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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 32 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 32/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कवष ऐलूषः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    तदिन्मे॑ छन्त्स॒द्वपु॑षो॒ वपु॑ष्टरं पु॒त्रो यज्जानं॑ पि॒त्रोर॒धीय॑ति । जा॒या पतिं॑ वहति व॒ग्नुना॑ सु॒मत्पुं॒स इद्भ॒द्रो व॑ह॒तुः परि॑ष्कृतः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । इत् । मे॒ । छ॒न्त्स॒त् । वपु॑षः । वपुः॑ऽतरम् । पु॒त्रः । यत् । जान॑म् । पि॒त्रोः । अ॒धि॒ऽइय॑ति । जा॒या । पति॑म् । व॒ह॒ति॒ । व॒नुना॑ । सु॒ऽमत् । पुं॒सः । इत् । भ॒द्रः । व॒ह॒तुः । परि॑ऽकृतः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदिन्मे छन्त्सद्वपुषो वपुष्टरं पुत्रो यज्जानं पित्रोरधीयति । जाया पतिं वहति वग्नुना सुमत्पुंस इद्भद्रो वहतुः परिष्कृतः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत् । इत् । मे । छन्त्सत् । वपुषः । वपुःऽतरम् । पुत्रः । यत् । जानम् । पित्रोः । अधिऽइयति । जाया । पतिम् । वहति । वनुना । सुऽमत् । पुंसः । इत् । भद्रः । वहतुः । परिऽकृतः ॥ १०.३२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 32; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (पित्रोः पुत्रः यत्-जानम्-अधि-इयति) माता-पिता का पुत्र जब जन्म धारण करता है, (तत्-इत्-मे-वपुषः-वपुष्टरं छन्त्सत्) उसी समय मुझ सुन्दर गृहस्थ से सुन्दर सुख परमात्मा मेरे लिये चाहे-प्राप्त कराये (वग्नुना जाया पतिं वहति) अतः उसकी स्तुतिवाणी से-उसकी कृपा से पत्नी मुझ पति को प्राप्त होती है (सुमत् पुंसः-इत्) उत्तम हर्षप्रद सुख पुरुष का भी प्राप्त होता है (भद्रः-वहतुः परिष्कृतः) गृहस्थ आश्रम यह भजनीय-प्रापणीय उत्तम परिणाम है ॥३॥

    भावार्थ

    पति-पत्नी का सम्बन्ध होना गृहस्थ आश्रम कहलाता है और वह सन्तान की उत्पत्ति के लिये है। वह उसका सच्चा सुख है। सुयोग्य पत्नी और सुयोग्य पति ईश्वर की कृपा से प्राप्त होते हैं। यही गृहस्थ का सुन्दर फल है ॥३॥

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    विषय

    'भक्त', 'पुत्र', 'जाया' व 'भद्र पुरुष' का लक्षण

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि (तत्) = वह (इत्) = ही (मे) = मेरा है, वही मेरा सच्चा भक्त अपत्य है, जो कि (वपुषः वपुष्टरम्) = अच्छे से अच्छे शरीर की (छन्त्सत्) = कामना करता है। प्रभु का सच्चा भक्त सन्तान वही है कि जो शरीर को अधिक से अधिक स्वस्थ रखने का ध्यान करता है। प्रभु ने परमार्थ-साधन के लिये यह शरीर दिया है, यदि इस शरीर को ही हम विकृत कर लेते हैं तो प्रभु के निर्देश का पालन न करते हुए हम उस प्रभु की अवज्ञा कर रहे होते हैं । [२] (पुत्रः) = पुत्र वही है (यत्) = जो (पित्रोः) = माता-पिता के (जानम्) = विकास को (अधीयति) = प्राप्त करता है। माता-पिता के गुण-कर्मों का अनुकरण करते हुए अपनी शक्तियों का विकास करनेवाला ही सच्चा पुत्र होता है । [३] (जाया) = पत्नी वह है जो (सुमत्) = उत्तम विचारपूर्वक उच्चारण की गई (वग्नुना) = वाणी से (पतिम्) = पति को (वहति) = आवश्यक पदार्थ प्राप्त कराती है। कभी कटु व अप्रीतिकर वचनों को नहीं बोलती । 'जाया पत्ये मधुमतीं वाचं वदतु शन्तिवाम्' = पत्नी पति के लिये माधुर्यवाली शान्ति को देनेवाली वाणी को बोले । [४] (पुंसः) = मानवजाति का (इत्) = निश्चय से (भद्रः) = भद्र पुरुष वही है जो इस बात का ध्यान करता है कि (वहतुः) = [Marriage ] उसका विवाह सम्बन्ध (परिष्कृतः) = बड़ा परिष्कृत हो, वासनात्मक यह सम्बन्ध न हो। पति-पत्नी का परस्पर प्रेम हो और वह प्रेम पुनीत सन्तान को जन्म देनेवाला हो। 'प्रजायै गृहमेधिनाम् ' सन्तान के लिये ही वे गृहस्थ में प्रविष्ट हुए हों और इस प्रकार गृहस्थाश्रम को वे यज्ञ का रूप दे दें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम शरीर को उत्तम बनायें और प्रभु के सच्चे भक्त हों, माता-पिता से जीवन के विकास को सीखकर सच्चे पुत्र बनें, पत्नी के रूप में हों तो विचारपूर्वक मधुरवाणी से पति को प्राप्त हों। गृहस्थ को परिष्कृत बनाकर भद्र पुरुष बनें ।

