Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 92 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 92/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - उषाः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    उद॑पप्तन्नरु॒णा भा॒नवो॒ वृथा॑ स्वा॒युजो॒ अरु॑षी॒र्गा अ॑युक्षत। अक्र॑न्नु॒षासो॑ व॒युना॑नि पू॒र्वथा॒ रुश॑न्तं भा॒नुमरु॑षीरशिश्रयुः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । अ॒प॒प्त॒न् । अ॒रु॒णाः । भा॒नवः॑ । वृथा॑ । सु॒ऽआ॒युजः॑ । अरु॑षीः । गाः । अ॒यु॒क्ष॒त॒ । अक्र॑न् । उ॒षसः॑ । व॒युना॑नि । पू॒र्वथा॑ । रुश॑न्तम् । भा॒नुम् । अरु॑षीः । अ॒शि॒श्र॒युः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदपप्तन्नरुणा भानवो वृथा स्वायुजो अरुषीर्गा अयुक्षत। अक्रन्नुषासो वयुनानि पूर्वथा रुशन्तं भानुमरुषीरशिश्रयुः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। अपप्तन्। अरुणाः। भानवः। वृथा। सुऽआयुजः। अरुषीः। गाः। अयुक्षत। अक्रन्। उषसः। वयुनानि। पूर्वथा। रुशन्तम्। भानुम्। अरुषीः। अशिश्रयुः ॥ १.९२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 92; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ताः कीदृश्य इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे विद्वांसो याः अरुणाः स्वायुज उषसो भानवः वृथोदपप्तन् गा अरुषीरयुक्षत युञ्जते। या अरुषीर्वयुनान्यक्रन् पूर्वथा पूर्वा इव पूर्वदैनिक्युषा इव परं परं रुशन्तं भानुमशिश्रयुस्ता युक्त्या सेवनीयाः ॥ २ ॥

    पदार्थः

    (उत्) ऊर्ध्वे (अपप्तन्) पतन्ति (अरुणाः) आरक्ताः (भानवः) सूर्यस्य किरणाः (वृथा) (स्वायुजः) याः सुष्ठु समन्ताद्युञ्जन्ति ताः (अरुषीः) आरक्तगुणाः (गाः) पृथिवीः (अयुक्षत) युञ्जते (अक्रन्) कुर्वन्ति (उषसः) प्रातःकालीनाः सूर्यस्य रश्मयः। अत्रान्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (वयुनानि) विज्ञानानि कर्माणि वा (पूर्वथा) पूर्वा इव। अत्र प्रत्नपूर्व०। [अ० ५। ३। १११। ] इत्याकारकेण योगेनेवार्थे थाल् प्रत्ययः। (रुशन्तम्) हिंसन्तम्। रुशदिति वर्णनाम रोचतेर्ज्वलतिकर्मणः। निरु० २। २०। (भानुम्) सूर्य्यम् (अरुषीः) अरुष्य आरक्तगुणाः (अशिश्रयुः) श्रयन्ति सेवन्ते। अत्र लङि प्रथमस्य बहुवचने विकरणव्यत्ययेन शपः स्थाने श्लुः। सिजभ्यस्तेति झेर्जुस्। जुसि च०। [अ० ७। ३। ८३। ] इति गुणः ॥ २ ॥

    भावार्थः

    ये सूर्यस्य किरणा भूगोलान्सेवित्वा क्रमशो गच्छन्ति ते सायंप्रातर्भूमियोगेनारक्ता भूत्वाऽऽकाशं शोभयन्ति। यदैता उषसः प्रवर्त्तन्ते तदा प्राणिनां विज्ञानानि जायन्ते। ये भूमिं स्पृष्ट्वा आरक्ताः सूर्यं सेवित्वा रक्तं कृत्यौषधीः सेवन्ते ता जागरितैर्मनुष्यैः सेवनीयाः ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे प्रातःकाल की वेला कैसी हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! जो (अरुणाः) रक्तगुणवाली (स्वायुजः) और अच्छे प्रकार सब पदार्थों से युक्त होती हैं वे (उषसः) प्रातःकालीन सूर्य की (भानवः) किरणें (वृथा) मिथ्या सी (उत्) ऊपर (अपप्तन्) पड़ती हैं अर्थात् उसमें ताप न्यून होता है, इससे शीतल सी होती हैं और उनसे (गाः) पृथिवी आदि लोक (अरुषीः) रक्तगुणों से (अयुक्षत) युक्त होते हैं। जो (अरुषीः) रक्तगुणवाली सूर्य की उक्त किरणें (वयुनानि) सब पदार्थों का विशेष ज्ञान वा सब कामों को (अक्रन्) कराती हैं वे (पूर्वथा) पिछले-पिछले (रुशन्तम्) अन्धकार के छेदक (भानुम्) सूर्य के समान अलग-अलग दिन करनेवाले सूर्य का (अशिश्रयुः) सेवन करती हैं, उनका सेवन युक्ति से करना चाहिये ॥ २ ॥

