ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 32/ मन्त्र 6
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वम॒पो यद्ध॑ वृ॒त्रं ज॑घ॒न्वाँ अत्याँ॑इव॒ प्रासृ॑जः॒ सर्त॒वाजौ। शया॑नमिन्द्र॒ चर॑ता व॒धेन॑ वव्रि॒वांसं॒ परि॑ दे॒वीरदे॑वम्॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒पः । यत् । ह॒ । वृ॒त्रम् । ज॒घ॒न्वान् । अत्या॑न्ऽइव । प्र । असृ॑जः । सर्त॒वै । आ॒जौ । शया॑नम् । इ॒न्द्र॒ । चर॑ता । व॒धेन॑ । व॒व्रि॒ऽवांस॑म् । परि॑ । दे॒वीः । अदे॑वम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमपो यद्ध वृत्रं जघन्वाँ अत्याँइव प्रासृजः सर्तवाजौ। शयानमिन्द्र चरता वधेन वव्रिवांसं परि देवीरदेवम्॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। अपः। यत्। ह। वृत्रम्। जघन्वान्। अत्यान्ऽइव। प्र। असृजः। सर्तवै। आजौ। शयानम्। इन्द्र। चरता। वधेन। वव्रिऽवांसम्। परि। देवीः। अदेवम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 32; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजजनाः किं कुर्य्युरित्याह।
अन्वयः
हे इन्द्र ! यद्यस्त्वं यथा सूर्य्योऽत्यानिवाऽदेवं वृत्रं जघन्वांश्चरता वधेन शयानं वव्रिवांसं देवीरपो ह प्रसृजति तथैव सर्त्तवा आजौ परि प्राऽसृजः सोऽस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि ॥६॥
पदार्थः
(त्वम्) (अपः) जलानि (यत्) यः (ह) किल (वृत्रम्) (जघन्वान्) हतवान् (अत्यानिव) अश्वानिव (प्र, असृजः) प्रासृज (सर्तवै) सर्तव्ये गन्तव्ये (आजौ) युद्धे। आजाविति सङ्ग्रामना०। निघं० २। १७। (शयानम्) शयानमिव वर्त्तमानम् (इन्द्र) शत्रुविदारक (चरता) प्राप्तेन (वधेन) (वव्रिवांसम्) व्रियमाणम् (परि) सर्वतः (देवीः) दिव्याः किरणाः (अदेवम्) प्रकाशरहितमविद्वांसं दुष्टं वा ॥६॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजादयो वीराः सूर्यो मेघमिव सङ्ग्रामे प्रसृष्टैः शस्त्रास्त्रैः शत्रून् विजयन्ते त एव प्रतापवन्तो जायन्ते ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजपुरुष क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) शत्रुओं के नाशक ! (यत्) जो (त्वम्) आपने जैसे (अत्यानिव) घोड़ों को सूर्य के समान (अदेवम्) विद्या प्रकाश से रहित अविद्वान् वा (वृत्रम्) दुष्ट को (जघन्वान्) नाश किया वा सूर्य (चरता) प्राप्त (वधेन) नाश से (शयानम्) सोते हुए से वर्त्तमान (वव्रिवांसम्) ढपे हुए को (देवीः) उत्तम किरणों और (अपः) जलों को (ह) निश्चय से उत्पन्न करता है उसी प्रकार से (सर्त्तवै) जानने योग्य (आजौ) युद्ध में (परि) चारों ओर से (प्र, असृजः) उत्पन्न करते हो, वे आप हम लोगों से सत्कार पाने योग्य हैं ॥६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा आदि वीर पुरुष जैसे सूर्य मेघ को वैसे संग्राम में चलाये शस्त्र और अस्त्रों से शत्रुओं को जीतते हैं, वे ही प्रतापयुक्त होते हैं ॥६॥
विषय
शरीरांगण में रेतः कण रूप अश्वों की गति
पदार्थ
(१) हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (त्वम्) = तू (यत्) = जब (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (जघन्वान्) = नष्ट करता है, तब (अपः) = रेतः कणों को (सर्तवः) = शरीर में गति के लिए (प्रासृजः) = उसी प्रकार प्रसृष्ट करता है, (इव) = जैसे कि (आजौ) = संग्राम में (अत्यान्) = घोड़ों को प्रसृष्ट किया जाता है। युद्ध में प्रेरित घोड़े रणांगण में गति करते हुए शत्रुओं का विनाश करते हैं, इसी प्रकार शरीर में प्रेरित रेत:कण रोगकृमिरूप शत्रुओं का विनाश करते हैं। [२] हे इन्द्र! तू (चरता वधेन) = क्रियाशीलतारूप वृत्रवधसाधना आयुध से (देवी:) = दिव्य ज्ञानजलों को (वव्रिवांसम्) = आवृत किये हुए (अदेवम्) = इस कामवासनारूप आसुरभाव को, (शयानम्) = अपने अन्दर ही निवास करते हुए को नष्ट करता है। इस वृत्र विनाश होने पर रेतः कण शरीर में ही व्याप्त होते हैं। शरीर नीरोग बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ– क्रियाशीलता से वृत्र का विनाश होकर रेत: कणों की शरीर में ही गति होती हैउसी से ज्ञानाग्नि दीप्त होती है।
