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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 55/ मन्त्र 3
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    त्वं तमि॑न्द्र॒ पर्व॑तं॒ न भोज॑से म॒हो नृ॒म्णस्य॒ धर्म॑णामिरज्यसि। प्र वी॒र्ये॑ण दे॒वताऽति॑ चेकिते॒ विश्व॑स्मा उ॒ग्रः कर्म॑णे पु॒रोहि॑तः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । तम् । इ॒न्द्र॒ । पर्व॑तम् । न । भोज॑से । म॒हः । नृ॒म्णस्य॑ । धर्म॑णाम् । इ॒र॒ज्य॒सि॒ । प्र । वी॒र्ये॑ण । दे॒वताति॑ । चे॒कि॒ते॒ । विश्व॑स्मै । उ॒ग्रः । कर्म॑णे । पु॒रःऽहि॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं तमिन्द्र पर्वतं न भोजसे महो नृम्णस्य धर्मणामिरज्यसि। प्र वीर्येण देवताऽति चेकिते विश्वस्मा उग्रः कर्मणे पुरोहितः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। तम्। इन्द्र। पर्वतम्। न। भोजसे। महः। नृम्णस्य। धर्मणाम्। इरज्यसि। प्र। वीर्येण। देवताति। चेकिते। विश्वस्मै। उग्रः। कर्मणे। पुरःऽहितः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 55; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यो देवतोग्रः पुरोहितस्त्वं विद्युद्वत्पर्वतं न वीर्य्येण भोजसे तं शत्रुं हत्वा महो नृम्णस्य धर्मणां योगेनातीरज्यसि यो भवान् विश्वस्मै कर्मणे प्रचेकिते सोऽस्मासु राजा भवतु ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (तम्) वक्ष्यमाणम् (इन्द्र) सभाध्यक्ष (पर्वतम्) मेघम् (न) इव (भोजसे) पालनाय भोगाय वा (महः) महागुणविशिष्टस्य (नृम्णस्य) धनस्य। नृम्णमिति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (धर्मणाम्) धर्माणां योगेन (इरज्यसि) ऐश्वर्यं प्राप्नोषि। इरज्यतीत्यैश्वर्य्यकर्मसु पठितम्। (निघं०२.२१) (प्र) प्रकृष्टार्थे (वीर्येण) पराक्रमेण (देवता) द्योतमान एव (अति) अतिशये (चेकिते) जानाति। वा छन्दसि स० इत्यभ्यासस्य गुणः (विश्वस्मै) सर्वस्मै (उग्रः) तीव्रकारी (कर्मणे) कर्त्तव्याय (पुरोहितः) पुरोहितवदुपकारी ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः प्रवृत्तिमाश्रित्य धनं सम्पाद्य भोगान् प्राप्नुवन्ति ते ससभाध्यक्षा विद्याबुद्धिविनयधर्मवीरसेनाः प्राप्य दुष्टेषूग्रा धार्मिकेषु क्षमान्विताः सर्वेषां हितकारका भवन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष ! जो (देवता) विद्वान् (उग्रः) तीव्रकारी (पुरोहितः) पुरोहित के समान उपकार करनेवाले (त्वम्) आप जैसे बिजुली (पर्वतम्) मेघ के आश्रय करनेवाले बादलों के (न) समान (वीर्येण) पराक्रम से (भोजसे) पालन वा भोग के लिये (तम्) उस शत्रु को हनन कर (महः) बड़े (नृम्णस्य) धन और (धर्मणाम्) धर्मों के योग से (अतीरज्यसि) अतिशय ऐश्वर्य करते हो, जो आप (विश्वस्मै) सब (कर्मणे) कर्मों के लिये (प्रचेकिते) जानते हो, वह आप हम लोगों में राजा हूजिये ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य प्रवृत्ति का आश्रय और धन को सम्पादन करके भोगों को प्राप्त करते हैं, वे सभाध्यक्ष के सहित विद्या, बुद्धि, विनय और धर्मयुक्त वीरपुरुषों की सेना को प्राप्त होकर दुष्ट जनों के विषय में तेजधारी और धर्मात्माओं में क्षमायुक्त हों, वे ही सबके हितकारक होते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    उग्रः, पुरोहितः

