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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 55 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 55/ मन्त्र 5
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    स इन्म॒हानि॑ समि॒थानि॑ म॒ज्मना॑ कृ॒णोति॑ यु॒ध्म ओज॑सा॒ जने॑भ्यः। अधा॑ च॒न श्रद्द॑धति॒ त्विषी॑मत॒ इन्द्रा॑य॒ वज्रं॑ नि॒घनि॑घ्नते व॒धम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । इत् । म॒हानि॑ । स॒म्ऽइ॒थानि॑ । म॒ज्मना॑ । कृ॒णोति॑ । यु॒ध्मः । ओज॑सा । जने॑भ्यः । अध॑ । च॒न । श्रत् । द॒ध॒ति॒ । त्विषि॑ऽमते । इन्द्रा॑य । वज्र॑म् । नि॒ऽघनि॑घ्नते । व॒धम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स इन्महानि समिथानि मज्मना कृणोति युध्म ओजसा जनेभ्यः। अधा चन श्रद्दधति त्विषीमत इन्द्राय वज्रं निघनिघ्नते वधम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। इत्। महानि। सम्ऽइथानि। मज्मना। कृणोति। युध्मः। ओजसा। जनेभ्यः। अध। चन। श्रत्। दधति। त्विषिऽमते। इन्द्राय। वज्रम्। निऽघनिघ्नते। वधम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 55; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    यदि स युध्मो मज्मनौजसा जनेभ्य उपदेशेन महानि समिथानि कृणोति करोति वज्रमिव वधं निघनिघ्नतेऽधाथ तर्ह्यस्मा इत् त्विषीमत इन्द्राय चन जनाः श्रद्दधति ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (सः) (इत्) एव (महानि) महान्ति पूज्यानि (समिथानि) सम्यक् यन्ति यानि विज्ञानानि तानि (मज्मना) बलेन। मज्मेति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (कृणोति) करोति (युध्मः) अविद्याकुटुम्बस्य प्रहर्त्ता (ओजसा) पराक्रमेण (जनेभ्यः) मनुष्येभ्यः (अध) अथ। निपातस्य च इति दीर्घः। (चन) अपि (श्रत्) सत्यम्। श्रदिति सत्यनामसु पठितम्। (निघं०३.१०) (दधति) धरन्ति (त्विषीमते) प्रशस्तप्रकाशान्तःकरणवते (इन्द्राय) परमैश्वर्य्ययोजकाय (वज्रम्) शस्त्रमिवाज्ञानच्छेदकमुपदेशम् (निघनिघ्नते) यो हन्ति स निघ्नः स इवाचरति। अत्र निघ्नशब्दाद् आचारे क्विप् ततो लट् शपः श्लुः व्यत्ययेन आत्मनेपदं च। (वधम्) हननम् ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो मेघमुत्पाद्य छित्वा वर्षित्वा स्वप्रकाशेन सर्वानानन्दयति तथाऽध्यापकोपदेशकावन्धपरम्परां निवार्य विद्यान्यायादीन् प्रकाश्य सर्वाः प्रजाः सुखिनीः कुर्याताम् ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    जो (सः) वह (युध्मः) युद्ध करनेवाला उपदेशक (मज्मना) बल वा (ओजसा) पराक्रम से युक्त हो के (जनेभ्यः) मनुष्यादिकों के सुख के लिये उपदेश से (महानि) बड़े पूजनीय (समिथानि) संग्रामों को जीतनेवाले के तुल्य अविद्या विजय को (कृणोति) करता है (वज्रम्) वज्रप्रहार के समान शत्रुओं के (वधम्) मारने को (निघनिघ्नते) मारनेवाले के समान आचरण करता है, तो (अध) इसके अनन्तर (इत्) ही (अस्मै) इस (त्विषीमते) प्रशंसनीय प्रकाशयुक्त (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य की प्राप्ति करानेवाले के लिये सब मनुष्य लोग (चन) भी (श्रद्दधति) प्रीति से सत्य का धारण करते हैं ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य मेघ को उत्पन्न, काट और वर्षा करके अपने प्रकाश से सब मनुष्यों को आनन्दयुक्त करता है, वैसे ही अध्यापक और उपदेशक लोग विद्या को प्राप्त करा और अविद्या को जीत के अन्धपरम्परा को निवारण कर विद्यान्यायादि का प्रकाश करके सब प्रजा को सुखी करें ॥ ५ ॥

