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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 45/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वत्सप्रिः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒शिक्पा॑व॒को अ॑र॒तिः सु॑मे॒धा मर्ते॑ष्व॒ग्निर॒मृतो॒ नि धा॑यि । इय॑र्ति धू॒मम॑रु॒षं भरि॑भ्र॒दुच्छु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॒ द्यामिन॑क्षन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒शिक् । पा॒व॒कः । अ॒र॒तिः । सु॒ऽमे॒धाः । मर्ते॑षु । अ॒ग्निः । अ॒मृतः॑ । नि । धा॒यि॒ । इय॑र्ति । धू॒मम् । अ॒रु॒षम् । भरि॑भ्रत् । उत् । शु॒क्रेण॑ । शो॒चिषा॑ । द्याम् । इन॑क्षन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उशिक्पावको अरतिः सुमेधा मर्तेष्वग्निरमृतो नि धायि । इयर्ति धूममरुषं भरिभ्रदुच्छुक्रेण शोचिषा द्यामिनक्षन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उशिक् । पावकः । अरतिः । सुऽमेधाः । मर्तेषु । अग्निः । अमृतः । नि । धायि । इयर्ति । धूमम् । अरुषम् । भरिभ्रत् । उत् । शुक्रेण । शोचिषा । द्याम् । इनक्षन् ॥ १०.४५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 45; मन्त्र » 7
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (उशिक्) जीवों के लिए कल्याण कामना करनेवाला (पावकः) तथा पवित्रकर्त्ता (अरतिः) सर्वत्र व्यापक या भोगरति से रहित (सुमेधाः) शोभनबुद्धिवाला सर्वज्ञ (मर्तेषु-अमृतः-अग्निः-निधायि) मरणधर्मी प्राणियों में अमृत-मरणधर्मरहित ज्ञानस्वरूप परमात्मा निहित है (अरुषं धूमम्-इयर्ति) अज्ञाननिवारक प्रकाश को प्रेरित करता है (शुक्रेण शोचिषा द्याम्-इनक्षन्-भरिभ्रत्) शुभ्र प्रकाश से मोक्षधाम को व्याप्त होता हुआ धारण करता है ॥७॥

    भावार्थ

    परमात्मा प्राणियों की कल्याण कामना करता हुआ सबके अन्दर व्यापक होकर जीवनप्रकाश प्रदान करता है और विशिष्ट मनुष्यों को मोक्ष की ओर भी प्रेरित करता है ॥७॥

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    विषय

    हितचिन्तक व पावक

    पदार्थ

    [१] (उशिक्) = [वष्टेः कान्तिकर्मणः ] यह सबके भले की कामनावाला होता है, (पावक:) = अपने जीवन को पवित्र बनाकर औरों को भी पवित्र जीवनवाला बनाने का यत्न करता है। (अरतिः) = विषयों में रति व आसक्तिवाला नहीं होता। (सुमेधाः) = उत्तम बुद्धिवाला व [मेध यज्ञ] उत्तम यज्ञोंवाला होता है। [२] यह (अग्निः) = प्रगतिशील जीवनवाला (अमृतः) = विषयों के पीछे न मरनेवाला व्यक्ति (मर्तेषु) = विषयों के पीछे मरनेवाले, आसक्तिवाले पुरुषों में, (निधायि) = प्रभु के द्वारा ही स्थापित किया जाता है । यह उनमें रहता हुआ अपने क्रियात्मक जीवन से व ज्ञान - ज्योति से उनके जीवन को उन्नत करने का प्रयत्न करता है। (इयर्ति) = इसी उद्देश्य से यह गतिवाला होता है, बड़ा क्रियाशील होता है। (धूमम्) = विषय-वासनाओं का कम्पित करके दूर करनेवाले (अरुषम्) = आरोचमान, समन्तात् दीप्त, ज्ञान को (भरिभ्रत्) = यह धारण करता है और (उत्) = विषयासक्ति से ऊपर उठकर (शुक्रेण शोचिषा) = दीप्त [ शुच्] व क्रियामय [ शुक् गतौ] ज्ञानदीप्ति से यह (द्यां इनक्षन्) = सारे द्युलोक को व्याप्त कर देता है। यह सर्वत्र इस ज्ञान को फैलानेवाला बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम स्वयं उच्च व दीप्त जीवनवाले बनकर ज्ञान-प्रसार द्वारा सबका हित करने की कामनावाले हों।

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    विषय

    तेजस्वी राजा के कर्त्तव्य

    भावार्थ

    वह राजा (पावकः) सब को पवित्र करने वाला, (उशिक्) सब को स्नेह से चाहने वाला, (अरतिः) महान् ज्ञानी, सब का स्वामी, वा असंसक्त (सु-मेधाः) उत्तम बुद्धिमान्, शक्तिशाली, यज्ञशील अन्नादि सम्पन्न, (अग्निः) सर्वनायक, प्रकाशक, ज्ञानी, (मर्तेषु) मरणधर्मा मनुष्यों में (अमृतः) अविनाशी रूप (नि धायि) स्थापित हो वह (अरुषम्) सब प्रकार से प्रकाशमान, तेजोमय रूप को (भरिभ्रत्) धारण करता हुआ, (धूमम् इयर्त्ति) शत्रु को कंपा देने वाले सैन्य बल को संचालित करे, और (शुक्रेण शोचिषा) शुद्ध कान्ति से (द्याम् इनक्षन्) आकाश को सूर्यवत् समाज में शिरोभाग रूप सभा को शोभित करे। अध्यात्म में—आत्मा, विराट् शरीर में सूर्य, जगत् में परमेश्वर और कुण्ड में अग्नि और राष्ट्र में राजा का इस मन्त्र में समान रूप से वर्णन है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वत्सप्रिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१—५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९-१२ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (उशिक्) जीवानां कल्याणं कामयमानः (पावकः) पवित्रीकर्त्ता (अरतिः) सर्वत्र व्याप्तो भोगरहितो वा (सुमेधाः) शोभनप्रज्ञः सर्वज्ञः (मर्तेषु-अमृतः-अग्निः निधायि) मरणधर्मकेषु प्राणिषु खल्वमृतो मरणधर्मरहितोऽग्निर्ज्ञानस्वरूपः परमात्मा निधीयते निहितो-ऽन्तर्हितोऽस्ति (अरुषं धूमम्-इयर्ति) आरोचमानं प्रकाशं धूनयितारमज्ञाननिवारकं प्रेरयति (शुक्रेण शोचिषा द्याम्-इनक्षन् भरिभ्रत्) शुभ्रेण प्रकाशेन मोक्षधाम “पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि” [ऋ १०।९०।३] “इनक्षन्-व्याप्नुवन्” [यजु० १२।२४ दयानन्दः] व्याप्नुवन्, बिभर्ति धारयति ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Charming, purifying, dynamic, inspiring the mind and intelligence to acts of holiness, immortal Agni pervades in all mortal forms of nature and humanity. It bears and emanates light, sets in motion free fragrance for life and, with powerful pure light, fills the heavens of space.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा प्राण्यांच्या कल्याणासाठी कामना करत सर्वांत व्यापक होऊन जीवन प्रकाश प्रदान करतो व विशिष्ट माणसांना मोक्षाकडेही प्रेरित करतो. ॥७॥

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