    पदार्थ

    १. (इन्द्रः) = वासनारूप शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले हे जीव ! (त्वम्) = तू (तं पर्वतम्) = उस पाँच पर्वोंवाली अविद्या के (भोजसे न) = पालन के लिए नहीं होता, अपितु तू अविद्या को दूर करने का प्रयत्न करता है । २. अविद्या को दूर करने के द्वारा ही (महः नृम्णस्य) = महनीय धन [श० १४.२.२.३०] का तथा (धर्मणाम्) = धारणात्मक कर्मों का (इरज्यसि) = ऐश्वर्य करनेवाला, अर्थात् ईश्वर होता है । अविद्या के प्रबल होने पर मनुष्य अन्याय - मार्ग से भी धन कमाता है और तोड़ - फोड़ के कर्मों में आनन्द का अनुभव करता है । अविद्या के दूर होते ही धन इसका साध्य नहीं रहता और वह अन्याय से इसके उपार्जन को व्यर्थ समझता है । साथ ही वह आलोचना करते रहने की अपेक्षा कुछ निर्माण में सहयोग देने को ठीक समझता है । ३. इस प्रकार वह देवता - दिव्य गुणोंवाला पुरुष (प्रवीर्येण) = प्रकृष्ट वीर्य के कारण (अति - चेकिते) = अतिशयेन जाना जाता है, अर्थात् उत्कृष्ट वीर्यवाला होता है । यह अपने वीर्य के कारण प्रसिद्ध होता है । ४. (विश्वस्मै कर्मणे) = सब कर्मों के लिए यह (उनः) = तेजस्वी होता है और औरों के लिए (पुरोहितः) = सामने रखा हुआ होता है, अर्थात् औरों के लिए आदर्श का काम करता है । इसे देखकर अन्य लोग अपने कार्यों में प्रवृत्त होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम अपने जीवनों में अविद्या को न पनपने दें, महनीय धन व धर्म के स्वामी हों । वीर्य के अतिशयवाले तथा श्रेष्ठ कर्मों को तेजिस्विता के साथ करनेवाले हों, औरों के लिए आदर्श बनें ।