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    विषय

    पवित्रता व ओजस्विता

    पदार्थ

    १. (सः) = वे प्रभु ही (इत्) = निश्चय से (महानि समिथानि) = बड़े - बड़े संग्रामों को, वासनाओं से चलनेवाले युद्धों को (मज्मना) = शोधन के दृष्टिकोण से (कृणोति) = करते हैं । इन वासनाओं से संग्राम में हम तो विजय नहीं पा सकते । प्रभु ही युद्ध करते हैं और इन वासनाओं को पराभूत करके हमारे हृदयों का शोधन करनेवाले होते हैं । २. वे प्रभु ही (जनेभ्यः) = अपनी शक्तियों का विकास करनेवाले लोगों के लिए (ओजसा) = ओज के हेतु से (युध्मः) = योद्धा बनते हैं । योद्धा बनकर प्रभु कामादि को भस्म कर देते हैं और मनुष्य का जीवन चमक उठता है । ३. (अध चन) = अब इस विजय के बाद ही लोग (त्विषीमते) = दीप्तिवाले (इन्द्राय) = शत्रुनाशक प्रभु के लिए (श्रपति) = श्रद्धा करते हैं और समझते हैं कि प्रभु ही इन कामादि के (वधम्) = हनन के साधनभूत (वज्रम्) = क्रियाशीलतारूप वज्र को (निघनिघ्नते) = खूब ही प्रहत करते हैं । प्रभु ही इन कामादि का नाश करते हैं, यह भावना भक्त को प्रभु के प्रति श्रद्धान्वित करती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - काम - क्रोध - लोभादि के साथ चलनेवाले संग्राम को हमारे लिए प्रभु ही जीतते हैं । वे ही हमारे योद्धा हैं । इन वासनाओं को जीतकर प्रभु हमें शुद्ध, पवित्र व ओजस्वी बनाते हैं ।

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    Bhajan

    वैदिक मन्त्र
    स इन्महानि समिथानि मज्मना कृणोति युध्य जैसा जनेभ्य:।
    अधा चन श्रद्दधति त्विषीमत इन्द्राय वज्रं निघनिघ्नते वयम्।।   ऋ॰१.५५.५
                    वैदिक भजन ११३१वां
                          राग खमाज
              गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर
                           ताल अद्धा
    प्रतापी प्रतापी प्रभु है प्रतापी
    वही महायोद्धा है सबका संगाती
    प्रतापी.........
    संघर्ष ने जीवन में जिताया
    वहां महायोद्धा ईश्वर ही पाया
    विजय सब प्रभु की, उसी की है ख्याति।।
    प्रतापी.........
    विरलों को ही कुछ जान पड़ रहा है
    इन सब रणों में प्रभु लड़ रहा है
    दैवी-शक्ति युद्धों को, शान्त कराती ।।
    प्रतापी..........
    अहंकार वश  खुद को योद्धा न समझो
    हटे भ्रम तुम समझा लो मति - मूढ़ मन को
    लड़े ओज प्रभु का विजय जगमगाती।।
    प्रतापी.........
    जगत् व्याप्त ज्योति से श्रद्धा उपजती
    क्षणिक पाप जय की ना बात खटकती
    बुझे ना कभी सत्य की जलती बाती।।
    प्रतापी.......
    है इन्द्र पाप- वर्जक कर्मफल दाता
    सभी पाप वध हिंसा को भगाता
    असत्य की हार तो सिद्ध हो जाती।।
    प्रतापी......... 
     १३.६.२००१
    ५.३५ शाम
     शब्दार्थ:-
    प्रतापी =तेजस्वी, धाक वाला
    संगाती=मित्र , साथी, संगी
    ख्याति=यश , कीर्ति
    मति मूढ़=पागल बुद्धिवाला
    ओज= तेज
    वध= मारना
    बाती=दीप की शिखा

    🕉🧘‍♂️द्वितीय श्रंखला का 124 वां भजन और अब तक का 1131 वां वैदिक मजन🙏🎧
    वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं🌹 🙏

