ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 32/ मन्त्र 2
वी॑न्द्र यासि दि॒व्यानि॑ रोच॒ना वि पार्थि॑वानि॒ रज॑सा पुरुष्टुत । ये त्वा॒ वह॑न्ति॒ मुहु॑रध्व॒राँ उप॒ ते सु व॑न्वन्तु वग्व॒नाँ अ॑रा॒धस॑: ॥
स्वर सहित पद पाठवि । इ॒न्द्र॒ । या॒सि॒ । दि॒व्यानि॑ । रो॒च॒ना । वि । पार्थि॑वानि । रज॑सा । पु॒रु॒ऽस्तु॒त॒ । ये । त्वा॒ । वह॑न्ति । मुहुः॑ । अ॒ध्व॒रान् । उप॑ । ते । सु । व॒न्व॒न्तु॒ । व॒ग्व॒नान् । अ॒रा॒धसः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वीन्द्र यासि दिव्यानि रोचना वि पार्थिवानि रजसा पुरुष्टुत । ये त्वा वहन्ति मुहुरध्वराँ उप ते सु वन्वन्तु वग्वनाँ अराधस: ॥
स्वर रहित पद पाठवि । इन्द्र । यासि । दिव्यानि । रोचना । वि । पार्थिवानि । रजसा । पुरुऽस्तुत । ये । त्वा । वहन्ति । मुहुः । अध्वरान् । उप । ते । सु । वन्वन्तु । वग्वनान् । अराधसः ॥ १०.३२.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 32; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पुरुष्टुत-इन्द्र) हे बहुत स्तुतियोग्य परमात्मन् ! (दिव्यानि रोचना वि यासि) तू आकाश में प्रकाशमान नक्षत्रों में व्याप्त हो रहा है। (पार्थिवानि रजसा वि) पृथ्वीसम्बन्धी रञ्जनात्मक-मनोरञ्जन करनेवाली वस्तुओं में व्याप्त रहा है (ये मुहुः-अध्वरान् त्वा वहन्ति) जो आत्मयज्ञों का सेवन करते हैं (ते) वे जन (अराधसाः) धनरहित होते हुए भी (वग्वनान्) स्तुतिवाणी के द्वारा सेवनीय विशेष सुखों को (सु-उप वन्वन्तु) सुगमता से सेवन करते हैं ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा आकाश गृह नक्षत्रों और पृथ्वी के मनोभावन पदार्थों में यहाँ पर व्याप्त हो रहा है। उपासक जन उसकी स्तुति द्वारा विशेष सुख प्राप्त करते हैं ॥२॥
विषय
दिव्य-प्रकाश [Divine light]
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! तू (दिव्यानि रोचना) = दिव्य दीप्तियों को [Divine light] (वियासि) = विशेषरूपेण प्राप्त होता है। जितेन्द्रियता ही वस्तुतः दिव्य प्रकाश की प्राप्ति का साधन होती है । [२] हे इन्द्र ! तू (पार्थिवानि [ रोचना] वियासि) = पार्थिव दीप्तियों को भी विशेषरूप से प्राप्त होता है । स्वास्थ्य के कारण शरीर पर प्रकट होनेवाला सौन्दर्य ही 'पार्थिव रोचन' है । इसमें कमी आने पर चेहरा मुरझाया-सा प्रतीत होता है। [३] हे इन्द्र ! तू (रजसा) = [ रजः कर्मणि] कर्म के द्वारा अथवा 'रजः अन्तरिक्षम्' अपने हृदयान्तरिक्ष के द्वारा (पुरुष्टुत) = बहुतों से स्तुत होता है । कर्मों के कारण व हृदयान्तरिक्ष की निर्मलता के कारण तेरी सब प्रशंसा करते हैं । [४] हे प्रभो (ये) = जो भी व्यक्ति (त्वा वहन्ति) = आपका धारण करते हैं और (मुहुः) = फिर (अध्वरान् उप) = हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों के समीप निवास करते हैं, अर्थात् जो आपका स्मरण करते हैं और यज्ञों में लगे रहते हैं (ते) = वे (वग्वनान्) = केवल वाणी का सेवन करनेवाले [वच् वन], बात करनेवाले, परन्तु (अराधसः) = कार्यों को न सिद्ध करनेवाले पुरुषों को सुवन्वन्तु उत्तमता से जीतनेवाले हों [वन् win]। 'बातें करना और कामों को न करना' यह अवनति का मार्ग है और इसके विपरीत 'प्रभु का हृदय में स्मरण करना और यज्ञों में लगे रहना' ही उन्नति का मार्ग है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु - स्मरणपूर्वक हम कर्मों में लगे रहें, इसी से हमें दिव्य प्रकाश प्राप्त होगा, स्वास्थ्य की दीप्ति मिलेगी और कर्मों की भावना व हृदय की पवित्रता से प्रशस्त जीवनवाले होंगे।
विषय
यज्ञों द्वारा प्रभु की आर्चना और सत्फल।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (दिव्यानि) आकाश के (रोचना) तेजोमय और (पार्थिवा) पृथिवी के समस्त लोकों और पदार्थों को (रजसा) तेज वा रजोगुण द्वारा (वि यासि) विशेष रूपसे व्यापता है। (ये) जो मनुष्य विद्वान् जन, (अध्वरान्) यज्ञों को तुझे लक्ष्य करके (मुहुः) वार २ (वहन्ति) धारण करते हैं (ते अराधसः) वे धनरहित होकर भी (वग्वनान्) वाणी द्वारा सेवन करने योग्य सुखों को (वन्वन्तु) चाहें, तेरे से प्रार्थना करें, तेरे से याचना करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कवष ऐलूष ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। छन्दः- १, २ विराड्जगती। ३ निचृज्जगती ४ पादनिचृज्जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। ६ त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८, निचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पुरुष्टुत-इन्द्र) हे बहुस्तोतव्य परमात्मन् ! (दिव्यानि रोचना वि यासि) त्वं दिवि भवानि प्रकाशमयानि नक्षत्राणि व्याप्नोषि (पार्थिवानि रजसा वि) पृथिव्यां भवानि रजांसि रजनात्मकानि वस्तूनि च व्याप्नोषि ‘रजसा’ “सुपां सुलुक् पूर्वसवर्णाच्छेया ………” [अष्टा०७।१।३९] इत्याकारादेशः। (ये मुहुः-अध्वरान् त्वा वहन्ति) ये आत्मयाजिनस्त्वां लक्षयित्वा-अध्यात्मयज्ञान्-अनुतिष्ठन्ति (ते) ते जनाः (अराधसः) धनरहिताः अपि (वग्वनान्) स्तुतिवाण्या सेवनीयान् सुखविशेषान् (सु-उप वन्वन्तु) सुगमतया सम्भजन्ताम्-इति देवयानमार्गस्य वर्णनम् ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, omnipotent light of the universe, adored and worshipped by all, by your universal light and energy you pervade and radiate over all divine luminaries of earth, heaven and all space. Those who continuously send up their prayers and dedicate their yajnic actions and endeavours to you win the fruits of their prayers and worship and thereby eliminate all their want and deprivations.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा आकाश, गृह, नक्षत्र व पृथ्वीवरील मनाला भावणाऱ्या पदार्थात व्याप्त आहे. उपासक लोक त्याच्या स्तुतीद्वारे विशेष सुख प्राप्त करतात. ॥२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal