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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 24/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अग्न॑ इ॒ळा समि॑ध्यसे वी॒तिहो॑त्रो॒ अम॑र्त्यः। जु॒षस्व॒ सू नो॑ अध्व॒रम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । इ॒ळा । सम् । इ॒ध्य॒से॒ । वी॒तिऽहो॑त्रः । अम॑र्त्यः । जु॒षस्व॑ । सु । नः॒ । अ॒ध्व॒रम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्न इळा समिध्यसे वीतिहोत्रो अमर्त्यः। जुषस्व सू नो अध्वरम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। इळा। सम्। इध्यसे। वीतिऽहोत्रः। अमर्त्यः। जुषस्व। सु। नः। अध्वरम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 24; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ विद्वद्भिः कथमन्येषामुन्नतिः कार्येत्याह।

    अन्वयः

    हे अग्नेऽमर्त्यो वीतिहोत्रस्त्वं येळास्ति यथा त्वं समिध्यसे तथा सह नोऽध्वरं सु जुषस्व ॥२॥

    पदार्थः

    (अग्ने) अग्निवद्विद्याप्रकाशयुक्त (इळा) सुशिक्षिता स्तोतुमर्हा वाक् (सम्) सम्यक् (इध्यसे) प्रकाश्यसे (वीतिहोत्रः) वीतीनां शुभगुणव्याप्तानां विद्यानां होत्रं स्वीकरणं यस्य सः (अमर्त्यः) आत्मत्वेन मरणधर्मरहितः (जुषस्व) सेवस्व (सु)। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नः) अस्माकम् (अध्वरम्) अहिंसादिव्यवहारयुक्तं यज्ञम् ॥२॥

    भावार्थः

    विद्वद्भिर्येन स्वेषां वृद्धिर्भवेत् तेनैवान्येषामपि उन्नतिः कार्य्या ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब विद्वानों को कैसे दूसरों की उन्नति करनी चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के तुल्य विद्या के प्रकाश से युक्त पुरुष ! (अमर्त्यः) आत्मरूप से मरणधर्मरहित (वीतिहोत्रः) उत्तम गुणों से पूरित विद्याओं के स्वीकारकारी आप जो (इळा) उत्तम प्रकार शिक्षित स्तुति करने योग्य वाणी है और जिससे आप (सम्) (इध्यसे) उत्तम प्रकार प्रकाशित हो उसके साथ (नः) हम लोगों के (अध्वरम्) अहिंसा आदि व्यवहार से युक्त यज्ञ का (सु, जुषस्व) अच्छे प्रकार सेवन करो ॥२॥

    भावार्थ

    विद्वानों को चाहिये कि जिससे अपनी वृद्धि हो, उसीसे अन्य जनों की उन्नति करें ॥२॥

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    विषय

    यज्ञ-रक्षण

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = शत्रुओं का दहन करनेवाले प्रभो! आप (इडा) = वेदवाणी द्वारा (समिध्यसे) = निर्मल हृदयों में दीप्त किए जाते हो, अर्थात् वेदवाणी के अध्ययन से शुद्ध हृदय होकर हम आपका दर्शन कर पाते हैं। आप (वीतिहोत्र:) = [वीतिः प्रीतिविषयं होत्रं यस्य सा०] यज्ञों में (प्रीतिमान्) = हैं यज्ञशील पुरुष आपको प्रिय होते हैं। यज्ञों द्वारा आपका उपासन होता है 'यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः' । (अमर्त्यः) = आप अमर्त्य हैं, उपासक को भी आप अमृतत्त्व प्राप्त कराते हैं । [२] आप (नः) = हमारे (अध्वरम्) = यज्ञ को (सु) = अच्छी प्रकार (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन करिए। हमारा यज्ञ आपको प्रिय हो। आपके सहाय्य से ही यह यज्ञ पूर्ण होना है। आप ही सब यज्ञों के रक्षक हैं। मेरे जीवनयज्ञ का रक्षण भी आपके ही हाथ में है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम वेदज्ञान अपनाकर प्रभु को हृदयों में समिद्ध करें। प्रभु हमारे जीवन-यज्ञ का रक्षण करेंगे।

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    विषय

    तेजस्वी हो, उत्तमासन पर विराजे, अभिमानी शत्रुओं को पराजित करे, सत्कार लाभ करे, राष्ट्र को वीर पुरुषों और ऐश्वर्यों से बढ़ावे।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान विद्या, विज्ञान के प्रकाश और ब्रह्मचर्य आदि के तेज से युक्त विद्वन् ! प्रतापशालिन् ! तू (इळा) सबके चाहने योग्य उत्तम वेदवाणी और भूमि से युक्त होकर (समिध्यसे) अच्छी प्रकार उत्तेजित वा प्रदीप्त हो। तू (वीतिहोत्रः) उत्तम गुणों से व्याप्त विद्याओं, रक्षाओं और कान्तिमय तेजों को स्वयं धारण करने और अन्यों को देने हारा और (अमर्त्यः) कभी न मरने हारा, अविनश्वर, दीर्घायु और पुत्र पौत्रा दे सन्तति द्वारा चिरस्थायी होकर (नः) हमारे दि (अध्वरं) न नाश होने वाले और हिंसन पीड़नादि से रहित पालन आदि यज्ञ कार्य को (सु जुषस्व) सुखपूर्वक प्रेम से स्वकीर कर । (२) अध्यात्म में—यह आत्मा तेजः स्वरूप, अनिवाशी, अजर, अमर होकर भी पार्थिव देह में (इळा) अन्न वाणी और इच्छा शक्ति द्वारा प्रका शित होता है। वही जीवन यज्ञ को सेवन करता है। (३) और परमेश्वर (इळा) वेद वाणी से प्रकाशित होता है। (४) गृहस्थ मनचाही भूमिरूप स्त्री से।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ निचृत् त्रिष्टुप्। २ निचृद्गायत्री। ३, ४, ५ गायत्री॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्यामुळे आपली वृद्धी होते त्याद्वारेच विद्वानांनी इतरांची उन्नती करावी. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, light of life, you shine by flames of fire, and flow with streams of the holy Word. Immortal you are, harbinger of peace, prosperity and joy. Join, enjoy to your heart’s content and bless our yajna of love, non violence and good fellowship.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should the enlightened persons help others in their progress.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! shining with the light of knowledge like the fire, you are immortal (by the nature of soul). You have received the knowledge of many sciences which glow with the admirable speech. Be pleased and come to our non-violent sacrifice, guiding us with noble words and speech.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the enlightened persons to tell others about the means by which they can progress.

    Foot Notes

    (वीतिहोत्र:) नीतीनां शुभगुणव्याप्तानां विद्यानां होत्रं स्वीकरणं यस्य सः। = Blessed with the knowledge of various good sciences.

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