    भावार्थ

    जो सूर्य की किरणें भूगोल आदि लोकों का सेवन अर्थात् उनपर पड़ती हुई क्रम-क्रम से चलती जाती हैं, वे प्रातः और सायङ्काल के समय भूमि के संयोग से लाल होकर बादलों को लाल कर देती हैं और जब ये प्रातःकाल लोकों में प्रवृत्त अर्थात् उदय को प्राप्त होती हैं तब प्राणियों को सब पदार्थों के विशेष ज्ञान होते हैं। जो भूमि पर गिरी हुई लाल वर्ण की हैं वे सूर्य के आश्रय होकर और उसको लाल कर ओषधियों का सेवन करती हैं, उनका सेवन जागरितावस्था में मनुष्यों को करना चाहिये ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उषः काल का प्रकाश

    पदार्थ

    १. (उ) = निश्चय से (त्याः) = वे प्रसिद्ध (एताः उषसः) = ये उषः काल (केतुम्) = प्रज्ञापक प्रकाश को (अक्रत) = करते हैं । (रजसः) = इस अन्तरिक्षलोक के (पूर्व अर्धे) = पूर्वभाग में (भानुम्) = प्रकाश को (अञ्जते) = व्यक्त करते हैं । उषा आती है और अन्धकार दूर होकर सर्वत्र प्रकाश - ही - प्रकाश हो जाता है । २. (इव) = जैसे (कृष्णवः) = धर्षणशील, शत्रु को कुचल देनेवाले योद्धा (आयुधानि) = अपने तलवार आदि शस्त्रों को (निष्कृण्वानाः) = संस्कृत करते हैं, उसी प्रकार अपने प्रकाश से जगत् को संस्कृत करती हुई (गावः) = गमनशील (अरुषीः) = आरोचमान, सर्वतो देदीप्यमान (मातरः) = सूर्यप्रकाश को जन्म देनेवाली उषाएँ (प्रतियन्ति) = प्रतिदिन आकर जानेवाली होती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हम उषः कालों से बोध लेनेवाले बनें । 'प्रकाश' हमारे जीवन का लक्ष्य हो । हम अपने अज्ञान - अन्धकार को दूर करनेवाले हों ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    उषा के वर्णन के साथ, उसके दृष्टान्त से उत्तम गृह-पत्नी के कर्तव्यों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अरुणाः ) अरुण वर्ण के, लाल रंग के ( भानवः ) किरण जिस प्रकार (वृथा) आपसे आप अनायास ( उत्-अपप्तन् ) उदय को प्राप्त होते हैं उसी प्रकार तेजस्वी पुरुष ( अरुणाः ) नव उदित सूर्य के समान अनुराग राग से रक्षित होकर ( उत् अपप्तन् ) उदय को प्राप्त होते हैं । और ( स्वायुजः ) उत्तम रीति से स्वयं आजुतने वाले, सुशील ( गाः ) बैलों को जैसे कोई रथवान् (अयुक्षत) रथ में जोड़ता है उसी प्रकार ( सु आयुजः ) उत्तम पुरुषों के साथ योग चाहने वाली ( गाः ) गमनयोग्य, सुभग, ( अरुषीः ) दीप्तिमती, कन्याओं को विद्वान् लोग ( अयुक्षत ) योग्य वर से संयुक्त करें । ( उषासः ) दिन के प्रारम्भ भाग की प्रभात वेलाएं जिस प्रकार ( पूर्वथा ) सबसे पूर्व ( वयुनानि ) ज्ञान ( अक्रन् ) प्रकट करती हैं उसी प्रकार ( उषासः ) यौवन या जीवन के पूर्व वयस में, विद्यमान कन्याएं भी ( पूर्वथा ) अपने पूर्व काल में ( वयुनानि ) प्रकार के ज्ञानों का ( अक्रन् ) सम्पादन करें । वे भी पढ़ें और ज्ञान लाभ करें । और विद्या पढ़ चुकने पर ( अरुषीः भानुम् ) जिस प्रकार तेजस्विनी उषाएं सूर्य का आश्रय लेती हैं उसी प्रकार ( अरुषीः ) अति तेजस्विनी वा रोषरहित, सौम्यस्वभाव वाली कन्याएं ( भानुम् ) तेजस्वी पुरुष का ( अशिश्रयुः ) आश्रय करें । उसके पृथिवी पर प्रथम उषा का आगमन तदनन्तर सूर्य का वरण, इसी प्रकार वेदि में प्रथम कन्या का आगमन तब घर का वरण, यह भी व्यंग्योक्त है । (२) उदयशील पुरुष सूर्य के समान उदय होते हैं । उत्तम आज्ञा में नियुक्त सेनाएं उनके नीचे रहती हैं। वे शत्रु तापक सेनाएं नाना युद्ध कला का ज्ञान करती हैं तब वे सूर्यवत् तेजस्वी राजा का आश्रय लेती हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ उषा देवता ॥ छन्दः—१, २ निचृज्जगती । ३ जगती । ४ विराड् जगती । ५, ७, १२ विराड् त्रिष्टुप् । ६, १२ निचृत्त्रिष्टुप् ८, ९ त्रिष्टुप् । ११ भुरिक्पंक्तिः । १३ निचृत्परोष्णिक् । १४, १५ विराट्परोष्णिक् । १६, १७, १८ उष्णिक् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी सूर्याची किरणे भूगोलावर क्रमाक्रमाने पडत जातात ती प्रातःकाळी व सायंकाळी भूमीच्या संयोगाने लाल बनून आकाशालाही शोभिवंत करतात. जेव्हा प्रातःकाळी ती (उषेमुळे) सर्व गोलावर उदित होतात तेव्हा प्राण्यांना सर्व पदार्थांचे विशेष ज्ञान होते. जी भूमीवर पडलेली लाल वर्णाची किरणे आहेत ती सूर्याच्या आश्रयाने त्याला लाल करून औषधींचे सेवन करतात. त्यांचे सेवन माणसांनी केले पाहिजे. ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Up rise the red flames of the dawn, naturally and spontaneously like willing red horses yoked to the chariot. The ruddy lights of the dawn awakening humanity to their daily chores as before proclaim the rise of the brilliant sun in obedience to his command.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are the .dawns is taught further in the 2nd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The purple rays of the dawns have readily shot upwards, they have yoked the earths or have illumined them. They have restored, as of yore, the consciousness and actions of sentient creatures and bright rayed have attended upon the glorious sun or have attained their brillancy. They (dawns) should be utilised well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (उषासः) प्रातः कालीनाः सूर्यस्य रश्मयः । = The rays of the sun early in the morning. अत्र अन्येषामपि दृश्यते (० ६.३.१३७ ) इति दीर्घः (वयुनानि) विज्ञानानि । = Knowledge or actions. (रुशन्तम्) हिसन्तम् | रुशदितिवर्णनाम रोचते ज्वलति कर्मण:। (निरु० २०.२० ) = Shining or dispelling darkness by lustre.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The rays of the sun which after serving or illuminating the worlds go out, decorate the sky becoming ruddy by the combination of the earth and the sun. When the dawns come out or manifest themselves, the consciousness of the beings expresses itself. The Dawns or the rays of the early sun which touch the earth and being ruddy attend upon the sun and penetrate the herbs and plants, should be used well by all men in their conscious state.

    Translator's Notes

    वयुनमिति प्रज्ञानाम (निघ० ३.६ ) = Knowledge वयुनमिति प्रशस्यनाम (निघ० ३.८) = Admirable action.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top