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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 59/ मन्त्र 8
    ऋषिः - बन्ध्वादयो गौपायनाः देवता - द्यावापृथिव्यौ छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    शं रोद॑सी सु॒बन्ध॑वे य॒ह्वी ऋ॒तस्य॑ मा॒तरा॑ । भर॑ता॒मप॒ यद्रपो॒ द्यौः पृ॑थिवि क्ष॒मा रपो॒ मो षु ते॒ किं च॒नाम॑मत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शम् । रोद॑सी॒ इति॑ । सु॒ऽबन्ध॑वे । य॒ह्वी इति॑ । ऋ॒तस्य॑ । मा॒तरा॑ । भर॑ताम् । अप॑ । यत् । रपः॑ । द्यौः । पृ॒थि॒वि॒ । क्ष॒मा । रपः॑ । मो इति॑ । सु । ते॒ । किम् । च॒न । आ॒म॒म॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शं रोदसी सुबन्धवे यह्वी ऋतस्य मातरा । भरतामप यद्रपो द्यौः पृथिवि क्षमा रपो मो षु ते किं चनाममत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शम् । रोदसी इति । सुऽबन्धवे । यह्वी इति । ऋतस्य । मातरा । भरताम् । अप । यत् । रपः । द्यौः । पृथिवि । क्षमा । रपः । मो इति । सु । ते । किम् । चन । आममत् ॥ १०.५९.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 59; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 23; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सुबन्धवे) अच्छी सन्तान के लिए (यह्वी रोदसी शम्) महत्त्वगुणवाले माता पिता कल्याणकारी होवें (ऋतस्य मातरा) जो उदकसम्बन्ध अर्थात् रजोवीर्य को अपने शरीर में संयम से निर्माण करते हैं, (यत्-रपः-अप भरताम्) जो अपने पाप और अज्ञान को दूर करते हैं-करते हों (द्यौः पृथिवि) हम पिता और माता (क्षमा) क्षमा से-सहनशक्ति से-सरलस्वभाववत्ता से (रपः-किञ्चन ते) पालन और शिक्षण में यदि कोई दोष तेरे लिये हो, तो (मा-उ-सु-आममत्) वह तुझ पुत्र को हिंसित न करे, ऐसा यत्न करेंगे ॥८॥

    भावार्थ

    उत्तम सन्तान की उत्पत्ति के लिए माता पिता अपने शरीर में संयम द्वारा रजवीर्य को सुरक्षित रखें, पाप और अज्ञान से दूर रहें, ज्ञान और सद्गुणों को धारण करें। फिर भी यदि कोई दोष अपने अन्दर हो, तो ऐसा व्यवहार करें, जिससे सन्तान पर उसका प्रभाव न पड़े ॥८॥

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    विषय

    द्यावापृथिवी।

    भावार्थ

    (सु-बन्धवे) सुख के बन्धन वाले, उत्तम सम्बन्ध से युक्त, जीव के हितार्थ, उसकी रक्षा के लिये, (यह्वी रोदसी) महान् भूमि सूर्यवत् वा दो सीमाओं के तुल्य दुर्मार्गों से उसे रोकने बचाने वाले माता पिता गुरु आदि (ऋतस्य मातरा) जल, अन्न, प्रकाश और सत्योपदेश-ज्ञान को देने वाले माता पिता के सदृश (शम्) कल्याणकारी शान्तिदायक हों। हे (द्यौः पृथिवि) हे सूर्यवत् कान्तियुक्त प्रकाश देनेहारे ! पितः। हे (पृथिवि) पृथिवी के तुल्य सर्वाश्रय मातः ! आप दोनों (क्षमा) क्षमाशील होकर (यत् रपः) जो जो भी हमारे पाप हों उनको (अप भरताम्) दूर करो। (ते) तेरा (किंचन) कुछ भी (मो सु आममत्) हमें कष्टदायी न हो।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बन्ध्वादयो गौपायनाः। देवता—१—३ निर्ऋतिः। ४ निर्ऋतिः सोमश्च। ५, ६ असुनीतिः। लिङ्गोक्ताः। ८, ९, १० द्यावापृथिव्यौ। १० द्यावापृथिव्याविन्द्रश्च॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४–६ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् पंक्तिः। ९ जगती। १० विराड् जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'सुबन्धु' का निर्दोष जीवन

