ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 32/ मन्त्र 16
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न त्वा॑ गभी॒रः पु॑रुहूत॒ सिन्धु॒र्नाद्र॑यः॒ परि॒ षन्तो॑ वरन्त। इ॒त्था सखि॑भ्य इषि॒तो यदि॒न्द्राऽऽदृ॒ळ्हं चि॒दरु॑जो॒ गव्य॑मू॒र्वम्॥
स्वर सहित पद पाठन । त्वा॒ । ग॒भी॒रः । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । सिन्धुः॑ । न । अद्र॑यः । परि॑ । सन्तः॑ । व॒र॒न्त॒ । इ॒त्था । सखि॑ऽभ्यः । इ॒षि॒तः । यत् । इ॒न्द्र॒ । आ । दृ॒ळ्हम् । चि॒त् । अरु॑जः । गव्य॑म् । ऊ॒र्वम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
न त्वा गभीरः पुरुहूत सिन्धुर्नाद्रयः परि षन्तो वरन्त। इत्था सखिभ्य इषितो यदिन्द्राऽऽदृळ्हं चिदरुजो गव्यमूर्वम्॥
स्वर रहित पद पाठन। त्वा। गभीरः। पुरुऽहूत। सिन्धुः। न। अद्रयः। परि। सन्तः। वरन्त। इत्था। सखिऽभ्यः। इषितः। यत्। इन्द्र। आ। दृळ्हम्। चित्। अरुजः। गव्यम्। ऊर्वम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 32; मन्त्र » 16
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 11; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे पुरुहूतेन्द्र राजन् यं त्वा गभीरः सिन्धुर्न परिवरन्ताऽद्रयः सन्तो न परिवरन्त यद्यश्चिद् दृढं गव्यमूर्वमारुजः स सखिभ्य इषितस्त्वमित्था केनासत्कर्त्तव्यो भवेः ॥१६॥
पदार्थः
(न) निषेधे (त्वा) त्वाम् (गभीरः) गाम्भीर्यगुणोपेतः (पुरुहूत) बहुभिः प्रशंसित (सिन्धुः) समुद्रः (न) (अद्रयः) मेघाः पर्वता वा (परि) सर्वतः (सन्तः) (वरन्त) वारयन्ति (इत्था) अनेन प्रकारेण (सखिभ्यः) मित्रेभ्यः (इषितः) प्रेरितः (यत्) यः (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (आ) समन्तात् (दृढम्) स्थिरम् (चित्) (अरुजः) रुजति (गव्यम्) गवामिदम् (ऊर्वम्) निरोधस्थानम् ॥१६॥
भावार्थः
हे विद्वांसो यथा समुद्राः पर्वताश्च सूर्य्यं निवारयितुं न शक्नुवन्ति तथैव बहुमित्राः शत्रुभिर्निरोद्धुमशक्या जायन्ते ॥१६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (पुरुहूत) बहुतों से प्रशंसा किये गये (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य्य के दाता राजन् ! जिन (त्वा) आपको (गभीरः) गाम्भीर्य गुणों से युक्त (सिन्धुः) समुद्र (न) नहीं (परि) सब ओर से (वरन्त) वारण करते हैं (अद्रयः) मेघ वा पर्वत (सन्तः) वर्त्तमान होते हुए (न) नहीं सब ओर से वारण करते हैं (यत्) जो (दृढम्) स्थिर (चित्) भी (गव्यम्) गौओं का (ऊर्वम्) निरोधस्थान का (आ, अरुजः) भङ्ग करते हो वह (सखिभ्यः) मित्रों के लिये (इषितः) प्रेरित हुए आप (इत्था) इस प्रकार किस जनसे सत्कार नहीं करने योग्य होवैं ॥१६॥
भावार्थ
हे विद्वान् लोगो ! जैसे समुद्र और पर्वत सूर्य्य को निवारण नहीं कर सकते, वैसे ही बहुत मित्रोंवाले जन शत्रुओं से निवारण करने से शक्य नहीं होते हैं ॥१६॥
विषय
प्रभुप्राप्ति में रुकावट का न होना
पदार्थ
[१] हे (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभो ! (न) = न तो (त्वा) = आपको (गभीरः सिन्धुः) = यह गहरा समुद्र, (च) = और (नां ही परि) = चारों ओर (सन्तः) = होते हुए ये (अद्रय:) = पर्वत (वरन्त) = हमारे समीप प्राप्त होने से रोक सकते हैं। प्रभुप्राप्ति में समुद्र व पर्वतों ने क्या बाधक होना ! प्रभु तो हमारे हृदयों के ही अन्दर विद्यमान हैं। [२] (इत्था) = सचमुच हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यत्) = जब आप (सखिभ्यः) = अपने मित्रभूत इन जीवों से (इषितः) = चाहे जाते हैं प्रार्थना किए जाते हैं तो (दृढं चित्) = अत्यन्त दृढ़ भी (गव्यम्) = इन्द्रियों के लिए बने हुए (उर्वम्) = विषयों के बाड़े को (अरुज:) = आप विदीर्ण करनेवाले होते हैं। इस विषय-व्रज को विदीर्ण करके आप अपने मित्रभूत उपासक की इन्द्रियरूप गौवों को मुक्त करनेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - उपासक के मार्ग में प्रभुप्राप्ति के लिए समुद्र व पर्वत रुकावट नहीं बन पाते । प्रभु उपासकों से प्रार्थित होने पर उनकी इन्द्रियरूप गौवों को विषयों के बाड़े से मुक्त करते हैं।
विषय
निर्बाध इन्द्र का सामर्थ्य।
भावार्थ
हे (पुरुहूत) बहुत से प्रजाजनों से रक्षार्थ पुकारे जाने योग्य वीरजन ! (त्वां) तुझको (गभीरः सिन्धुः) गहरी नदी और (न अद्रयः) न बड़े २ पहाड़ ही (सन्तः) विद्यमान रह रहकर (परि वरन्त) दूर कर सकते या रोक सकते हैं। वे तेरे मार्ग में बाधक नहीं हो सकते। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (यत्) जब तू. (इत्था) इस प्रकार से सचमुच (सखिभ्यः) अपने प्रिय सुहृदों के उपकार के लिये जाकर या प्रेरित या सेनायुक्त होकर तू (दृढम्) दृढ़ (गव्यं) पृथिवी के (ऊर्वम्) निरोधस्थान, रुकावट के या (गव्यम् ऊर्वम्) पृथ्वी के ऊपर के दृढ़ से दृढ़ हिंसक, बाधक शत्रु को भी (अरुजः) तुम तोड़ डालते हो। (२) परमेश्वर का मुकाबला गम्भीर से गम्भीर समुद्र और ऊंचे से ऊंचे पर्वत या मेघ भी नहीं कर सकते।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१–३, ७–६, १७ त्रिष्टुप्। ११–१५ निचृत्त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० भुरिक् पङ्क्तिः। ५ निचृत् पङ्क्तिः। ६ विराट् पङ्क्तिः। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वान लोकांनो! जसे समुद्र व पर्वत सूर्याचे निवारण करू शकत नाहीत तसेच पुष्कळ मित्र असणाऱ्या लोकांचे निवारण शत्रू करू शकत नाहीत. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, mighty lord of light as the sun, invoked by one and all, neither the deep sea nor the dense clouds nor the high mountains all round can contain or hold you back when inspired by friends for friends you strike and break the formidable cloud, impenetrable except for the thunderbolt.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the human beings is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (wealthy king) ! invoked by many, the deep ocean does not arrest, nor do the accompanying mountains or clouds prevent you from accomplishing your desirables. Therefore, summoned or urged by the friends, you break stall of kine where the cows are kept in the enclosures by the wicked enemies.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O learned persons! as oceans and mountains can not restrain the sun, in the same manner, those who have many good friends to help them, cannot be overcome by the enemies.
Foot Notes
(अद्रय:) मेघाः पर्वता वा | अद्रिरिति मेघनाम । (N.G. 1, 10 ) = Clouds or mountains. (इषितः) प्रेरितः । इष गतौ (दिवा ० ) = Urged, promoted.
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