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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 54/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    क उ॒ नु ते॑ महि॒मन॑: समस्या॒स्मत्पूर्व॒ ऋष॒योऽन्त॑मापुः । यन्मा॒तरं॑ च पि॒तरं॑ च सा॒कमज॑नयथास्त॒न्व१॒॑: स्वाया॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    के । ऊँ॒ इति॑ । नु । ते॒ । म॒हि॒मनः॑ । स॒म॒स्य॒ । अ॒स्मत् । पूर्वे॑ । ऋष॑यः । अन्त॑म् । आ॒पुः॒ । यत् । मा॒तर॑म् । च॒ । पि॒तर॑म् । च॒ । सा॒कम् । अज॑नयथाः । त॒न्वः॑ । स्वायाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    क उ नु ते महिमन: समस्यास्मत्पूर्व ऋषयोऽन्तमापुः । यन्मातरं च पितरं च साकमजनयथास्तन्व१: स्वाया: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    के । ऊँ इति । नु । ते । महिमनः । समस्य । अस्मत् । पूर्वे । ऋषयः । अन्तम् । आपुः । यत् । मातरम् । च । पितरम् । च । साकम् । अजनयथाः । तन्वः । स्वायाः ॥ १०.५४.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 54; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ते समस्य महिमनः) तेरे सब महत्त्व के (अन्तं के-उ-नु-अस्मत्-पूर्वे-ऋषयः-आपुः) पार को कौन हमसे पूर्ववर्ती ज्ञानी-तत्त्वदर्शी प्राप्त कर सके हैं ? अर्थात् कोई नहीं, (स्वायाः-तन्वः) स्व व्यापनशक्ति से या अव्यक्त प्रकृति से (यत्-मातरं च पितरं च साकम्-अजनयथाः) जो पृथिवी और द्युलोक को साथ ही तूने उत्पन्न किया है ॥३॥

    भावार्थ

    परमात्मा के महत्त्व का पूर्णरूप से कोई पार नहीं पा सकता कि उसने अपनी व्यापक शक्ति से तथा अव्यक्त प्रकृति से द्युलोक और पृथिवीलोक को-प्रकाशक और प्रकाश्य लोकों को कैसे बनाया है ! ॥३॥

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    विषय

    प्रजापति का अपने में से जगत्-सर्ग रचना। प्रजापति के आधे २ देह से नर नारी की उत्पत्ति का रहस्य।

    भावार्थ

    हे ऐश्वर्यवन्! प्रभो ! (के उ नु ऋषयः) वे कौन से तत्वदर्शी मन्त्रद्रष्टा जन हैं जो (अस्मत् पूर्वे) हम से पूर्व होकर भी (ते समस्य महिमनः) तेरी समस्त महिमा के (अन्तम् आपुः) अन्त तक पहुंचे हों। कोई भी तेरे महान् सामर्थ्य का पार न पा सके ? (यत्) क्योंकि तू ही (मातरं च पितरं च) माता और पिता, सूर्य और भूमि दोनों को (स्वायाः तन्वः) अपने देह में से एक साथ ही (अजनयथाः) उत्पन्न करता है। प्रजापति ने अपने देह को गिरा कर उसे ही स्त्री-पुरुष दो खण्ड में किया, ऐसा वृहदारण्यक का वचन है। और इसी अपनी हिरण्यगर्भतनु में से आकाश भूमि रचे ऐसा वेद स्वयं कहता है। ये वचन विचारने योग्य हैं। इनका तात्पर्य यह है कि उस परमात्मा में मातृपितृ दोनों शक्तियां विद्यमान हैं। इसी प्रकार आत्मा में ही मातृदेह और पितृदेह दोनों को रचने का सामर्थ्य है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहदुक्थो वामदेव्यः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ६ त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    महिमा का आनन्त्य

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (ते) = आपकी (समस्य) = सम्पूर्ण (महिमनः) = महिमा के (अन्तम्) = अन्त को (नु) = अब (अस्मात्) = हमारे में से (के) = कौन (पूर्वे) = अपने जीवन में पूर्ति को लाने का प्रयत्न करनेवाले (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा लोग (उ) = निश्चय से (आपुः) = प्राप्त कर पाते हैं । अर्थात् बड़े-से-बड़े तत्त्वज्ञानी भी आपकी महिमा को पूर्णतया माप नहीं सकते। आपकी अनन्त महिमा के अन्त पाने का सम्भव हो ही कैसे सकता है ? [२] (यत्) = जो आप (स्वायाः तन्वः) = अपने इस प्रकृति-रूप शरीर से (मातरं च पितरं च) = पृथिवी रूप माता को और द्युलोक रूप पिता को (साकम्) = साथ-साथ (अजनयथाः) = उत्पन्न करते हैं। मनु के शब्दों में प्रभु ने एक सूर्य के समान देदीप्यमान हैम अड को पैदा किया और 'स्वयमेवात्मनो ध्यानात् तदण्डमकरोद् द्विधा । ताभ्यां स शकलाभ्यां च दिवं भूमिं च निर्ममे' [१ । १८] ध्यान के द्वारा उस अण्ड को दो भागों में बाँटकर द्युलोक व पृथ्वीलोक को बना दिया । प्रकृति उपादान है, तो प्रभु इस ब्रह्माण्ड जाल के निमित्तकारण हैं । इस ब्रह्माण्ड का एक-एक लोक प्रभु की महिमा का प्रतिपादन करता है। पृथ्वी से किस प्रकार विविध गन्धों रूपों व रसों को लिये हुए फल-फूल उत्पन्न होते हैं ? द्युलोक को किस प्रकार देदीप्यमान नक्षत्र शोभा से युक्त कर रहे हैं ? इन सब में प्रभु की महिमा का स्मरण होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- उस प्रभु की महिमा अनन्त है। प्रभु इस प्रकृति से भूमि व द्युलोक का अद्भुत निर्माण करते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ते समस्य महिमनः) तव सर्वस्य महिम्नः-महत्त्वस्य ‘उपधाया अकारस्य लोपाभावश्छान्दसः’ (अन्तं के-उ-नु अस्मत्-पूर्वे-ऋषयः-आपुः) पारं के हि वितर्कनी-यमेतत् ‘नु वितर्के’ [अव्ययार्थनिबन्धनम्) अस्मत्तः पूर्वे द्रष्टारः ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शकाः प्राप्नुयुः, न केऽपीत्यर्थः (स्वायाः तन्वः) स्वव्यापनशक्तितोऽव्यक्त- प्रकृतितो वा (यत्-मातरं च पितरं च साकम्-अजनयथाः) यत् पृथिवीं च दिवं च “द्यौर्मे पिता माता…पृथिवी महीयम्” [ऋ० १।१६४।३३] साकं सहैव त्वमुत्पादयसि ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Which ancient sages and seers before us could ever comprehend the bounds of this absolute glory of yours since you brought into existence both earth and heaven together as mother and father of life from your own material power of Prakrti?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याची महानता पूर्णरूपाने कोणीही जाणू शकत नाही, की त्याने आपल्या शक्तीने व अव्यक्त प्रकृतीद्वारे द्युलोक व पृथ्वीलोकाला -प्रकाशक व प्रकाश्य लोक कसे बनविलेले आहेत. ॥३॥

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