    पदार्थ

    [१] (सुबन्धवे) = मन को उत्तमता से बाँधनेवाले तथा मन के द्वारा वीर्य को शरीर में सुरक्षित रखनेवाले मन्त्र के ऋषि सुबन्धु के लिये (रोदसी) = द्युलोक व पृथिवीलोक शम् शान्ति को देनेवाले हों । ये द्युलोक व पृथिवीलोक (यह्वी) = महान् हैं, अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। हमारे जीवनों में इनका अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है, पृथिवी की अनुकूलता से शरीर स्वस्थ रहता है, द्युलोक की अनुकूलता से मस्तिष्क दीप्त बनता है। ये अनुकूल पृथिवीलोक व द्युलोक (ऋतस्य मातरा) = ऋत का निर्माण करनेवाले होते हैं। जो भी चीज ठीक है उसे ये उत्पन्न करते हैं। इस प्रकार ये शरीर को निर्दोष बना देते हैं। [२] (द्यौः) = द्युलोक (यद् रपः) = जो भी दोष है उसे (अपभरताम्) = दूर करे, (पृथिवि) = अन्तरिक्ष दोष को दूर करे, (क्षमा) = यह पृथिवी भी दोष को दूर करे। इस त्रिलोकी की अनुकूलता से हमारा जीवन शरीर, हृदय व मस्तिष्क तीनों ही अध्यात्मलोकों में निर्दोष बने । [३] (किंचन रपः) = कुछ रत्तीभर भी दोष (मा उ) = मत ही (ते) = तेरा (सु अममत्) = हिंसन करे । वस्तुतः बाह्यलोकों व अन्तर्लोकों की अनुकूलता के होने पर दोष उत्पन्न ही नहीं होते और यदि दोष का अंकुर उत्पन्न होने भी लगे तो उसका मूल में ही (प्रारम्भ में ही) उद्बर्हण हो जाता है । उस समय दोष का दूर करना कठिन नहीं होता। उसे आराम से उखाड़कर फेंक दिया जाता है। वृक्ष की तरह बद्धमूल हो जाने पर तो उसे काटने के लिये बड़े-बड़े औषध रूप कुल्हाड़ों की आवश्यकता पड़ेगी ही । सो बुराई को प्रारम्भ में ही समाप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये । इसके लिये सम्पूर्ण वातावरण की अनुकूलता इष्ट है । 'प्रकृति के समीप रहना' ही प्राकृतिक शरीर को स्वस्थ रखता है । अस्वाभाविक खान-पान व रहन-सहन रोगों का जनक होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम मन को भटकने से रोकें, शरीर में वीर्य को बाँधनेवाले हों। इससे द्युलोक व पृथिवीलोक हमारे लिये ऋत [ठीक] चीज का निर्माण करनेवाले होंगे और हमारे जीवन को निर्दोष करेंगे।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सुबन्धवे) सुसन्तानाय (यह्वी रोदसी शम्) महत्त्वगुणवत्यौ द्यावापृथिव्यौ मातापितृभूते कल्याणकारिके भवताम् (ऋतस्य मातरा) यत उदकसम्बन्धस्य निर्मात्र्यौ स्तः (यत्-रपः-अप भरताम्) पापमज्ञानं वा दूरी कुरुताम् (द्यौः पृथिवि) आवां मातापितरौ (क्षमा) क्षमया सहनशक्त्या सरलस्वभाववत्तया (रपः-मा-उ सु किञ्चन ते-आमयत्) पालने शिक्षणे दोषो तुभ्यं भवेत् स किञ्चन त्वां पुत्रं न हिनस्तु, इति इति यत्नं विधास्यावः ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the mighty heaven and earth, mother spirits of truth and waters of life bring peace and joy for the holy child and loving brother of living beings. May the sun and earth, father and mother, make up whatever be wanting in body, mind and spirit and the child’s senses of values. May they strengthen the child against sin and evil and forgive him for his pitfalls in the struggle for self-realisation. O man, may nothing whatever, sin or sorrow, hurt and violate you ever against your self- identity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उत्तम संतान उत्पत्तीसाठी माता-पिता यांनी आपल्या शरीरावर संयम ठेवून रजवीर्य सुरक्षित ठेवावे. पाप व अज्ञानापासून दूर राहावे. ज्ञान व सद्गुण धारण करावे. तरीही जर एखादा दोष आपल्यात असेल तर असा व्यवहार करावा की संतानांवर त्याचा प्रभाव पडता कामा नये. ॥८॥

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