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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 45 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 45/ मन्त्र 9
    ऋषिः - वत्सप्रिः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यस्ते॑ अ॒द्य कृ॒णव॑द्भद्रशोचेऽपू॒पं दे॑व घृ॒तव॑न्तमग्ने । प्र तं न॑य प्रत॒रं वस्यो॒ अच्छा॒भि सु॒म्नं दे॒वभ॑क्तं यविष्ठ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ते॒ । अ॒द्य । कृ॒णव॑त् । भ॒द्र॒ऽशो॒चे॒ । अ॒पू॒पम् । दे॒व॒ । घृ॒तऽव॑न्तम् । अ॒ग्ने॒ । प्र । तम् । न॒य॒ । प्र॒ऽत॒रम् । वस्यः॑ । अच्छ॑ । अ॒भि । सु॒म्नम् । दे॒वऽभ॑क्तम् । य॒वि॒ष्ठ॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्ते अद्य कृणवद्भद्रशोचेऽपूपं देव घृतवन्तमग्ने । प्र तं नय प्रतरं वस्यो अच्छाभि सुम्नं देवभक्तं यविष्ठ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । ते । अद्य । कृणवत् । भद्रऽशोचे । अपूपम् । देव । घृतऽवन्तम् । अग्ने । प्र । तम् । नय । प्रऽतरम् । वस्यः । अच्छ । अभि । सुम्नम् । देवऽभक्तम् । यविष्ठ ॥ १०.४५.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 45; मन्त्र » 9
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (भद्रशोचे यविष्ठ देव-अग्ने) हे कल्याणदीप्तिवाले ! अत्यन्तसङ्गमनीय ! परमात्मदेव ! (ते) तेरे लिए (अद्य) इस वर्तमान काल में या जीवन में (यः) जो उपासक (घृतवन्तम्-अपूपं कृणवत्) संयम द्वारा इन्द्रियगण को तेजस्वी बनाता है (तं प्रतरं वस्यः-अभि-अच्छ सुम्नं देवभक्तं प्र नय) उस उपासक जन को प्रकृष्टतर, श्रेष्ठ, अत्यन्त बसनेवाला, प्रशंसनीय, धनैश्वर्यरूप, मुमुक्षुओं के द्वारा भजनीय सुखविशेष-मोक्ष के प्रति प्रेरित कर-ले जा ॥९॥

    भावार्थ

    परमात्मा का ज्ञानप्रकाश कल्याणकारी है, वह समागम के योग्य है। जो उपासक संयम द्वारा अपनी इन्द्रियों को तेजस्वी बना लेता है, उसे परमात्मा सांसारिक सुख भोगों से उत्कृष्ट सुखविशेषरूप मोक्ष को प्राप्त कराता है ॥९॥

