ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 78/ मन्त्र 4
तमु॑ त्वा वृत्र॒हन्त॑मं॒ यो दस्यूँ॑रवधूनु॒षे। द्यु॒म्नैर॒भि प्र णो॑नुमः ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । वृ॒त्र॒हन्ऽत॑मम् । यः । दस्यू॑न् । अ॒व॒ऽधू॒नु॒षे । द्यु॒म्नैः । अ॒भि । प्र । नो॒नु॒मः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमु त्वा वृत्रहन्तमं यो दस्यूँरवधूनुषे। द्युम्नैरभि प्र णोनुमः ॥
स्वर रहित पद पाठतम्। ऊँ इति। त्वा। वृत्रहन्ऽतमम्। यः। दस्यून्। अवऽधूनुषे। द्युम्नैः। अभि। प्र। नोनुमः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 78; मन्त्र » 4
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे विद्वन् ! यस्त्वं दस्यूँरवधूनुषे तं वृत्रहन्तमं त्वामु द्युम्नैः सह वर्त्तमाना वयमभिप्रणोनुमः ॥ ४ ॥
पदार्थः
(तम्) उक्तम् (उ) वितर्के (त्वा) त्वाम् (वृत्रहन्तमम्) अतिशयेन वृत्रस्य हन्तारम् (यः) विद्वान् (दस्यून्) महादुष्टान् (अवधूनुषे) अतिकम्पयति (द्युम्नैः) यशसा प्रकाशमानैः शस्त्रास्त्रैः (अभि) आभिमुख्ये (प्र) प्रकृष्टे (नोनुमः) भृशं स्तुमः ॥ ४ ॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यूयं योऽजातशत्रुः सभाध्यक्षः दुष्टाचारान् शत्रून् पराजयते तं सदा सेवध्वम् ॥ ४ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे विद्वन् (यः) जो (त्वम्) तू (दस्यून्) महादुष्ट डाकुओं को (अवधूनुषे) कँपा के नष्ट करता है (तम्) उसी (वृत्रहन्तमम्) मेघ वर्षानेवाले सूर्य के समान (त्वा) तेरी (द्युम्नैः) कीर्तिकारी शस्त्रों से हम लोग (अभि) सम्मुख होके (प्रणोनुमः) सब प्रकार स्तुति करें ॥ ४ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! तुम लोग जिसका कोई शत्रु न हो ऐसा विद्वान् सभाध्यक्ष जो कि दुष्ट शत्रुओं को परास्त कर सके, उसकी सदैव सेवा करो ॥ ४ ॥
विषय
ज्ञान
पदार्थ
१. हे प्रभो ! (तं त्वा उ) = उन आपको ही जोकि (वृत्रहन्तमम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को पूर्णरूपेण नष्ट करनेवाले हैं, (यः) = जो (दस्यून्) = विनाशक वृत्तियों को (अवधूनुषे) = कम्पित करके दूर करनेवाले हैं, उन आपको (द्युम्नैः) = ज्ञानज्योति के हेतु से (अभिप्रणोनुमः) = दिन के आरम्भ व अन्त में, दोनों समय खूब ही प्रणाम करते हैं । २. महादेव की तृतीय नेत्र [ज्ञाननेत्र] की ज्योति से काम का दहन हो जाता है । प्रभुकृपा से हमें भी वह ज्ञानज्योति प्राप्त हो जिससे हमारी सब वासनाएँ भस्मसात् हो जाएँ ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुकृपा से हमें वह ज्ञानज्योति प्राप्त हो जो वासनाओं को दग्ध कर देती है ।
विषय
परमेश्वर और आचार्य से प्रार्थना ।
भावार्थ
(यः ) जो तू ( दस्यून् ) प्रजा के नाशक दुष्ट पुरुषों को ( अव धूनुषे ) कठोर दण्डों से भयभीत कर देता है ( तम् उ त्वा ) उस तुझ (वृत्रहन्तमम्) मेघ या अन्धकार के समान प्रबल शत्रु को सूर्य के समान छिन्न भिन्न करने वाले को हम ( द्युम्नैः ) धनो और चमचमाते शस्त्र अस्त्रों से सुसज्जित होकर ( प्र नोनुमः ) अच्छी प्रकार स्तुति करें । तेरे यश का कीर्तन करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-५ गोतम राहूगण ऋषिः ॥ ऋग्नर्देवता ॥ १-५ गायत्री छन्दः ।
विषय
विषय ( भाषा)- फिर वह विद्वान् कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे विद्वन् ! यः त्वं दस्यून् अवधूनुषे तं वृत्रहन्तमं त्वाम् उ द्युम्नैः सह वर्त्तमाना वयम् अभि प्र नोनुमः ॥४॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (विद्वन्)= विद्वान् ! (यः) विद्वान्=जो विद्वान्, (त्वम्)=तुम, (दस्यून्) महादुष्टान्=अत्यन्त दुष्टों को, (अवधूनुषे) अतिकम्पयति=डरा करके अत्यधिक कम्पाता है, (तम्) उक्तम्=उस विद्वान्, (वृत्रहन्तमम्) अतिशयेन वृत्रस्य हन्तारम्=शत्रुओं को मारनेवाले, (त्वा) त्वाम्=तुमको, (उ) वितर्के=अथवा, (द्युम्नैः) यशसा प्रकाशमानैः शस्त्रास्त्रैः=यश से प्रकाशित होनेवाले शस्त्र और अस्त्रों के, (सह)=साथ, (वर्त्तमानाः)=उपस्थित, (वयम्)=हम, (अभि) आभिमुख्ये=समीप से, (प्र) प्रकृष्टे= प्रकृष्ट रूप से, (नोनुमः) भृशं स्तुमः= विस्तृत रूप से स्तुति करें॥४॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- हे मनुष्यों ! तुम जिसका कोई शत्रु न हो और जो दुष्ट आचरण करनेवाले शत्रुओं को परास्त करता है, उस सभा के अध्यक्ष की तुम सदा सेवा करो ॥४॥ (ऋग्वेद ०१.७८.०४)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (विद्वन्) विद्वान् ! (यः) जो विद्वान् (त्वम्) तुम, (दस्यून्) अत्यन्त दुष्टों को (अवधूनुषे) डरा करके अत्यधिक कम्पाता है, (तम्) उस विद्वान्, (वृत्रहन्तमम्) शत्रुओं को मारनेवाले, (त्वा) तुमको (उ) अथवा (द्युम्नैः) यश से प्रकाशित होनेवाले शस्त्र और अस्त्रों के (सह) साथ (वर्त्तमानाः) उपस्थित हो करके (वयम्) हम (अभि) समीप से (प्र) प्रकृष्ट और (नोनुमः) विस्तृत रूप से स्तुति करें॥४॥
संस्कृत भाग
तम् । ऊँ॒ इति॑ । त्वा॒ । वृ॒त्र॒हन्ऽत॑मम् । यः । दस्यू॑न् । अ॒व॒ऽधू॒नु॒षे । द्यु॒म्नैः । अ॒भि । प्र । नो॒नु॒मः॒ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्या ! यूयं योऽजातशत्रुः सभाध्यक्षः दुष्टाचारान् शत्रून् पराजयते तं सदा सेवध्वम् ॥४॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! ज्याचा कोणी शत्रू नसेल, असा विद्वान सभाध्यक्ष, जो दुष्ट शत्रूंना पराजित करू शकेल, त्याची सेवा करा. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, breaker of the cloud and dispeller of darkness, who shake the evil and wicked to destruction, we celebrate you in homage with all the power and valour at our command.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
We praise thee repeatedly who art the destroyer of the wicked ignoble persons and who puttests them to flight. We possessing shining or glittering weapons, praise thee repeatedly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दस्यून) महादुष्टान् = Very wicked persons. (घुम्नै:) यशसा प्रकाशमानैः शस्त्रास्त्रैः = With shining or glittering arms, and weapons.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men, you should constantly serve the President of the Assembly who is without enemies (most popular) and who overcomes all wicked persons.
Subject of the mantra
Then, what kind of scholar should he be?This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidvan) =scholar, (yaḥ) =that scholar, (tvam) =you, (dasyūn) =to the most wicked, (avadhūnuṣe) =makes tremble with fright, (tam) =to that scholar, (vṛtrahantamam) =killer of the enemies, (tvā) =to you,(u) =or, (dyumnaiḥ) =of arms and weapons illuminated with fame, (saha) =with, (varttamānāḥ) =being present, (vayam) =we, (abhi) =in proximity, (pra)= excessively and, (nonumaḥ=praise thoroughly.
English Translation (K.K.V.)
O scholar! You, the learned one, who frightens the most evil people and makes them tremble a lot, that learned one, the one who kills the enemies, or you, who is illuminated with fame, we, being present with arms and weapons, should praise by proximity, excessively and thoroughly.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
O humans! Who has no enemies and who defeats the enemies having wicked behaviour, you should always serve that President of that Assembly.
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