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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कवष ऐलूष अक्षो वा मौजवान् देवता - अक्षकितवनिन्दा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    द्वेष्टि॑ श्व॒श्रूरप॑ जा॒या रु॑णद्धि॒ न ना॑थि॒तो वि॑न्दते मर्डि॒तार॑म् । अश्व॑स्येव॒ जर॑तो॒ वस्न्य॑स्य॒ नाहं वि॑न्दामि कित॒वस्य॒ भोग॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्वेष्टि॑ । श्व॒श्रूः । अप॑ । जा॒या । रु॒ण॒द्धि॒ । न । ना॒थि॒तः । वि॒न्द॒ते॒ । म॒र्डि॒तार॑म् । अश्व॑स्यऽइव । जर॑तः । वस्न्य॑स्य । न । अ॒हम् । वि॒न्दा॒मि॒ । कि॒त॒वस्य॑ । भोग॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्वेष्टि श्वश्रूरप जाया रुणद्धि न नाथितो विन्दते मर्डितारम् । अश्वस्येव जरतो वस्न्यस्य नाहं विन्दामि कितवस्य भोगम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्वेष्टि । श्वश्रूः । अप । जाया । रुणद्धि । न । नाथितः । विन्दते । मर्डितारम् । अश्वस्यऽइव । जरतः । वस्न्यस्य । न । अहम् । विन्दामि । कितवस्य । भोगम् ॥ १०.३४.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 34; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (श्वश्रूः द्वेष्टि) कितव-जुआ खेलनेवाले की सास द्वेष करती है-आदर नहीं करती है (जाया-अपरुणद्धि) पत्नी उसे नहीं चाहती-अलग हो जाती है (नाथितः-मर्डितारं न विन्दते) जुए के दोष से पीड़ित हुआ सुख देनेवाले को प्राप्त नहीं करता है-कोई उसकी सहायता नहीं करता है (वस्न्यस्य-अश्वस्य-जरतः-इव) मूल्यवान्-बहुमूल्य जराजीर्ण उचित-भोगरहित घोड़े के समान (भोगं न विन्दामि) भोग प्राप्त नहीं करता हूँ (कितवस्य) कौन जुआ खेलनेवाले के लिये भोगपदार्थ दे ॥३॥

    भावार्थ

    जुआ खेलनेवाले के प्रति उसकी सास घृणा करती है। पत्नी उसे नहीं चाहती है। कोई सुख देनेवाला उसे नहीं मिलता। उचित भोगों से वञ्चित रहता है ॥३॥

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    विषय

    घर में निरादर

    पदार्थ

    [१] जुवारी अनुभव करता है कि (श्वश्रूः) = सास (द्वेष्टि) = द्वेष करती है, सास को मेरे से किसी प्रकार की प्रीति नहीं रही (जाया) = पत्नी भी (अपरुणद्धि) = मुझे अपने से दूर ही रोकती है, मुझे अपने समीप नहीं आने देती। (नाथितः) = याचना करता हुआ यह कितव [जुवारी] (मर्डितारम्) = धन की सहायता से सुख देनेवाले को (न विन्दते) = नहीं प्राप्त करता है, अर्थात् अब कोई ऐसा मित्र भी नहीं जिससे कि मैं याचना करूँ और वह मेरी कुछ मदद कर दे। [२] मेरी स्थिति तो ऐसी हो गई है कि (इव) = जैसे (जरतः) = बूढ़े कार्य के लिये अनुपयुक्त (वस्न्यस्य) = मूल्यार्ह - मूल्य के योग्य, अर्थात् बेच देने योग्य अश्वस्य घोड़े की हो। ऐसे घोड़े को जैसे चारा व दाना भी उपेक्षितरूप से दिया जाता है, इसी प्रकार (अहम्) = मैं (कितवस्य भोगम्) = जुवारी के धन को, भोग्य पदार्थ को (न विन्दामि) = नहीं प्राप्त करता हूँ, अर्थात् मुझे घर में खान-पान भी ठीक रूप में नहीं प्राप्त होता ।

    भावार्थ

    भावार्थ- पराजित जुवारी को घर में किसी से भी प्रेम व आदर प्राप्त नहीं होता, इसके खान-पान का भी कोई ध्यान नहीं करता ।

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    विषय

    जूए के दुष्परिणाम। जूआख़ोर का अपने सम्बन्धी जनों से द्वेष, कलह और उसके प्रति सबकी तरफ से उपेक्षा।

    भावार्थ

    जूए के दुष्परिणाम। जो जुआरी जूए में सर्वस्व खो चुकता है उससे (श्वश्रूः) उसकी सास भी (द्वेष्टि) द्वेष करती है। (जाया अप रुणद्धि) स्त्री भी विरक्त होजाती है। (नाथितः) संतापित, दुःखित होकर भी (मर्डितारं न विन्दते) वह किसी को अपने पर कृपालु, दयालु, सुखदाता नहीं पाता वा मांगने वाला होकर भी किसी से धन नहीं पाता। ठीक है, (जरतः अश्वस्य- इव) बूढ़े घोड़े के समान और (जरतः वस्न्यस्य) फटे पुराने वस्त्र के समान (अहं) मैं भी (कितवस्य) जुआरी होने का (भोगं न विन्दामि) अब सुख और रक्षा नहीं पाता हूं।

    टिप्पणी

    अश्व्यं, वस्न्यं इति स्वा यः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कवष ऐलुषोऽक्षो वा मौजवान् ऋषिः। देवताः- १, ७, ९, १२, १३ अक्षकृषिप्रशंसा। २–६, ८, १०, ११, १४ अक्षकितवनिन्दा। छन्द:- १, २, ८, १२, १३ त्रिष्टुप्। ३, ६, ११, १४ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ५, ९, १० विराट् त्रिष्टुप्। ७ जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (श्वश्रूः द्वेष्टि) कितवस्य श्वश्रूस्तं द्वेष्टि नाद्रियते (जाया-अपरुणद्धि) जाया तं कितवं न वाञ्छति ततोऽपगता भवति (नाथितः-मर्डितारं न विन्दते) तद्वोषेण पीडितः सन् सुखयितारं न प्राप्नोति न लभते न कश्चित् साहाय्यं ददाति (वस्न्यस्य-अश्वस्य जरतः-इव) मूल्यार्हस्य बहुमूल्यस्य जरागतस्याश्वस्येव स्थितोऽहं यथा जरागतो बहुमूल्यवान् भोगपदार्थमुचितं न लभते तद्वत् स्थितोऽहं कुतश्चिदपि (भोगं न विन्दामि) भोगं न लभे यतः (कितवस्य) कः कितवस्य भोगं दद्यात् ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Normally speaking, the wife of a gambler feels indifferent and alienated from him, the mother-in-law hates him, the wretched man finds no friends’ sympathy, there is none to comfort him. Like an old, exhausted, broken horse, though he might have been valuable otherwise, no one bids for him. I set no value upon the gambler. Who would?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जुगाऱ्याची सासू त्याची घृणा करते. पत्नीला तो आवडत नाही. कोणी त्याला सुख देणारे नसते. उचित भोगांपासून तो वंचित होतो. ॥३॥

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