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    विषय

    घृतवाला अपूप

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र में ' आचार्य ने विद्यार्थी को बनाना है' इस बात का संकेत था । उसी को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि हे (भद्रशोचे) = कल्याणकर ज्ञान दीप्तिवाले, (देव) = दिव्यगुणों को अपनानेवाले (अग्ने) = आगे और आगे बढ़नेवाले ब्रह्मचारिन् ! (यः) = जो आचार्य (ते) = तेरे लिये घृतवन्तम्-मलों के क्षरण व ज्ञान की दीप्ति के कारणभूत [घृ-क्षरण - दीप्त्योः] (अपूपम्) = [ न पूयते] न अपवित्र होनेवाले, अपितु पवित्रता के साधनभूत इस ज्ञान के ओदन को [= भोजन को] (कृणवत्) = करता है, (तं अच्छ) = उसकी ओर (प्रतरम्) = अत्यन्त उत्कृष्ट (वस्यः) = निवास के लिये उपयोगी (वसु) = धन को (प्रणय) = प्राप्त करा । ज्ञान देनेवाले आचार्य को उत्तम से उत्तम गुरु दक्षिणा देनी ही चाहिए। वह आचार्य विद्यार्थी के लिये ज्ञानरूप भोजन को पकाता है । अथर्व० ९ । २ । ३७ में 'पचत पञ्च औदनान्' इन शब्दों में पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के लिए पाँच ओदनों के, ज्ञान भोजनों के पचन का संकेत है। [२] इस प्रकार आचार्य से ज्ञान को प्राप्त करके हे (यविष्ठ) = बुराइयों को अपने से दूर करनेवाले और अच्छाइयों को अपने से संगत करनेवाले विद्यार्थिन् ! तू (देवभक्तम्) = देवों से सेवित, देववृत्तिवाले पुरुषों से जीवन में लाये गये (सुम्नम्) = [hymen ] प्रभु के स्तोत्रों की (अभि) = ओर (प्रणय) = अपने को ले चल । तेरा यह जीवन प्रभु के सम्पर्क में चले। प्रभु सम्पर्क ही जीवन को सशक्त व सुन्दर बनाये रखता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम आचार्यों से उस ज्ञान को, भोजन को प्राप्त करें जो कि सब प्रकार के मलों को दूर करके हमें पवित्र जीवनवाला बनाता है। आचार्यों को गुरुदक्षिणा प्राप्त कराके हम उपासक बनकर संसार में चलें ।

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    विषय

    उसका सुख-प्राप्ति के निमित्त परिसेवन।

    भावार्थ

    हे (भद्र-शोचे) सुखदायक कल्याणकारक कान्ति से युक्त ! हे (देव) सुखप्रद ! तेजस्विन् ! (अद्य) आज (यः) जो (ते) तेरे लिये (घृतवन्तं अपूपं कृणवत्) घृत जलादि से युक्त अन्न करता है तू (तम् प्रनय) उसको उत्तम सुख प्राप्त करा और (तम्) उसको (अच्छ वस्यः प्रतरं नय) उत्तम २ ऐश्वर्य भी खूब प्रदान कर। हे (यविष्ठ) बलवन् ! और (देव-भक्तम्) प्राणों से सेवने योग्य (सुम्नम् अभि नय) सब प्रकार से सुख प्रदान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वत्सप्रिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:—१—५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९-१२ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (भद्रशोचे यविष्ठ देव-अग्ने) हे कल्याणदीप्तिक ! अतिसङ्गतिशील ! ज्ञानप्रकाशक परमात्मदेव ! (ते) तुभ्यम् (अद्य) अस्मिन् वर्तमाने काले जन्मनि वा (यः) यः खलूपासकः (घृतवन्तम्-अपूपं कृणवत्) स यमेन तेजस्विनं खल्विन्द्रियगणम् “इन्द्रियमपूपः” [ऐ० २।२४] करोति (तं प्रतरं वस्यः-अभि-अच्छ-सुम्नं देवभक्तं प्र नय) तमुपासकं जनमतिप्रकृष्टं श्रेष्ठं वसुतरं वासयितृतरं प्रशंसनीयधनैश्वर्यरूपं सुम्नं सुखविशेषं देवैर्भजनीयमभिमोक्षं प्रति “सुम्नं सुखनाम” [निघ० ३।६] प्रेरय-प्रगमय ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, holy light of life, self-refulgent generous divinity, whoever the dedicated celebrant of the divine that prepares and offers you homage and yajna with perfect discipline of mind and sense, pray bless him, O power ever youthful, with honour and excellence of high order and the peace and comfort of a happy home.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याचा ज्ञानप्रकाश कल्याणकारी आहे. तो समागमाच्या योग्य आहे. जो उपासक संयमाद्वारे आपल्या इंद्रियांना तेजस्वी बनवितो. त्याला परमात्मा सांसारिक भोगापेक्षा उत्कृष्ट सुख विशेषकरून मोक्ष प्राप्त करवितो. ॥९॥

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