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( पर्वतम् न भोजसे ) जिस प्रकार मेघ को सूर्य, विद्युत् या वायु समस्त प्रजाओं के पालन के लिये आघात करता, छिन्न भिन्न करता है उसी प्रकार ( पर्वतम् ) नाना पालन सामर्थ्यो से युक्त अथवा पर्वत के समान अभेद्य दृढ़ शत्रु को भी ( त्वम् ) तू (भोजसे) प्रजाओं के पालन, और ऐश्वर्य भोग के लिये आघात करता है। और तब तू ( महः ) बड़े भारी (नृम्णस्य) मनुष्यों को वश करने में समर्थ, उनके मनों को हरने वाले, ऐश्वर्य के ( धर्मणाम् ) धारण करने वाले, बड़े बड़े धनाढ्य पुरुषों के बीच में भी ( इरज्यसि ) ऐश्वर्य का स्वामी बन जाता है । (वीर्येण) वीर्य या वीरोचित प्रताप, या विविध प्रकार से शत्रु को उखाड़ फेंकने के बल से तू (देवता अति) समस्त दानशील स्वामियों और विजय करने वाले सेना जनों में से भी सब से बढ़ कर ( चेकिते ) जाना जाता, या स्वयं जानता है । तभी तू ( विश्वस्मै ) सब ( कर्मणे ) कामों के लिये ( उग्रः ) बड़ा प्रबल भयकारी ( पुरोहितः ) आगे स्थापित साक्षी, द्रष्टा निरीक्षक, शासक के रूप में स्थापित हो । अथवा—(नेति निषेधार्थे) (पर्वतं) तू पर्वत या मेघ के समान शत्रु राजा को भी (भोजसे न) अपने भोग के लिये आघात न कर, प्रत्युत प्रजा के सुख के लिये उसे दडित कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ४ जगती । २,५—७ निचृज्जगती । ३, ८ विराड्जगती ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे इन्द्र ! यः देवता उग्रः पुरोहितःत्वं विद्युद्वत् पर्वतं न वीर्य्येण भोजसे तं शत्रुं हत्वा महः नृम्णस्य धर्मणां योगेन अति इरज्यसि यः भवान् विश्वस्मै कर्मणे प्र चेकिते सः अस्मासु राजा भवतु ॥३॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष= सभाध्यक्ष ! (यः)=जो, (देवता) द्योतमान एव=दीप्तिमान ही, (उग्रः) तीव्रकारी=तेज, (पुरोहितः) पुरोहितवदुपकारी=पुरोहित के समान उपकारी, (त्वम्)=तुम, (विद्युद्वत्)=विद्युत् के समान, (पर्वतम्) मेघम्=बादल के, (न) इव=समान, (वीर्येण) पराक्रमेण= पराक्रम से, (भोजसे) पालनाय भोगाय वा=रक्षा और भोग के लिये, (तम्) वक्ष्यमाणम्=कहे गये, (शत्रुम्)= शत्रु की, (हत्वा)=मारकर, (महः) महागुणविशिष्टस्य= विशेष महान गुणों वाले, (नृम्णस्य) धनस्य=धन को, (धर्मणाम्) धर्माणां योगेन=धर्म के सही ढंग से, (अति) अतिशये= अतिशय, (इरज्यसि) ऐश्वर्यं प्राप्नोषि= ऐश्वर्य को प्राप्त करते हो, (यः)=जो, (भवान्) =आप, (विश्वस्मै) सर्वस्मै=समस्त, (कर्मणे) कर्त्तव्याय=कर्त्तव्यों में, (प्र) प्रकृष्टार्थे= प्रकृष्ट रूप से, (चेकिते) जानाति=जानता है, (सः)=वह, (अस्मासु)=हम लोगों में, (राजा)= राजा, (भवतु)=होवे ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य प्रवृत्ति का आश्रय लेकर के और धन को सिद्ध करके भोगों को प्राप्त करते हैं, वे सभाध्यक्ष सहित विद्या, बुद्धि, विनय और धर्मयुक्त वीरपुरुषों की सेना को प्राप्त करके दुष्ट जनों और उग्र धर्मात्माओं में क्षमा करने के स्वभाववाले होकर, सबके हितकारक होते हैं ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (इन्द्र) सभाध्यक्ष ! (यः) जो (देवता) दीप्तिमान, (उग्रः) तेजवाले और (पुरोहितः) पुरोहित के समान उपकारी (त्वम्) तुम (विद्युद्वत्) विद्युत् और (पर्वतम्) बादल के (न) समान (वीर्येण) पराक्रम से (भोजसे) रक्षा और भोग के लिये, [उस] (तम्) कहे गये (शत्रुम्) शत्रु को (हत्वा) मारकर, (महः) विशेष महान गुणों वाले (नृम्णस्य) धन को (धर्मणाम्) धर्म के सही ढंग से, (अति) अतिशय (इरज्यसि) ऐश्वर्य को प्राप्त करते हो। (यः) जो (भवान्) आप (विश्वस्मै) समस्त (कर्मणे) कर्त्तव्यों में (प्र) प्रकृष्ट रूप से (चेकिते) जानते हैं, (सः) वह (अस्मासु) हम लोगों में (राजा) राजा (भवतु) होवे ॥३॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) (तम्) वक्ष्यमाणम् (इन्द्र) सभाध्यक्ष (पर्वतम्) मेघम् (न) इव (भोजसे) पालनाय भोगाय वा (महः) महागुणविशिष्टस्य (नृम्णस्य) धनस्य। नृम्णमिति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (धर्मणाम्) धर्माणां योगेन (इरज्यसि) ऐश्वर्यं प्राप्नोषि। इरज्यतीत्यैश्वर्य्यकर्मसु पठितम्। (निघं०२.२१) (प्र) प्रकृष्टार्थे (वीर्येण) पराक्रमेण (देवता) द्योतमान एव (अति) अतिशये (चेकिते) जानाति। वा छन्दसि स० इत्यभ्यासस्य गुणः (विश्वस्मै) सर्वस्मै (उग्रः) तीव्रकारी (कर्मणे) कर्त्तव्याय (पुरोहितः) पुरोहितवदुपकारी ॥ ३ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र ! यो देवतोग्रः पुरोहितस्त्वं विद्युद्वत्पर्वतं न वीर्य्येण भोजसे तं शत्रुं हत्वा महो नृम्णस्य धर्मणां योगेनातीरज्यसि यो भवान् विश्वस्मै कर्मणे प्रचेकिते सोऽस्मासु राजा भवतु ॥३॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः प्रवृत्तिमाश्रित्य धनं सम्पाद्य भोगान् प्राप्नुवन्ति ते ससभाध्यक्षा विद्याबुद्धिविनयधर्मवीरसेनाः प्राप्य दुष्टेषूग्रा धार्मिकेषु क्षमान्विताः सर्वेषां हितकारका भवन्ति ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे प्रवृत्तीचा आश्रय व धन संपादन करून भोग प्राप्त करतात ते सभाध्यक्षासहित विद्या, बुद्धी, विनय व धर्मयुक्त वीर पुरुषांची सेना बाळगून दुष्टांबाबत उग्र होतात व धर्मात्म्याला क्षमा करतात तेच सर्वांचे हितकर्ते असतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just like that cloud of rain, you rule and govern the great wealth and the rules and laws for the enjoyment and well-being of life on earth and shine. Thus mighty and blazing by your own power and splendour, leader in front of all noble action, you are celebrated as a very god among humanity.

