दश) बीस (अबन्धुना) बन्धु और मित्र से भिन्न लोगों के साथ और (सुश्रवसा) उत्तम श्रवण शक्ति और अन्नवाले मित्रों के साथ, (उपजग्मुषः) समीप में गये हुए जो (षष्टिम् सहस्रा) साठ हजार (नवतिम् नव) निन्यान्वे की संख्या में (श्रुतः) सुने गये हैं, (नि) नित्य (चक्रेण) शस्त्रों के समूह के द्वारा अथवा चक्रवाले अंगो से युक्त अर्थात् पहियों वाले (रथ्या) रथ से ले जानेवाले (दुष्पदा) दुःख के साथ पहुँचने योग्य स्थान को त्याग देते हैं, अर्थात् दुराचरण को (अवृणक्) त्याग देते हैं ॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सभाद्यध्यक्षः (एतान्) मनुष्यादीन् (जनराज्ञः) जना धार्मिका राजानो येषां तान् (द्विः) द्विवारम् (दश) दशसंख्यायाम् (अबन्धुना) अविद्यमाना बन्धवो मित्रा यस्य तेनार्थेन सह (सुश्रवसा) शोभनानि श्रवांसि श्रवणान्यन्नानि वा यस्य तेन मित्रेण सह (उपजग्मुषः) य उप सामीप्ये गतवन्तस्तान् (षष्टिम्) एतत्संख्याकान् (सहस्रा) सहस्राणि (नवतिम्) एतत्संख्याकान् (नव) एतत्संख्यापरिमिताञ्छूरान् भृत्यान् (श्रुतः) यः श्रूयते सः (नि) नित्यम् (चक्रेण) शस्त्रसमूहेन चक्राङ्गयुक्तेन यानसमूहेन वा (रथ्या) यो रथं वहति तेन रथ्येन (दुष्पदा) दुःखेन पत्तुं प्राप्तुं योग्येन (अवृणक्) वृणक्षि ॥ ९ ॥ विषयः- पुनः स किं कुर्यादित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे सभाद्यध्यक्षः ! यथा श्रुतस्त्वमेतानबन्धुना सुश्रवसा सह वर्त्तमानानुपजग्मुष उपगतां षष्टिं नवतिं नव दश च सहस्राणि जनराज्ञो दुष्पदा रथ्या दुष्प्रापकेन रथ्येन चक्रेण द्विर्न्यवृणक् नित्यं वृणक्षि दुःखैः पृथक् करोषि दुष्टांश्च दूरीकरोषि तथा त्वमपि दुराचारात्पृथक् वस ॥ ९ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- चक्रवर्त्तिना राज्ञा सर्वान् माण्डलिकान् महामाण्डलिकान् राज्ञो भृत्यान् गृहस्थान् विरक्तान् वाऽनुरज्य शरणागतान् पालयित्वा धर्म्यं सार्वभौमराज्यमनुशासनीयम्। यतो दशेत्यादयः संख्यावाचिनः शब्दा उपलक्षणार्थाः सन्त्यतो राजपुरुषैः सर्वेषां यथायोग्यं रक्षणं दण्डनं च विधेयमिति ॥९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. चक्रवर्ती राजाने मांडलिक किंवा महामांडलिक राजा, सेवक, गृहस्थ व विरक्तांना प्रसन्न केले पाहिजे. शरणागत आलेल्या माणसाचे रक्षण करून धर्मयुक्त सार्वभौम राज्याचे यथायोग्य पालन केले पाहिजे. दहा इत्यादीने सर्व संख्यावाची शब्द उपलक्षणासाठी घेतलेले आहेत. यामुळे राजपुरुषांनी सर्वांचे यथायोग्य रक्षण करावे व दुष्टांना दंड द्यावा. ॥ ९ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, mighty sovereign, far and wide is your fame. Twenty are these rulers of the republics in need of help and they too are of noble fame, come here for protection. Sixty thousand ninety-nine are their people. Save them from violence and loss of freedom with the strong chariot wheel of your sovereignty.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Then what should the Chairman of the Assembly do? This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (tvam) =President of the Assembly etc (etān)=These human beings etc., (janarājñaḥ)= righteous kings, (dviḥ daśa) =twenty, (abandhunā)= With people other than friends and relatives and, (suśravasā)= With friends who have good hearing and food, (upajagmuṣaḥ)=who have gone nearby, (ṣaṣṭim)=sixty thousand, (navatim nava)= in the number of ninety nine, (śrutaḥ)=have been heard, (ni) =daily, (cakreṇa) By means of a group of weapons or having wheeled parts, (rathyā)= charioteer, (duṣpadā)=With sorrow abandon the accessible place, that is, the evil, (avṛṇak)= abandon.

