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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 1/ मन्त्र 6
    ऋषिः - आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समदः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वम॑ग्ने रु॒द्रो असु॑रो म॒हो दि॒वस्त्वं शर्धो॒ मारु॑तं पृ॒क्ष ई॑शिषे। त्वं वातै॑ररु॒णैर्या॑सि शंग॒यस्त्वं पू॒षा वि॑ध॒तः पा॑सि॒ नु त्मना॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । रु॒द्रः । असु॑रः । म॒हः । दि॒वः । त्वम् । शर्धः॑ । मारु॑तम् । पृ॒क्षः । ई॒शि॒षे॒ । त्वम् । वातैः॑ । अ॒रु॒णैः । या॒सि॒ । श॒म्ऽग॒यः । त्वम् । पू॒षा । वि॒ध॒तः । पा॒सि॒ । नु । त्मना॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने रुद्रो असुरो महो दिवस्त्वं शर्धो मारुतं पृक्ष ईशिषे। त्वं वातैररुणैर्यासि शंगयस्त्वं पूषा विधतः पासि नु त्मना॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। अग्ने। रुद्रः। असुरः। महः। दिवः। त्वम्। शर्धः। मारुतम्। पृक्षः। ईशिषे। त्वम्। वातैः। अरुणैः। यासि। शम्ऽगयः। त्वम्। पूषा। विधतः। पासि। नु। त्मना॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने त्वं रुद्रोऽसुरो मेघइव महो महांस्त्वं मारुतं पृक्षो दिवः शर्ध ईशिषे त्वं वातैररुणैः सह यासि पूषा शङ्गयस्त्वं त्मना विधतो नु पासि तस्मात् कस्य सत्कर्त्तव्यो न भवसि ? ॥६॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (अग्ने) अग्निरिव दाहकृत (रुद्रः) दुष्टानां रोदयिता (असुरः) मेघइव (महः) महान् (दिवः) प्रकाशमानस्य (त्वम्) (शर्द्धः) बलम् (मारुतम्) महद्विषयम् (पृक्षः) संपृक्तम् (इशिषे) (त्वम्) (वातैः) वायुभिः (अरुणैः)अग्न्यादिभिः (यासि) प्राप्नोषि (शङ्गयः) शं सुखं गमयति सं (त्वम्) (पूषा) पोषकः (विधतः) सेवकान् (पासि) पालयसि (नु) सद्यः (त्मना) आत्मना ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः । ये जना बलमिच्छन्ति दुष्टान् सन्ताड्य धर्माचारिणः सुखयन्ति सदैव सर्वस्योन्नतिमिच्छन्ति तेऽसंख्यैश्वर्य्यं प्राप्नुवन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान दाह करनेवाले ! (त्वम्) आप (रुद्रः) दुष्टों को रुलानेवाले (असुरः) मेघ के समान (महः) बड़े (त्वम्) आप (मारुतम्) मरुत् विषयक (पृक्षः) सम्बन्ध और (दिवः) प्रकाशमान पदार्थ के (शर्द्धः) बल के (इशिषे) ईश्वर हैं उसके व्यवहार प्रकाश करने में समर्थ हैं। (त्वम्) आप (वातैः) पवनों से और (अरुणैः) अग्नि आदि पदार्थों के साथ (यासि) प्राप्त होते हैं। (पूषा) पुष्टि करने और (शङ्गयः) सुख प्राप्ति करानेवाले (त्वम्) आप (त्मना) अपने से (विधतः) सेवकों की (नु) शीघ्र (पासि) पालना करते हैं। इससे किसको सत्कार करने योग्य नहीं होते ? ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो जन बल की इच्छा करते दुष्टाचारियों को अच्छे प्रकार ताड़ना देकर धर्माचारियों को सुखी करते और सदैव सबकी उन्नति को चाह्ते हैं, वे अतुल ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं ॥६॥

