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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 78 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 78/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    तमु॑ त्वा वाज॒सात॑ममङ्गिर॒स्वद्ध॑वामहे। द्यु॒म्नैर॒भि प्र णो॑नुमः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । वा॒ज॒ऽसात॑मम् । अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् । ह॒वा॒म॒हे॒ । द्यु॒म्नैः । अ॒भि । प्र । नो॒नु॒मः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमु त्वा वाजसातममङ्गिरस्वद्धवामहे। द्युम्नैरभि प्र णोनुमः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम्। ऊँ इति। त्वा। वाजऽसातमम्। अङ्गिरस्वत्। हवामहे। द्युम्नैः। अभि। प्र। नोनुमः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 78; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! विद्वांसो वयं यं द्युम्नैर्वाजसातमं त्वामु हवामहे स्तुमो यमङ्गिरस्वदभिप्रणोनुमस्तं त्वं स्तुहि प्रणम ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (तम्) यशस्विनम् (उ) वितर्के (त्वा) त्वाम् (वाजसातमम्) यो वाजान् प्रशस्तान् बोधान् संभजते सोऽतिशयितस्तम् (अङ्गिरस्वत्) प्रशस्तप्राणवत् (हवामहे) स्वीकुर्मः (द्युम्नैः) पुण्ययशोभिः सह (अभि) सर्वतः (प्र) प्रकृष्टे (नोनुमः) स्तुमः ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! एवं सत्कारेण विदुषः सन्तोष्य धर्मार्थकाममोक्षसिद्धिं कुरुत ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! (द्युम्नैः) पुण्यरूपी कीर्तियों के साथ जिस (वाजसातमम्) अतिप्रशंसित बोधों से युक्त विद्वान् की और (त्वा) आपकी हम लोग (हवामहे) स्तुति करें (उ) अच्छे प्रकार (अङ्गिरस्वत्) प्रशंसित प्राण के समान (अभि) सब ओर से (प्र णोनुमः) सत्कार करते हैं सो तुम (तम्) उसी की स्तुति और प्रणाम किया करो ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग विद्वान् को उक्त प्रकार के सत्कार से सन्तुष्ट करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करो ॥ ३ ॥

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    विषय

    बल

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! (तं त्वा उ) = उन आपको ही जोकि (वाजसातमम्) = अधिक - से - अधिक शक्ति देनेवाले हैं (अङ्गिरस्वत्) = अङ्गिरस की भाँति (हवामहे) = पुकारते हैं । प्रभु का उपासक ही अंगिरा बनता है । प्रभु की उपासना से ही उसके अङ्ग - प्रत्यङ्ग में रस का सञ्चार होता है । इस प्रकार प्रभु उपासक को अधिक - से - अधिक शक्ति प्राप्त कराते हैं, उपासक के लिए वे ‘वाजसातम’ होते हैं । २. हम भी (द्युम्नैः) = बलों को प्राप्त करने के हेतु से (अभिप्रणोनुमः) = दिन के प्रारम्भ व अन्त में दोनों ओर - प्रातः - सायं उस प्रभु का खूब ही स्तवन करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - उपासना हमें अङ्गिरस - शक्तिशाली बनाती है ।

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    विषय

    वृष्टि के समान गर्भ निषेक तथा वीर्य की उत्पत्ति तथा उसके निषेक और पुरुषोत्पत्ति का विज्ञान । पक्षान्तर में गुरू करण और ब्रह्मचर्य पालन ।

    भावार्थ

    ( वाजसातमम् ) ज्ञानों, अन्नों और ऐश्वर्यों के उत्तम दान देने वाले ( अङ्गिरस्वत् ) शरीर में प्राणों के समान और आकाश में सूर्य के समान सबको चेतना और प्रकाश देने वाले (तम् त्वा उ) उस तेरी ही हम ( हवामहे ) स्तुति करते हैं ( द्युम्नैः अभि प्र नोनुमः ) उत्तम यश संकीर्तनों से हम तेरी स्तुति करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १-५ गोतम राहूगण ऋषिः ॥ ऋग्नर्देवता ॥ १-५ गायत्री छन्दः ।