    English Translation (K.K.V.)

    O President of the Assembly etc.! These human beings etc., righteous kings, along with twenty people other than friends, having excellent hearing power and food, have gone nearby, who have been heard in the number of sixty thousand and ninety nine. Those who are carried daily by a group of weapons or equipped with wheeled parts, that is, by a chariot with wheels, with sorrow abandon the accessible place, that is, abandon the evil conduct.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand- Chakravarti King should enact a law to rule universal righteousness by giving affection to the servants of all the Māṇḍalika (The ruler of a province) and Mahāmāṇḍalika (The rule of a king) kings, to the householders and the destitute, and by protecting those who have taken refuge in him.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Commentator Maharishi Dayanand Saraswati has clearly written in the gist of the mantra that numerical words like ten etc. are metaphorical. Therefore, on the basis of these numbers, it is not appropriate to attribute the history in Vedas as done by commentators like Sayana. Acharya Dharma Deva Vidya Martand has also felt the need of greater clarification and research on the numerical words used in this mantra. His note is given below- The numbers used in the Mantra require greater clarification and research should be carried on to see what exactly they mean or stand for. It is again wrong on the part of Sayanacharya and others to take Sushrava-used in the Mantra as the name of a particular person. It is used for a highly learned person possessing Divine knowledge or a very muni- ficent person feeding many deserving persons. Shri Kapali Shastri in his commentary known as Siddhanjana Bhashya explains] सुश्रवसम् as शोभनश्रवणसम्पन्नम् =A possessing Divine knowledge. He also says that षट् नवनवति संख्योदीरणेऽपि रहस्यमुपक्षिप्तम् । षष्टि नवति संख्या विवरणम् श्रपरहस्य ज्ञानायन्तम् इह दुरुहम् इति तावदेवालम्।(सिद्धानं भाष्ये कपालिशास्त्रिकृते द्वितीयखण्डे पृ० ४६१) i. e. There is a secret behind these numbers, but unfortunately he has not clearly disclosed it. Let the Vedic scholars carry on research about the numbers used here and in many other Mantras. By upalakshana is meant implying something that has not been actually expressed, implication of something in addition or any similar object where only one is mentioned, synecdoche of a part for the whole (V. S. Apte ).

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should Indra do is taught further in the ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (President of the Assembly or the Commander of the army) Thou who art renowned over throwest by thy strong chariot wheel or a circular army of troops the twenty kings of men (mostly undivine or unrighteous) who come to a learned and liberal person that is unaided with their multitude of followers numbering even 60099 or so. Thou alleviatest the sufferings of good men and removest wicked persons. Thou shouldst also keep thyself away from all ignoble conduct.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( सुश्रवसा ) शोभनानि श्रवांसि श्रवणानि अन्नानि वा यस्य तेन मित्रेण = With a friend who is highly learned or liberal feeding all with food materials.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    An emperor should rule over the vast country righteously pleasing all sub-ordinate kings, their servants, house-holders or recluses, protecting all those who approach him for shelter. The numbers 60-60, 1000, 90.9 are to be taken only as उपलक्षण and therefore the officers of the State should duly protect and punish all according to their good or bad deeds.

    Translator's Notes

    The numbers used in the Mantra require greater clarification and research should be carried on to see what exactly they mean or stand for. It is again wrong on the part of Sayanacharya and others to take Sushrava-used in the Mantra as the name of a particular person. It is used for a highly learned person possessing Divine knowledge or a very munificent person feeding many deserving persons. Shri Kapali Shastri in his commentary known as Siddhanjana Bhashya explains सुश्रवसम् as शोभनश्रवणसम्पन्नम् = A man possessing Divine knowledge. He also says that षट्नवनवति संख्योदोरणेऽपि रहस्यमुपक्षिप्तम् । षष्टि नवति संख्या विवरणम् आर्षहस्य ज्ञानायत्तम् इह दुरूहम् इति एतावदेवालम् । ( सिद्धाञ्जनं भाष्ये कपालिशास्त्रिकृते द्वितीय खण्डे पृ० ४९१ ) i. e. There is a secret behind these numbers, but unfortunately he has not clearly disclosed it. Let the Vedic scholars carry on research about the numbers used here and in many other Mantras. By upalakshana is meant implying something that has not been actually expressed, implication of something in addition or any similar object where only one is mentioned, synecdoche of a part for the whole (V.S. Apte).

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top