     

    Vyakhya

    जय-विजय के प्रदाता परमात्मा

    किसी लड़ाई में, किसी जीवन संघर्ष में, जब मनुष्य को विजय मिलती है तो वह पूरा फूला नहीं समाता है। वह समझता है मेरे शस्त्र-बल की या तपोबल की विजय हुई, परंतु संसार के सब महासंग्रामों के विषय में जो सच्चा रहस्य है, उसे विरले ही मनुष्य समझते हैं। सच तो यह है कि संसार की सब सच्ची (अन्तिम) विजय परमात्मा की ही विजय हैं। हम अधिक ज्ञान-प्रकाश में होकर देखें तो हमें दीखेगा कि वह परमेश्वर ही महा योद्धा होकर हम मनुष्यों के लिए सब संग्राम को लड़ रहा है। मनुष्य की स्वार्थमयी आसुरी प्रवृत्ति के कारण संसार में सब लड़ाई ओके प्रसंग उपस्थित हो रहे हैं और जगदीश्वर की दैवी शक्ति उसे अन्त में विजित करके उसे शान्त कर रही है।
    मनुष्य की न्यूनता पर परमेश्वर की पूर्णता विजय पा रही है। हमें जो यह दीखता है कि बहुत से मनुष्य सत्य के पक्ष में महासंग्राम लड़ रहे हैं, असल में सत्यप्रेमी मनुष्यों के लिए स्वयं भगवान वह युद्ध कर रहे होते हैं और अतएव उसमें विजय अवश्यंभावी होती है। परमात्मा का पवित्रता कारक ओज ही लड़कर जगत में सदा विजयी हो रहा है।
    सत्य के लिए युद्ध करने वालों को तो सदा समझना चाहिए, स्पष्ट देखना चाहिए कि उनका योद्धा स्वयं जगदीश्वर है, जगदीश्वर ही है (स इत्), अहंकार से विमूढ़ात्मा हुए मनुष्य यूं ही अपने को योद्धा और विजयी जी समझते हैं। अन्त में जब उनका अहंकार का पर्दा हटता है और जगत् व्यापक ज्योति मिलती है
     तभी उन्हें इस असली सत्य में श्रद्धा जमती है। तब उन्हें पाप के विजयी होने का भी भ्रम नहीं होता, क्योंकि उन्हें तब इन युद्धों की महत्ता(महानि समिधानी) स्पष्ट दिखाई देती है, अतः अधूरे युद्ध में पाप की क्षणिक विजयों से वह भ्रम में नहीं आते, उनकी सुरक्षा में ज़रा भी धक्का नहीं लगता। अपने उस निर्बाध व्यापक प्रकाश में उन्हें सब संग्रामों का यह सच्चा रूप दृष्टिगोचर हो रहा होता है कि एक और मनुष्य यों के स्वार्थ दूसरों के नाना प्रकार के हिंसन(वध) करने के रूप में उठ रहे हैं, पर जहां तक उनको स्वाधीनता है वहां तक उठकर वह सब दूसरी ओर महा तेजस्वी इन्द्र के ओज के सामने नष्ट होते जा रहे होते हैं-इन्द्र का पापवर्जक, कर्म फल देने वाला वज्र उनके वध
     का ही वध करता हुआ सदा ममता स्थापित कर रहा है।

    God, the giver of victory
                      R. 1.55.5 mantra
                     Vedic Psalms 1131st
                           Raag Khamaj
               Singing time First hour of the night
                            Rhythm Half
     Glorious Glorious Lord is Glorious
     He is the great warrior, the companion of all
     Glorious.
     The struggle won in life
     There the great warrior God found
     Victory is all the Lord's, His is the fame.
     Glorious.
     Rarely do they know anything
     The Lord is fighting in all these battles
     Divine power calms the wars.
     Glorious.
     Don't think of yourself as a warrior because of ego
     Remove the illusion you explain the mind - the foolish mind
     fighting power Lord's victory shining.
     Glorious.
     Faith arises from the light that pervades the world
     The transient sin of Jai is not a matter of annoyance
     The burning light of truth is never extinguished.
     Glorious.
     is Indra, the sin- forbidder, the giver of the fruits of action
     Banishes all sinful killing violence
     The defeat of untruth would be proved.
     Glorious.
      13.6.2001
     5.35 pm
      Semantics:-
     Glorious = brilliant, renowned
     Sangati=friend , companion, companion
     Khyati=fame , glory
     Mati moodha=crazy intellectual
     Oz= fast
     slaughter= to kill
     Bati=the crest of the lamp

