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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 42 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 42/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कृष्णः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वां जना॑ ममस॒त्येष्वि॑न्द्र संतस्था॒ना वि ह्व॑यन्ते समी॒के । अत्रा॒ युजं॑ कृणुते॒ यो ह॒विष्मा॒न्नासु॑न्वता स॒ख्यं व॑ष्टि॒ शूर॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । जनाः॑ । म॒म॒ऽस॒त्येषु॑ । इ॒न्द्र॒ । स॒म्ऽत॒स्था॒नाः । वि । ह्व॒य॒न्ते॒ । स॒म्ऽई॒के । अत्र॑ । युज॑म् । कृ॒णु॒ते॒ । यः । ह॒विष्मा॑न् । न । असु॑न्वता । स॒ख्यम् । व॒ष्टि॒ । शूरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वां जना ममसत्येष्विन्द्र संतस्थाना वि ह्वयन्ते समीके । अत्रा युजं कृणुते यो हविष्मान्नासुन्वता सख्यं वष्टि शूर: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम् । जनाः । ममऽसत्येषु । इन्द्र । सम्ऽतस्थानाः । वि । ह्वयन्ते । सम्ऽईके । अत्र । युजम् । कृणुते । यः । हविष्मान् । न । असुन्वता । सख्यम् । वष्टि । शूरः ॥ १०.४२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 42; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 22; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्ययुक्त परमात्मन् ! (त्वाम्) तुझे (सन्तस्थानाः-जनाः) स्पर्धा में स्थित विरोधी जन (ममसत्येषु) मेरा सत्य कर्तव्य है जिन प्रसङ्गों में, उनमें, तथा (समीके) संग्राम में (वि ह्वयन्ते) विशेषरूप से आह्वान करते हैं (अत्र) इनमें-वहाँ (शूरः) वह प्राप्त होनेवाला परमात्मा (युजं कृणुते) मुझे सहयोगी सखा बनाता है (यः-हविष्मान्) आत्मसमर्पण कर चुका या करता है, ऐसे स्तुति करनेवाले को परमात्मा मित्र बनाता है और (असुन्वता सख्यं न वष्टि) जो उपासनारस का सम्पादन नहीं करता उसके साथ परमात्मा मित्रता नहीं चाहता ॥४॥

    भावार्थ

    मानव के सामने आनेवाले विरोधी जन संघर्ष लेने के लिए आह्वान करें। संग्राम में भले ही धकेलना चाहें, परन्तु उपासक-परमात्मा की स्तुति करनेवाले को घबराने की आवश्यकता नहीं। उसकी सहायता परमात्मा करता है ॥४॥

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    विषय

    हविष्मान् का मित्र 'प्रभु'

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = शत्रुओं का संहार करनेवाले प्रभो ! (समीके) = संग्राम में (सन्तस्थाना:) = सम्यक् स्थित हुए - हुए (जनाः) = लोग (मम सत्येषु) = ' मेरा पक्ष सत्य है, मेरा पक्ष सत्य है' इस प्रकार के विचारवाले संग्रामों में (त्याम्) = आपको (विह्वयन्ते) = पुकारते हैं। दोनों ही पक्ष अपने को सत्य पर आरूढ़ समझ रहे होते हैं। दोनों में कोई भी अपने को गलती में नहीं समझता। [२] (अत्रा) = इस प्रकार के विचारवाले ने इन संग्रामों के उपस्थित होने पर (यः हविष्मान्) = जो हविवाला होता है, त्याग की वृत्तिवाला होता है, वही उस प्रभु को (यजुं कृणुते) = अपना साथी बना पाता है। (असुन्वता) = अयज्ञशील पुरुष के साथ (शूरः) = सब शत्रुओं के शीर्ण करनेवाले वे प्रभु (सख्यम्) = मित्रता को (न वष्टि) = नहीं चाहते हैं । त्याग की वृत्ति ही वस्तुतः मनुष्य को असत्य से ऊपर उठाकर सत्यपक्ष में स्थापित करती है और प्रभु इस सत्यपक्षवाले को ही विजयी बनाते हैं। संग्रामों में विजय उन्हीं की होती है जो (हविष्मान्) = बनते हैं, जिस जाति में त्याग की भावना नहीं वह अवश्य पराजित हो जाती है।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम हविष्मान् बनें, प्रभु हमें विजयी बनायेंगे ।

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    विषय

    विवाद के अवसर पर राजा शासक की पुकार। युद्धादि में सेनापति की आवश्यकता, उसके समान सर्वत्र प्रभु के सहाय की आवश्यकता। उपासक को प्रभु प्रेम करता है।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शत्रु के नाशक ! (जनाः) लोग (त्वा) तुझको (मम-सत्येषु) मेरा कथन सत्य है, प्रतिवादी का नहीं, इस प्रकार के वाद-विवाद के अवसरों में भी (वि ह्वयन्ते) विशेष आदर से बुलाते हैं, और तुझको (समीके सं तस्थानाः वि ह्वयन्ते) युद्ध में जाते हुए तुझे ही पुकारते हैं। (अत्र) इस अवसर में भी (यः) जो मनुष्य (हविष्मान्) उत्तम हवि, अन्न, उत्तम वचन और उत्तम साधनों से युक्त होता है वही (त्वां युजं कृणुते) तुझे अपना सहयोगी बना लेता है। क्योंकि (असुन्वता) प्रार्थना, उपासना न करने वाले के साथ (शूरः) वह शूरवीर (सख्यं न वष्टि) मित्रता करना नहीं चाहता।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः कृष्णः। इन्द्रो देवता॥ छन्द:–१, ३, ७-९, ११ त्रिष्टुप्। २, ५ निचृत् त्रिष्टुम्। ४ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६, १० विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (त्वाम्) त्वां खलु (सन्तस्थानाः-जनाः) साम्मुख्ये स्थिता विरोधिनो जनाः (ममसत्येषु) मम सत्यं येषु कर्त्तव्यं स्यादिति प्रसङ्गेषु, अपि वा (समीके) सम्यक् प्राप्ते संग्रामे “समीके संग्रामनाम” [निघ० २।१७] (विह्वयन्ते) विशिष्टतयाऽऽह्वयन्ति (अत्र) अस्मिन् तत्र (शूरः) सः प्रापणशीलः परमात्मा (युजं कृणुते) सहयोगिनं सखायं करोति (यः-हविष्मान्) आत्मसमर्पणं कृतवान् स्तुतिं कृत्वा (असुन्वता सख्यं न वष्टि) उपासनारसमसम्पादयता सह स मित्रत्वं नेच्छति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, people invoke you for help in contests of righteousness and call upon you while they march to the battle. Here too, however, he alone wins his help who offers faith and yajna, because the mighty one does not love, nor recognise, the friendship of the selfish and the non-performer of Soma-yajna.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसासमोर येणाऱ्या विरोधी लोकांनी संघर्षासाठी आह्वान केल्यास व संग्रामात ढकलून दिल्यास उपासकाला घाबरण्याची गरज नाही. त्याचे साह्य परमात्मा करतो. ॥४॥

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