ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 153/ मन्त्र 4
ऋषिः - इन्द्रमातरो देवजामयः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
त्वमि॑न्द्र स॒जोष॑सम॒र्कं बि॑भर्षि बा॒ह्वोः । वज्रं॒ शिशा॑न॒ ओज॑सा ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इ॒न्द्र॒ । स॒ऽजोष॑सम् । अ॒र्कम् । बि॒भ॒र्षि॒ । बा॒ह्वोः । वज्र॑म् । शिशा॑नः । ओज॑सा ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्र सजोषसमर्कं बिभर्षि बाह्वोः । वज्रं शिशान ओजसा ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इन्द्र । सऽजोषसम् । अर्कम् । बिभर्षि । बाह्वोः । वज्रम् । शिशानः । ओजसा ॥ १०.१५३.४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 153; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् या राजन् ! (त्वम्) तू (सजोषसम्) रुचि के अनुसार (अर्कम्) प्रसंशनीय (वज्रम्) विरोधी के प्राणों का वर्जक शस्त्र को (शिशानः) तीक्ष्ण करता हुआ (ओजसा) आत्मबल से (बाह्वोः) बाहु के समान पराक्रम और गुणों में या भुजाओं में (बिभर्षि) धारण करता है ॥४॥
भावार्थ
परमात्मा प्रीतियुक्त प्रशंसनीय ओजरूप वज्र को तीक्ष्ण करता हुआ अपने पराक्रमगुणों से पापी पर प्रहार करता है, इस प्रकार राजा विरोधी को प्राणों से वियुक्त करने के लिये अपने भुजाओं से शस्त्र को छोड़नेवाला हो ॥४॥
विषय
स्तुत्य तेज
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = इन्द्रियों के अधिष्ठाता बननेवाले जीव ! (त्वम्) = तू (बाह्वोः) = अपनी भुजाओं में सजोषसम्= जोश व उत्साह से युक्त (अर्कम्) = [अर्च् ] स्तुत्य सूर्यसम तेज को (बिभर्षि) = धारण करता है [प्राणो वा अर्कः श० १०।४। १ । २३] । तेरे में शक्ति है तथा उत्साह है। [२] तू (ओजसा) = ओजस्विता के द्वारा (वज्रम्) = अपने वज्र को (शिशान:) = तीक्ष्ण करनेवाला है । 'वज्र गतौ' से बना हुआ वज्र शब्द क्रियाशीलता का वाचक हैं, ओजस्विता के कारण तेरा जीवन बड़ा क्रियाशील है ।
भावार्थ
भावार्थ- बालक को माता ने उत्साहयुक्त तेजवाला तथा ओजस्विता से युक्त क्रियाशीलतावाला बनाना है 1
विषय
सैन्यों के प्रति उसका कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (स्वम्) तू (बाह्वोः) बाहुओं में (स-जोषसम्) प्रीतियुक्त (अर्कम्) अर्चनीय पूज्य बल को (बिभर्षि) धारण करता है, और (ओजसा) पराक्रम से (वज्रम् शिशानः) बलवीर्य युक्त शस्त्र सैन्य का तीक्ष्ण करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषयः इन्द्र मातरो देव ममः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:-१ निचृद् गायत्री। २-५ विराड् गायत्री॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र) हे परमात्मन् राजन् ! वा (त्वम्) त्वम् (सजोषसम्-अर्कं वज्रं शिशानः) सह प्रीयमाणं स्तुत्यं विरोधिनः प्राणस्य वर्जकं शस्त्रं तीक्ष्णी-कुर्वन् (ओजसा बाह्वोः-बिभर्षि) आत्मबलेन बाह्वोर्बाहुवन्नाशकपराक्रमगुणयोः-भुजयोर्वा धारयसि ॥४॥
इंग्लिश (1)
Meaning
You, Indra, bear a united and participative refulgence of personal dignity and social brilliance, keeping the force of your arms and blaze of justice and rectitude fresh and shining by the constant manifestation of your dynamic vigour of personality.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा प्रेमळ प्रशंसनीय ओजरूप वज्राला तीक्ष्ण करून आपल्या पराक्रम, गुणांनी पापी लोकांवर प्रहार करतो. त्या प्रकारेच राजा विरोधकांना प्राणापासून युक्त करण्यासाठी आपल्या भुजांनी शस्त्रे वापरणारा असावा. ॥४॥
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