     🕉🧘 ♂️124th Bhajan of the second series and 1131st Vedic Majan so far🙏🎧
     Best wishes to Vedic listeners🌹 🙏

    God, the giver of victory

     In any battle, in any struggle of life, when man wins, he is not fully blossomed.  He understands that my weapons or penance have triumphed, but rarely do men understand the true mystery about all the great struggles of the world.  The truth is that all the true (final) victories of the world are the victories of God.  If we look in more enlightenment, we will see that God is the great warrior fighting all the battles for us humans.  Because of man's selfish demonic instinct, all the fights are happening in the world and the divine power of the Lord of the universe is finally conquering him and calming him down.
     The fullness of God is triumphing over the shortness of man.  What we see is that many human beings are fighting the great battle for truth, in fact, for truth-loving human beings, God Himself is fighting that battle and therefore victory is inevitable.  The purifying energy of God is always fighting and triumphing in the world.
     Those who fight for truth should always understand, should see clearly that their warrior is the Lord of the universe Himself, the Lord of the universe (sa it), men who have become deluded by ego think of themselves as warriors and victors.  Finally, when the veil of their ego is removed and the world pervades light
      Only then do they have faith in this real truth.  Then they are not even deluded by sin being victorious, because they then see clearly the importance(mahani samidhani) of these battles, so they are not deluded by the momentary victories of sin in an unfinished battle, not the slightest push in their safety  It seems.  In that uninterrupted pervasive light of his, he sees the true form of all struggles that the selfishness of other human beings is arising in the form of killing others in various ways, but as far as they are free  Rising they all on the other hand are being destroyed before the might of the great brilliant Indra—the thunderbolt of Indra, the destroyer of sins, the fruit of karma, his slaughter
      is always establishing love by killing the same.
     Vedic Mantras
     RV. 1.55.5

     

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    (सः इत् ) वह राजा या सेनापति ही ( मज्मना ) राष्ट्र कार्य में बाधा उत्पन्न करने वाले कण्टकों को शोधन करने में समर्थ सैन्यबल से और (ओजसा ) बड़े पराक्रम, उत्साह और साहस से ( युध्म ) शत्रु पर प्रहार करने में समर्थ, योद्धा होकर ( जनेभ्यः ) प्रजाजनों के हित के लिये ( महानि ) बड़े २ ( समिथानि ) संग्राम ( कृणोति ) करता है। और ( वज्रं ) शत्रुओं के वारण करने वाले ( वधम् ) उनको आघात करने वाले शस्त्र तथा वध, अंगच्छेदन आदि दण्ड का भी ( निघ निघ्नते ) प्रयोग करता है । (अध चन) तभी ( त्विषीमते ) कान्तिमान्, सूर्य के समान तेजस्वी उस ( इन्द्राय ) शत्रुहन्ता राजा के ऊपर भी ( श्रत् दधति) लोग श्रद्धा करते हैं और विश्वास करते हैं । अर्थात् राष्ट्र की शासनव्यवस्था के भीतरी और बाहरी दोनों प्रकार के कण्टकों के शोधन करने वाले विजयी राजा पर ही प्रजाजन को अपने जान, माल की रक्षा का विश्वास जमता है । दूसरे वह यह सब दमन का कार्य भी अपने स्वार्थ से न करे । विद्वान् ज्ञानी पक्ष में—( मज्मना ) अज्ञान और मलों का शोधन करने वाले ज्ञानबल और तप से लोगों के हित के लिये योद्धा वीर के समान बड़े २ ( समिथानि ) विज्ञानों को सम्पादित करे । अज्ञान नाशक ( वज्रम् ) ज्ञानरूप अस्त्र को सदा प्रयोग करे, तभी उस तेजस्वी (इन्द्राय) आचार्य पर लोग श्रद्धा और विश्वास करते हैं । इत्येकोनविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ४ जगती । २,५—७ निचृज्जगती । ३, ८ विराड्जगती ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह अध्यापक और उपदेशक कैसे हों, यह विषय इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यदि स युध्मः मज्मना ओजसा जनेभ्य उपदेशेन महानि समिथानि कृणोति करोति वज्रम् इव वधं निघनिघ्नते अध अथ तर्हि अस्मै इत् त्विषीमते इन्द्राय चन जनाः श्रत् दधति ॥५॥

