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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 105 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 105/ मन्त्र 5
    ऋषिः - कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो वा देवता - इन्द्र: छन्दः - विराडुष्निक् स्वरः - ऋषभः

    अधि॒ यस्त॒स्थौ केश॑वन्ता॒ व्यच॑स्वन्ता॒ न पु॒ष्ट्यै । व॒नोति॒ शिप्रा॑भ्यां शि॒प्रिणी॑वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अधि॑ । यः । त॒स्थौ । केष॑ऽवन्ता । व्यच॑स्वन्ता । न । पु॒ष्ट्यै । व॒नोति॑ । शिप्रा॑भ्याम् । शि॒प्रिणी॑ऽवान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधि यस्तस्थौ केशवन्ता व्यचस्वन्ता न पुष्ट्यै । वनोति शिप्राभ्यां शिप्रिणीवान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अधि । यः । तस्थौ । केषऽवन्ता । व्यचस्वन्ता । न । पुष्ट्यै । वनोति । शिप्राभ्याम् । शिप्रिणीऽवान् ॥ १०.१०५.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 105; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः) जो परमात्मा (व्यचस्वन्ता) व्यक्तीकरण धर्मवाले (केशवन्ता-न) रश्मिवाले सूर्य चन्द्रमा के समान अपने उत्पादन धारण धर्मों को (अधितस्थौ) अधिष्ठित है (पुष्ट्यै) संसारपोषण के लिए (शिप्राभ्याम्) उन व्यापनशीलों से (शिप्रिणीवान्) व्यापी शक्तिवाला संसार में व्याप्त है ॥५॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य और चन्द्रमा प्रकाशवाले पदार्थ वस्तुओं को व्यक्त करते हैं, ऐसे ही परमात्मा के उत्पादन और धारण धर्म संसार को प्रकट करने में निमित्त हैं, परमात्मा व्यापन शक्तिवाला इन दो व्यापन धर्मों को संसार की वृद्धि के लिए अधिकृत कर रहा है ॥५॥

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    विषय

    केशवन्ता - व्यचस्वन्ता

    पदार्थ

    [१] (वनोति) = वह शत्रुओं को हिंसित करता है [शत्रून् हिनस्ति ] (यः) = जो (पुष्ट्यै) = शक्तियों के उचित पोषण के लिए (केशवन्ता) = प्रकाश की रश्मियोंवाले (न) = [= च] और (वाचस्वन्ता) = कर्मों के विस्तारवाले इन्द्रियाश्वों को (अधितस्थौ) = अपने द्वारा अधिष्ठित करता है। ज्ञानेन्द्रियाँ प्रकाश की रश्मियोंवाली हैं तो कर्मेन्द्रियाँ कर्मों के विस्तारवाली हैं। जो भी इन्द्रियों को अपने वश में करता है वह इनकी शक्तियों का उचित पोषण कर पाता है। [२] शत्रुओं को वह हिंसित करता है जो (शिप्राभ्याम्) = हनुओं व नासिका द्वारा (शिप्रिणीवान्) = प्रशस्त शिप्रोंवाला होता है। जबड़ों [हनु] के प्रशस्त होने का अभिप्राय यह है कि यह सात्त्विक अन्नों का ही मात्रा में सेवन करता है। नासिका के प्रशस्त होने का अभिप्राय यह है कि यह प्राणायाम का अभ्यासी बनता है। इस प्रकार 'शिप्रिणीवान्' बनकर यह सब काम-क्रोधादि अन्तः शत्रुओं का पराजय कर पाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - काम-क्रोधादि शत्रुओं का पराजय वह कर पाता है, जो [१] इन्द्रियों का अधिष्ठाता बनता है, [२] सात्त्विक अन्नों का मात्रा में सेवन करता है, [३] प्राणसाधना में प्रवृत्त होता है ।

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    विषय

    विद्वानों और स्तोताओं के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    (यः) जो (केशवन्तौ) रश्मियुक्त (व्यचस्वन्ता) दूर दूर तक विविध दिशाओं में फैलने वाले प्रकाशों से युक्त सूर्य चन्द्र वायु वा मेघ दोनों पर (पुष्टयै) जगत् के पोषण के लिये (अधि तस्थौ) सूर्य के तुल्य उन पर अध्यक्ष रूप से विराजता है, वह (शिप्रिणीवान्) बलवती सेना के तुल्य शक्ति का स्वामी होकर (शिप्राभ्याम्) जबड़ों के तुल्य सूर्य और पृथिवी दोनों से (वनोति) जीवों को नाना ऐश्वर्य, सुखादि प्रदान करता है। इति षडविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कौत्सः सुमित्रो दुर्मित्रो* वा॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १ पिपीलिकामध्या उष्णिक्। ३ भुरिगुष्णिक्। ४, १० निचृदुष्णिक्। ५, ६, ८, ९ विराडुष्णिक्। २ आर्ची स्वराडनुष्टुप्। ७ विराडनुष्टुप्। ११ त्रिष्टुप्॥ *नाम्ना दुर्मित्रो गुणतः सुमित्रो यद्वा नाम्ना सुमित्रो गुणतो दुर्मित्रः स ऋषिरिति सायणः।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः) यः खलु परमात्मा (व्यचस्वन्ता-केशवन्ता-न) व्यक्तिकरण-धर्मवन्तौ रश्मिवन्तौ सूर्याचन्द्रमसाविव-उत्पादनधारणधर्मौ (अधितस्थौ) अधितिष्ठति (पुष्ट्यै) संसारपोषणाय (शिप्राभ्याम्-शिप्रिणीवान्) ताभ्यां व्यापनशीलाभ्यां व्यापिनीशक्तिमान् संसारं व्याप्नोति ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra who, like the sun of radiant and expansive light, abides and rules over the world of heaven and earth with his potent and pervasive presence for the evolution and progress of life, wins over the contraries and provides everything for the pious and law abiding by both his promotive and punitive powers.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे सूर्य व चंद्र प्रकाशयुक्त पदार्थ वस्तूंना प्रकट करतात. तसेच परमात्म्याचे उत्पादन व धारणधर्म प्रकट करण्याचे निमित्त आहेत. परमात्मा व्यापन शक्तियुक्त असून, या दोन व्यापन धर्मांनी जगात व्याप्त आहे. ॥५॥

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