विषय
विद्युत् के मेघ को आधात करने के समान दुष्टजन का नाश। पक्षान्तर में—परमेश्वर का प्रकृति में स्पन्द और नीहारिका सञ्चालन।
भावार्थ
जिस प्रकार (देवी अपः वव्रिवांसं अदेवम् वृत्रं जघन्वान् अपः प्रासृजत्) स्वच्छ जलों को घेरकर विराजमान कान्तिरहित, श्याम मेघ को विद्युत् या वायु आघात करता और बहाने के लिये जलों को उत्पन्न कर देता है। उसी प्रकार हे वीर सेनापते ! (त्वम्) तू (यत् ह) जब भी (देवीः) उत्तम पुरुष की कामना करने वाली, उत्तम गुणों से युक्त (अपः) आप्त प्रजाओं को (वव्रिवांसं) घेरने वाले (शयानम्) सोते हुए, प्रमादी, (अदेवम्) अदनशील, स्वयं प्रजा को खा जाने वाले, उत्तम गुणों से हीन, पापाचारी (वृत्रं) विघ्नकारी, दुष्ट शत्रु को (चरता वधेन) चलते हुए शस्त्र से (जघन्वान्) मारता हुआ (आजौ सर्त्तवे) संग्राम में वेग से भागने के लिये (अत्यान् इव) जिस प्रकार घोड़ों को (प्र असृजः) आगे बढ़ाता है उसी प्रकार (सर्त्तवे) भाग निकलने और (अपः) जलों के समान वेग से शत्रु सेनाओं को निकल भागने के लिये (प्र असृजः) वाधित कर देता है। (२) परमेश्वर पक्षमें—(अपः) प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु (वृत्रं) निहारिका।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः–१–३, ७–६, १७ त्रिष्टुप्। ११–१५ निचृत्त्रिष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्। ४, १० भुरिक् पङ्क्तिः। ५ निचृत् पङ्क्तिः। ६ विराट् पङ्क्तिः। सप्तदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. सूर्य जसा मेघांशी संग्राम करतो तसे राजा इत्यादी वीरपुरुष अस्त्र-शस्त्रांनी शत्रूंना जिंकतात, तेच पराक्रमी होतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, when with the wielded weapon of the thunderbolt in battle, you destroy Vrtra, demonic cloud of darkness lying asleep in stolid state, covering and with-holding the blissful waters of vital rain showers, you release the waters of life and joy to flow, and the streams rush forth in freedom like horses released from the stables.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the officers of the State do etc. is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra ! you destroy enemies. The sun destroys with his divine rays the slumbering and darkling water. It invests cloud and lets forth the bright waters like horses rushing into battle. So you slay unrighteous or wicked persons in the battle with your powerful weapons. Therefore, you are worthy of respect from all of us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those brave kings and other persons become powerful and influential who conquer their enemies in the battles with the help of weapons and missiles, like the sun who destroys the clouds.
Foot Notes
(आजौ) युद्धे। = आजाविति सङ्ग्रामनाम । ( N. G. 2, 17) = In the battle. ( इन्द्र) शत्रुविदारक। = Destroyer of the foes.
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