    पदार्थ

    (यदि)=यदि, (सः)=वह, (युध्मः) अविद्याकुटुम्बस्य प्रहर्त्ता = परिवार पर प्रहार करनेवाली अविद्या, (मज्मना) बलेन=बल और, (ओजसा) पराक्रमेण= पराक्रम से, (जनेभ्यः) मनुष्येभ्यः= मनुष्य के लिये, (उपदेशेन)= उपदेश द्वारा, (महानि) महान्ति पूज्यानि=महान् पूजनीय, (समिथानि) सम्यक् यन्ति यानि विज्ञानानि तानि=विशेष ज्ञानवाला, (कृणोति) करोति=करता है, अर्थात् बनाता है, (वज्रम्) शस्त्रमिवाज्ञानच्छेदकमुपदेशम्=शस्त्र के समान अज्ञान के छेदक उपदेशों के, (इव) =समान, (वधम्) हननम्=मारने को, (निघनिघ्नते) यो हन्ति स निघ्नः स इवाचरति=मारनेवाले के समान व्यवहार करते हुए, (अध) अथ =तब, (तर्हि) =फिर, (अस्मै)=इसके लिये, (इत्) एव=ही, (त्विषीमते) प्रशस्तप्रकाशान्तःकरणवते=प्रशस्त प्रकाश के समान, (इन्द्राय) परमैश्वर्य्ययोजकाय= परम ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले, (चन) अपि=भी, (जनाः) =लोग, (श्रत्) सत्यम्=सत्य को, (दधति) धरन्ति=धारण करते हैं ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्य मेघ को उत्पन्न करके, उसका भेदन करके और वर्षा करके अपने प्रकाश से सबको आनन्दयुक्त करता है, वैसे ही अध्यापक और उपदेशक लोगों अज्ञान का निवारण करके विद्या, न्याय आदि का प्रकाश करके सब प्रजा को सुखी करें ॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यदि) यदि (सः) वह (युध्मः) परिवार पर प्रहार करनेवाली अविद्या, (मज्मना) बल और (ओजसा) पराक्रम से (जनेभ्यः) मनुष्य के लिये (उपदेशेन) उपदेश द्वारा (महानि) महान् पूजनीय, (समिथानि) विशेष ज्ञानवाला (कृणोति) करता है, अर्थात् बनाता है। (वज्रम्) शस्त्र के समान अज्ञान के छेदक उपदेशों के, अर्थात् उपदेशों के तर्कों के (इव) समान (निघनिघ्नते) नष्ट करनेवाले के समान व्यवहार करते हुए, (अध) तब (तर्हि) फिर (अस्मै) इसके लिये (इत्) ही (त्विषीमते) प्रशस्त प्रकाश के समान (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य प्रदान करनेवाले (जनाः) लोग (चन) भी (श्रत्) सत्य को (दधति) धारण करते हैं ॥५॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (सः) (इत्) एव (महानि) महान्ति पूज्यानि (समिथानि) सम्यक् यन्ति यानि विज्ञानानि तानि (मज्मना) बलेन। मज्मेति बलनामसु पठितम्। (निघं०२.९) (कृणोति) करोति (युध्मः) अविद्याकुटुम्बस्य प्रहर्त्ता (ओजसा) पराक्रमेण (जनेभ्यः) मनुष्येभ्यः (अध) अथ। निपातस्य च इति दीर्घः। (चन) अपि (श्रत्) सत्यम्। श्रदिति सत्यनामसु पठितम्। (निघं०३.१०) (दधति) धरन्ति (त्विषीमते) प्रशस्तप्रकाशान्तःकरणवते (इन्द्राय) परमैश्वर्य्ययोजकाय (वज्रम्) शस्त्रमिवाज्ञानच्छेदकमुपदेशम् (निघनिघ्नते) यो हन्ति स निघ्नः स इवाचरति। अत्र निघ्नशब्दाद् आचारे क्विप् ततो लट् शपः श्लुः व्यत्ययेन आत्मनेपदं च। (वधम्) हननम् ॥५॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- यदि स युध्मो मज्मनौजसा जनेभ्य उपदेशेन महानि समिथानि कृणोति करोति वज्रमिव वधं निघनिघ्नतेऽधाथ तर्ह्यस्मा इत् त्विषीमत इन्द्राय चन जनाः श्रद्दधति ॥५॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सूर्यो मेघमुत्पाद्य छित्वा वर्षित्वा स्वप्रकाशेन सर्वानानन्दयति तथाऽध्यापकोपदेशकावन्धपरम्परां निवार्य विद्यान्यायादीन् प्रकाश्य सर्वाः प्रजाः सुखिनीः कुर्याताम् ॥५॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा सूर्य मेघ उत्पन्न करतो त्याला खंडित करून वृष्टी करवितो व आपल्या प्रकाशाने सर्व माणसांना आनंदी करतो तसेच अध्यापक व उपदेशक यांनी विद्या प्राप्त करून अविद्येवर मात करून अंध परंपरेचे निवारण करून विद्या, न्याय इत्यादींनी प्रजेला सुखी करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Great warrior as he is, fighting with the brilliance of his knowledge, wealth and power against ignorance, injustice and poverty, he wins great battles for the people. He strikes the thunderbolt against evil, wickedness and hoarding for the glory of the order, and then the people vest full faith in him, lord of splendour and majesty as he is.