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे विद्वन् ! विद्वांसः वयं यं द्युम्नैः वाजसातमं त्वाम् उ हवामहे स्तुमः यम् अङ्गिरस्वत् अभि प्र नोनुमः तं त्वं स्तुहि प्र नम ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (विद्वन्)= विद्वान् ! (विद्वांसः)= विद्वान् लोगों में, (वयम्)=हम, (यम्)=जिस, (द्युम्नैः) पुण्ययशोभिः सह= पुण्य के द्वारा, (वाजसातमम्) यो वाजान् प्रशस्तान् बोधान् संभजते सोऽतिशयितस्तम्=अन्न और ज्ञान का अतिशय रूप से दान करनेवाले, (त्वा) त्वाम् =तुमको, (उ) वितर्के =अथवा, (हवामहे) स्तुमः=स्तुति करते हैं, (यम्) =जिसे, (अङ्गिरस्वत्) प्रशस्तप्राणवत् =प्रशस्त प्राण के समान, (हवामहे) स्वीकुर्मः=स्वीकार करते हैं, (अभि) सर्वतः=हर ओर से, (प्र) प्रकृष्टे= प्रकृष्ट रूप से, (नोनुमः) स्तुमः= स्तुति करते हैं, (तम्) यशस्विनम्=उस यशस्वी की, (त्वम्)=तुम, (स्तुहि)= स्तुति करो, (प्र) प्रकृष्टे= प्रकृष्ट रूप से, (नमः)=नमन करो ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- हे मनुष्यों ! ऐसी ही पूजा से विद्वानों को सन्तुष्ट करके धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को सिद्ध करो ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (विद्वन्) विद्वान् ! (विद्वांसः) विद्वान् लोगों में, (वयम्) हम, (यम्) जिस (द्युम्नैः) पुण्य के द्वारा (वाजसातमम्) अन्न और ज्ञान का अतिशय रूप से दान करनेवाले हैं और (त्वा) तुमको, (उ) अथवा, [तुम्हारी] (हवामहे) स्तुति करते हैं। (यम्) जिसे (अङ्गिरस्वत्) प्रशस्त प्राण के समान (हवामहे) स्वीकार करते हैं और (अभि) हर ओर से, (प्र) प्रकृष्ट रूप से (नोनुमः) स्तुति करते हैं। (तम्) उस यशस्वी की (त्वम्) तुम (स्तुहि) स्तुति करो और (प्र) प्रकृष्ट रूप से (नमः) नमन करो ॥३॥

    संस्कृत भाग

    तम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । वा॒ज॒ऽसात॑मम् । अ॒ङ्गि॒र॒स्वत् । ह॒वा॒म॒हे॒ । द्यु॒म्नैः । अ॒भि । प्र । नो॒नु॒मः॒ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या ! एवं सत्कारेण विदुषः सन्तोष्य धर्मार्थकाममोक्षसिद्धिं कुरुत ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! तुम्ही विद्वानांचा वरील प्रकारे सत्कार करून संतुष्ट करा व धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष सिद्ध करा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, you who are lord of light, knowledge and power and giver of victory, we invoke like the very breath of life and do homage with all our honour, wealth and virtue.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (a learned man) is taught further in the third mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person, you should praise and bow before a highly educated wise man who is giver of knowledge and whom we praise repeatedly, dear to us like our very life or breath.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वाजसातमम्) यः वाजान-प्रशस्तान् बोधान् संभजते सोऽतिशयितः तम् || = To him who gives good knowledge. (अंगिरस्वत् ) = Like our very life.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, you should accomplish soon four purposes of life i. e. Dharma (righteousness) artha wealth Kama (fulfilment of noble desires) and Moksha (liberation) by respectfully pleasing learned and wise persons.

    Translator's Notes

    प्राणो वा अंगिरा: (शत० ६.१२.२८ ।। ६.५ .२,३,४ ) = The very life.(Vital breath).

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    Subject of the mantra

    Then, what kind of that scholar should be?This subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvan) =scholar, (vidvāṃsaḥ) =among scholars, (vayam) =we, (yam) =which, (dyumnaiḥ) =by charity, (vājasātamam)= one who is a generous donor of food and knowledge and, (tvā) =to you, (u) =or, [tumhārī]=your, (havāmahe) =praise, (yam) =which, (aṅgirasvat) =like eminent life-breath, (havāmahe) =accept and, (abhi) =from all sides, (pra) =eminently, (nonumaḥ) =praise, (tam)=of that illustrious, (tvam) =you, (stuhi) =praise, (pra) =profusely, (namaḥ) =bow down.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar! By which charity we donate food and impart knowledge, in abundance and praise you among the learned people. That is accepted like an eminent life-breath and is praised profusely from all sides. You should praise that illustrious one and bow down with great respect.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    O humans! By satisfying the scholars with such worship, accomplish dharma (righteousness), artha (wealth), kāma (desires) and mokṣa (salvation).

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