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    Subject of the mantra

    Then, how should that Chairman of the Assembly be, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra) =Chairman of the Assembly, (yaḥ) =that, (devatā) =radiant, (ugraḥ) =bright and, (purohitaḥ)=helpful like a priest, (tvam) =you, (vidyudvat)= lightning and, (parvatam) =of cloud, (na) =like, (vīryeṇa)= with prowess, (bhojase)=for protection and enjoyment, [usa]=that, (tam) =said, (śatrum) =to enemy, (hatvā)=killing, (mahaḥ) =having special great qualities, (nṛmṇasya) =to the wealth, (dharmaṇām)=right way of righteousness, (ati)=immense, (irajyasi)=attain opulence, (yaḥ) =that, (bhavān) =you, (viśvasmai) =all, (karmaṇe) =in duties, (pra) =eminently, (cekite) =know, (saḥ) =that, (asmāsu)=among us, (rājā) =king, (bhavatu) =may be.

    English Translation (K.K.V.)

    O Chairman of the Assembly! You, who are radiant, bright and helpful like a priest, with prowess like lightning and cloud, for protection and enjoyment, by killing that so-called enemy, attain wealth with special great qualities in the right way of righteousness and immense opulence. He who knows all the duties well, may he be the king among us.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is simile as a figurative in this mantra. Those who seek pleasures by taking refuge in the human nature and by perfecting the wealth, they, along with the Chairman of the Assembly, having an army of brave men with knowledge, wisdom, modesty and righteousness, having a forgiving nature among the evil people and fierce righteous souls, are beneficial to all.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Indra) is taught further in the third Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (President of the Assembly) Thou who shinest on account of the virtuous, art benevolent like the Purohita (Priest), rulest over those who are possessers of great wealth; as the sun or the lightning strikes the cloud; in the same manner, thou strikest down the enemy by thy might for the protection of thy subjects, thou art known by us to surpass all others in strength in discharging thy duties, therefore we want thee to be our ruler.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( नृभ्णस्य ) धनस्य नृम्णमिति धननाम (निघ० २.१०) ( इरज्यसि ) ऐश्वर्यं प्राप्नोषि । इरज्यसीत्यैश्वर्य कर्मसु पठितम् ( निघ० २.२१) = Rule over wealth.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons are benevolent to all who earn industriously and enjoy wealth, associated with the President of the Assembly having acquired knowledge, intelligence, humility righteousness and brave army, are fierce to the wicked but full of forgiveness and mild to the righteous.

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