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    Subject of the mantra

    Then how should those teacher and preacher be, this subject has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yadi) =if, (saḥ) =that, (yudhmaḥ) = nescience that attacks the family, (majmanā) =force and, (ojasā)=by bravery, (janebhyaḥ) =for human, (upadeśena) =by preaching, (mahāni) =great revered, (samithāni) =having special knowledge, (kṛṇoti) =does, that is,makes, (vajram)= The piercing teachings of ignorance are like weapons, that is, the arguments of the teachings, (iva) =like, (nighanighnate) =behaving like a destroyer, (adha) =then, (tarhi) =afterwards, (asmai) =for this, (it) =only, (tviṣīmate)= like bright light, (indrāya)= bestower of opulence, (janāḥ) =people,(cana) =also, (śrat) =to the truth, (dadhati) =adopt.

    English Translation (K.K.V.)

    If he makes a person highly revered and having special knowledge through his teachings against the nescience, strength and bravery that attacks the family, i.e. While behaving like a weapon which destroys the piercing teachings of ignorance are like weapons, that is, the arguments of the teachings, the people who provide ultimate opulence like broad light also adopt the truth.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as the Sun makes everyone happy with its light by creating clouds, piercing them and causing rain, similarly teachers and preachers should make all the people happy by eliminating ignorance and by illuminating knowledge, justice et cetera.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Indra) is taught further in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    People have faith in and reverence for the divinely resplendent Indra (True teacher or preacher full of the great wealth of wisdom and knowledge) when he as a waiver of Truth engages himself in many great conflicts with ignorance and injustice being over-thrower of the family of ignorance or nescience by his over whelming soul force and the power of knowledge. He uses his sermon as a powerful weapon to cut into pieces ignorance of various kinds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( समिथानि) सम्यग् यन्ति यानि विज्ञानानि तानि = Sciences or various kinds of knowledge. ( युध्म:) अविद्याकुटुम्बस्य प्रहर्ता = Assaulter of the family of ignorance or a warrior of Truth ( वज्रम् ) शस्त्रम् इव अज्ञानच्छेदकम् उपदेशम् = Sermon that cuts into pieces all ignorance like the thunderbolt or powerful weapon.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the sun gives delight to all with his rays, demolishing the cloud and making it rain down, in the same way, it is the duty of the teacher and the preacher to remove or set aside all superstition and to make all people happy by giving the light of knowledge and justice.

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