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    विषय

    पिता पुत्र और स्त्री पुरुष के दृष्टान्त से जीव के लिये समस्त ऐश्वर्य का वर्णन।

    भावार्थ

    (यत्) जिस प्रकार (पुत्रः) पुत्र (पित्रोः जानं अधीयति) माता पिता के पास अपना जन्म ग्रहण करता है (तत्) उसी प्रकार यह (मे) मेरा आत्मा भी (वपुषः वपुः-तरम्) सुन्दर से सुन्दर (जानं छन्त्सत्) जन्म प्राप्त करे। (जाया पतिम्) स्त्री अपने पालक पति को (सुमत् वग्नुना) उत्तम वचन से (वहति) विवाह करती है तब (परिष्कृतः वहतुः) सुशोभित दहेज (पुंसः इत्) पुरुष को ही (भद्रः) कल्याणकारी, सुखदायक होता है। इन दोनों दृष्टान्तों का यही अभिप्राय है कि जैसे सुन्दर पुत्र और विवाहिता स्त्री पुरुष के ही ऐश्वर्य के लिये है उसी प्रकार जीव का जन्म लाभ और ऐश्वर्य सब आत्मा के ही लिये होता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलूष ऋषिः। विश्वेदेवा देवताः। छन्दः- १, २ विराड्जगती। ३ निचृज्जगती ४ पादनिचृज्जगती। ५ आर्ची भुरिग् जगती। ६ त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८, निचृत् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (पित्रोः पुत्रः-यत्-जानम्-अधि-इयति) मातापित्रोः पुत्रो यदा जन्माधिगच्छति धारयति (तत्-इत्-मे-वपुषः-वपुष्टरं छन्त्सत्) तदैव मम गृहस्थस्य सुन्दरस्य सुन्दरतरं सुखं परमात्मा कामयेत (वग्नुना जाया पतिं वहति) अतएव स्तुतिवाण्या भार्या पतिं प्राप्नोति (सुमत् पुंसः-इत्) पुरुषस्य सुहर्षकरं सुखं भवति (भद्रः-वहतुः परिष्कृतः) भजनीयः प्रापणीयो गृहस्थाश्रमस्य सुपरिणामः ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Let it be more and more pleasing for me as soul in body form then when man grows more and more handsome than beauty itself in existence, when the child born of parents carries the family line higher forward, when the wife pleases the husband and exhorts him with sweet words to love and noble thoughts, and it is nice and auspicious for the man to be good and cleansed at heart by love and loyalty.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    पती व पत्नीचा संबंध गृहस्थाश्रम म्हटला जातो. तो संतानाच्या उत्पत्तीसाठी असतो. ते त्याचे खरे सुख आहे. सुयोग्य पत्नी व सुयोग्य पती ईश्वराच्या कृपेने प्राप्त होतात. हेच गृहस्थाचे सुंदर फळ आहे. ॥३॥

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