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    विषय

    शंगय:='शान्ति के गृह' प्रभु

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (त्वम्) = आप (रुद्रः) = [रुत् दुःखं, दुःखहेतुः, पापं वा, तद्भावयति] दुःखों व पापों को दूर करनेवाले हैं। (असुर:) = [असून् राति] प्राणशक्ति को देनेवाले हैं। वस्तुत: प्राणशक्ति को देकर ही आप हमारे दुःखों व अशुभवृत्तियों को दूर करते हैं। आप (दिवः महः) = द्युलोक से भी महान् हैं। द्युलोक आपमें स्थित है, आप द्युलोक में स्थित हो [इसमें ही समा गये हो] ऐसी बात नहीं । (त्वम्) = आप ही (मारुतं शर्धः) = वायु सम्बन्धी बल हैं। वायु का सब वेग आप ही के कारण है । (पृक्षः) = हवीरूप अन्न के (ईशिषे) = आप ही स्वामी हैं । २. (त्वम्) = आप ही (अरुणैः) = [ऋ गतौ] निरन्तर गतिशील (वातैः) = इन वायुवों में (यासि) = गति करते हैं। वायु को गति आप ही प्राप्त कराते हैं । (शंगय:) = आप शान्ति व सुख के घर हैं। (त्वं पूषा) = आप ही सबका पोषण करनेवाले हैं। (विधतः) = पूजा करनेवाले यज्ञशील पुरुषों को (नु) = निश्चय से (त्मना) = आप स्वयं ही (पासि) = रक्षित करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - अग्नि वायु सूर्य आदि सब देवों में प्रभु की शक्ति ही काम करती है। प्रभु ही शान्ति के गृह हैं ।

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) आग के समान जलाने हारे ! तेजस्विन् राजन् ! प्रभो ! तू (रुद्रः) दुष्टों को रुलाने हारा, शिष्टों को उपदेश करने हारा, मेघ के समान गर्जन करने हारा, (असुरः) ‘असुर’ अर्थात् शत्रुओं को उखाड़ फेंकने वाले वीर पुरुषों के बीच प्राणों के बीच आत्मा के समान मुख्य भोक्ता होकर रमण करने वाला, वा मेघ के समान बल, प्राण, जीवन देने वाला, ( महः ) महान् है । ( त्वम् ) तू ( दिवः ) सूर्य के ( मारुतः पृक्षः शर्धः ) वायुओं के वर्षाकारी बल के समान ही ( दिवः ) विजय करने वाले विजिगीषु के ( मारुतम् ) शत्रुमारक सैनिकों के (पृक्षः) परस्पर सम्मिलित या शस्त्रास्त्र वर्षण करने वाले ( शर्धः ) बल का ( ईशिषे ) स्वामी, प्रभु हो । जिस प्रकार अग्नि ( अरुणैः वातैः ) वेगवान् वायुओं से बढ़ता है उसी प्रकार हे राजन् ! तू ( वातैः ) वायु के समान वेग से जाने वाले ( अरुणैः ) अश्वों से ( यासि ) प्रयाण कर । ( त्वं शंग्यः ) तू सबको शान्ति सुख पहुंचाने वाला, शान्ति सुख, गृह स्वरूप ( पूषा ) सबका पोषक, होकर ( त्मना ) आत्मसामर्थ्य से (विधतः पासि नु ) सेवा करने वाले, कार्य कर्त्ताओं की रक्षा करता है । ( २ ) परमेश्वर भक्त व्रत नियमादि के अनुष्ठान करने वालों की रक्षा करता है । वह सूर्य, वायु, अन्न, वर्षा आदि सब के बलों का स्वामी, सूर्य वायु आदि से, व्यापक शान्तिदायक, पोषक, होकर सब भक्तों का पालक है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ९ भुरिक् पक्तिः । १३ स्वराट् पङ्क्तिः । २, १५ विराड् जगती । १६ निचृज्जगती । ३, ५, ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ६, ११, १२, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । षोडशर्चं सूक्तम ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे बलाची इच्छा करतात, दुष्टांची ताडना करतात, धर्माचरण करणाऱ्यांना सुखी ठेवतात व सर्वांची उन्नती इच्छितात, ती अतुल ऐश्वर्य प्राप्त करतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, vital heat and light and fire of life, you are Rudra, shatterer of evil and terror for the wicked. You are vital as breath and generous as the cloud. You are the mighty blaze of the sun in heaven and essential force of the winds. You blow with the fiery waves of energy and bring peace and joy to the living. You are Pusha, food and sustenance of life, and with your heart and soul you protect and promote those who dedicate themselves to your service.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Again about the scientists.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O terrifier like the fire ! you cause the wicked to weep and are great like the clouds (donors). You possess. great powers and are the master bf bright strength, and are fully capable to enlighten others. You move with energy and winds, nourish and delight people with your protection and are therefore admirable.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Here is a simile. Those who delight the righteous, persons and aspire to make others happy always prosper.

    Foot Notes

    (शग्ङय:) शं सुखं गमयति स: = One who imparts happiness. (असुरः) मेघ इव = Like cloud. (विधतः) सेवकान् = To the servants.

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