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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 54 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 54/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वृहदुक्थो वामदेव्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वं विश्वा॑ दधिषे॒ केव॑लानि॒ यान्या॒विर्या च॒ गुहा॒ वसू॑नि । काम॒मिन्मे॑ मघव॒न्मा वि ता॑री॒स्त्वमा॑ज्ञा॒ता त्वमि॑न्द्रासि दा॒ता ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । विश्वा॑ । द॒धि॒षे॒ । केव॑लानि । यानि॑ । आ॒विः । या । च॒ । गुहा॑ । वसू॑नि । काम॑म् । इत् । मे॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । मा । वि । ता॒रीः॒ । त्वम् । आ॒ऽज्ञा॒ता । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒सि॒ । दा॒ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं विश्वा दधिषे केवलानि यान्याविर्या च गुहा वसूनि । काममिन्मे मघवन्मा वि तारीस्त्वमाज्ञाता त्वमिन्द्रासि दाता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । विश्वा । दधिषे । केवलानि । यानि । आविः । या । च । गुहा । वसूनि । कामम् । इत् । मे । मघऽवन् । मा । वि । तारीः । त्वम् । आऽज्ञाता । त्वम् । इन्द्र । असि । दाता ॥ १०.५४.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 54; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मघवन्) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (त्वम्) तू (विश्वा केवलानि वसूनि मे) मेरे लिये सरे विशिष्ट धनों को (यानि-आविः-या च गुहा दधिषे) जो प्रसिद्ध-प्रत्यक्ष हैं और जो गुप्त-परोक्ष हैं, उनको धारण करता है (कामम् इत्-मा वितारीः) उन में से तू कमनीय धन को विनष्ट न कर अपितु (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्वम्-आज्ञाता त्वं दाता-असि) तू समर्थ-सम्पन्न करनेवाला दाता है ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा समस्त धनों-ऐश्वर्यों का स्वामी है, चाहे वे प्रसिद्ध-प्रत्यक्ष धन हों या इन्द्रियों से भोगने योग्य हों या गुप्त हों-मन आत्मा से भोगने योग्य हों। उनमें से परमात्मा यथाधिकार कमनीय धन को प्रदान करता है ॥५॥

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    विषय

    प्रभु से ऐश्वर्य-याचना। इन्द्र की वेदोक्त व्युत्पत्ति।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! (त्वम्) तू (विश्वा) समस्त, (केवलानि) असाधारण, अपने आप स्वयं धारण करने योग्य, (वसूनि) ऐश्वर्यों को धारण कर रहा है (या च गुहा) जो अभी अप्रकट गुप्त रूप में है, और (यानि आविः) जो प्रकट भी हैं हे (मघवन्) ऐश्वर्यवन् ! तू (मे कामम् इत्) मेरे अभिलाष को ही कभी (मा वि तारीः) विनष्ट न होने दे, प्रत्युत (त्वम् आज्ञाता) तू ही आज्ञा देने वाला, अध्यक्ष है और हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू ही (दाता असि) देने हारा है।

    टिप्पणी

    अस्य दाता इति इन्द्रः। इदम् राति इति वा इन्द्रः।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहदुक्थो वामदेव्यः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१, ६ त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ३, ४ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ षडृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    वसु [धन]

    पदार्थ

    [१] हे (मघवन्) = सर्वैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप (विश्वा) = सम्पूर्ण (केवलानि) = जिनके कारण आनन्द में विचरण होता है [के वलते] अथवा जो असाधारण हैं, (यानि आहि:) = जो प्रकट हैं या (च गुहा) = और जो गुहा निहित हैं, अप्रकट हैं, उन सब (वसूनि) = निवास के लिये उपयोगी ऐश्वर्यों व पदार्थों को (दधिषे) = धारण करते हैं। सम्पूर्णो ऐश्वर्यों के निधान प्रभु हैं। चाहे वे ऐश्वर्य इस वसुन्धरा से उत्पन्न होकर प्रकट हो रहे हैं और चाहे इसके गर्भ में अप्रकट रूप से रखे हुए हैं । अन्न इत्यादि के रूप में प्रकट वसु हैं तथा आकरों में निहित स्वर्ण रजत आदि अप्रकट वसु हैं । [२] हे मघवन् ! आप (मे) = मेरी (कामम्) = अभिलाषा को (मा वितारी:) = मत हिंसित करिये, अर्थात् उसे अवश्य पूर्ण करिये। आपकी कृपा से मैं सब आवश्यक वसुओं को प्राप्त करनेवाला बनूँ । हे प्रभो ! (त्वं आज्ञाता) = आप ही आज्ञा देनेवाला हैं, आपके निर्देश में ही सारा ब्रह्माण्ड गति करता है । हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (त्वम्) = आप ही (दाता असि) = सब धनों के देनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही सब वसुओं के निधान हैं। वे ही सब वसुओं के आज्ञाता व दाता हैं। वे ही हमारी इच्छाओं को पूर्ण करते हैं ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मघवन्) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (त्वम्) त्वं खलु (विश्वा केवलानि वसूनि मे) सर्वाणि विशिष्टानि धनानि मह्यम् (यानि-आविः-या च गुहा दधिषे) यानि प्रसिद्धानि प्रत्यक्षाणि यानि च गुप्तानि परोक्षाणि धारयसि (कामम् इत्-मा वितारीः) कमनीयमेव वसुधनं न विनाशय, अपि तु (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (त्वम्-आज्ञाता त्वं दाता-असि) त्वं समर्थयिता दाता च भवसि ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    You bear and absolutely comprehend all the treasures of existence, manifest as well as unmanifest. Pray do not frustrate my longing for fulfilment. Indra, you are the knower, the ordainer and the giver.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा संपूर्ण धन-ऐश्वर्यांचा स्वामी आहे. मग ते प्रत्यक्ष धन असेल किंवा इंद्रियांनी भोगण्यायोग्य असेल, गुप्त असेल किंवा मन आत्म्याद्वारे भोगण्यायोग्य असेल. त्यापैकी परमात्मा यथाधिकार कमनीय धन प्रदान करतो. ॥५॥

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