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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 119 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 119/ मन्त्र 7
    ऋषिः - लबः ऐन्द्रः देवता - आत्मस्तुतिः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    न॒हि मे॒ रोद॑सी उ॒भे अ॒न्यं प॒क्षं च॒न प्रति॑ । कु॒वित्सोम॒स्यापा॒मिति॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न॒हि । मे॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । उ॒भे इति॑ । अ॒न्यम् । प॒क्षम् । च॒न । प्रति॑ । कु॒वित् । सोम॑स्य । अपा॑म् । इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नहि मे रोदसी उभे अन्यं पक्षं चन प्रति । कुवित्सोमस्यापामिति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नहि । मे । रोदसी इति । उभे इति । अन्यम् । पक्षम् । चन । प्रति । कुवित् । सोमस्य । अपाम् । इति ॥ १०.११९.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 119; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उभे रोदसी) दोनों द्यावापृथिवी या द्यावापृथिवीमय सब जगत् (मे) मेरा (अन्यं पक्षं चन) एक अन्य पक्ष-विरोधी पक्ष हो जावे, तो भी मुझे परमात्मा से रोक नहीं सकता, क्योंकि मैंने बहुत परमात्मा के आनन्दरस का पान किया है ॥७॥

    भावार्थ

    जो परमात्मा के आनन्दरस का पान कर चुकता है, उसे सारा जगत् भी परमात्मा की ओर से हटा नहीं सकता ॥७॥

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    विषय

    अद्भुत शक्ति

    पदार्थ

    [१] (कुवित्) = खूब ही (सोमस्य) = सोम का (अपाम्) = मैंने पान किया है (इति) = इस कारण (उभे रोदसी) = ये दोनों द्युलोक और पृथिवीलोक मे मेरे (अन्यं पक्षं चन) = एक पासे के भी (प्रति) = मुकाबिले में (नहि) = नहीं होते हैं । [२] सोमपान से अलौकिक शक्ति का प्रादुर्भाव होता है और मनुष्य सारे संसार का भी मुकाबिला करने में समर्थ हो जाता है। उसे ऐसा अनुभव होता है कि सारा संसार उसके एक पासे के भी तो बराबर नहीं। इस प्रकार सोमपान से वह इस अलौकिक शक्ति का अनुभव करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम के रक्षण से दिव्य शक्ति प्राप्त होती है ।

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    विषय

    वीर्य रक्षा से प्रचुर बलप्राप्ति।

    भावार्थ

    (उभे रोदसी) सूर्य और भूमि दोनों मिलकर भी (मे) मेरे (अन्यं पक्षं चन प्रति) एक पक्ष अर्थात् बाजू के बराबर भी नहीं हैं। (इति) कारण कि मैं (कुवित् सोमस्य अपाम्) बहुत अधिक वीर्य का रक्षण कर चुका हूं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्लब ऐन्द्रः। देवता—आत्मस्तुतिः॥ छन्दः—१–५, ७—१० गायत्री। ६, १२, १३ निचृद्गायत्री॥ ११ विराड् गायत्री।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उभे रोदसी मे-अन्यं पक्षं चन प्रति नहि) उभे द्यावापृथिव्यौ-द्यावापृथिवीमयं सर्वं जगदपि ममान्यं पार्श्वं भवत्-न ह्यवरोधयति (कुवित् सोमस्य अपाम् इति) पूर्ववत् ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Nor can the physical earth and heaven both be the other and opposite side of my divine personality, for I have drunk of the soma of the divine spirit.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो परमात्म्याच्या आनंदरसाचे पान करतो त्याला जगही परमात्म्यापासून हटवू शकत नाही. ॥७॥

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