ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 33/ मन्त्र 7
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - नद्यः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
प्र॒वाच्यं॑ शश्व॒धा वी॒र्यं१॒॑ तदिन्द्र॑स्य॒ कर्म॒ यदहिं॑ विवृ॒श्चत्। वि वज्रे॑ण परि॒षदो॑ जघा॒नाय॒न्नापोऽय॑नमि॒च्छमा॑नाः॥
स्वर सहित पद पाठप्र॒ऽवाच्य॑म् । श॒श्व॒धा । वी॒र्य॑म् । तत् । इन्द्र॑स्य । कर्म॑ । यत् । अहि॑म् । वि॒ऽवृ॒श्चत् । वि । वज्रे॑ण । प॒रि॒ऽषदः॑ । ज॒घा॒न॒ । आय॑न् । आपः॑ । अय॑नम् । इ॒च्छमा॑नाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रवाच्यं शश्वधा वीर्यं१ तदिन्द्रस्य कर्म यदहिं विवृश्चत्। वि वज्रेण परिषदो जघानायन्नापोऽयनमिच्छमानाः॥
स्वर रहित पद पाठप्रऽवाच्यम्। शश्वधा। वीर्यम्। तत्। इन्द्रस्य। कर्म। यत्। अहिम्। विऽवृश्चत्। वि। वज्रेण। परिऽषदः। जघान। आयन्। आपः। अयनम्। इच्छमानाः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 33; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यः किं कुर्यादित्याह।
अन्वयः
हे मनुष्या यः सूर्य्योऽहिं विवृश्चद्यदिन्द्रस्य वीर्य्यं कर्मास्ति तच्छश्वधा प्रवाच्यं यथा वज्रेण हता मेघस्याऽऽपोऽयनमायन् मेघं विजघान तथैवेच्छमानाः परिषदः कुर्य्युः ॥७॥
पदार्थः
(प्रवाच्यम्) प्रवक्तुं योग्यम् (शश्वधा) शश्वदेव (वीर्य्यम्) बलम् (तत्) (इन्द्रस्य) सूर्य्यस्य (कर्म) (यत्) (अहिम्) (विवृश्चत्) छिनत्ति (वि) (वज्रेण) किरणेन (परिषदः) परिषीदन्ति यासु ताः सभाः (जघान) हन्ति (आयन्) प्राप्नुयुः (आपः) (अयनम्) भूमिस्थानम् (इच्छमानः) अभिलषन्तः ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यो धर्म्यं कर्म कृत्वा दुष्टनिवारणाय स्वबलं दर्शयेत्तस्य तत्कर्मप्रशंसनं सदैव कार्य्यं ये परिषदि सभ्याः स्युस्ते न्यायेन सर्वोन्नतिं चिकीर्षेयुः ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो सूर्य्य (अहिम्) मेघ को (विवृश्चत्) काटता है (यत्) जो (इन्द्रस्य) सूर्य्य का (वीर्य्यम्) बलरूप (कर्म) कर्म है (तत्) वह (शश्वधा) निरन्तर हो (प्रवाच्यम्) कहने योग्य और जैसे (वज्रेण) किरण से विदीर्ण किये गये मेघ के (आपः) जल (अयनम्) भूमि स्थान को (आयन्) प्राप्त होवैं मेघ को (विजघान) नाश करता है वैसे ही (इच्छमानाः) इच्छा करते हुए जन (परिषदः) जिनमें बैठें, उन सभा को करैं ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो धर्मसम्बन्धी काम करके दुष्ट पुरुषों के निवारण के लिये अपना पराक्रम दिखावे, उसके उस कर्म की प्रशंसा सब काल में करनी चाहिये। जो लोग सभा में श्रेष्ठ होवें, वे न्याय से सब लोगों की उन्नति करने की इच्छा करें ॥७॥
विषय
वृत्र विनाश व 'अयन'
पदार्थ
[१] (इन्द्रस्य) = जितेन्द्रिय पुरुष का (तत्) = कर्म वह कार्य, यत्- जो कि अहिं विवृश्चत् = समन्तात् विनाश करनेवाली वासना को इसने छिन्न-भिन्न कर दिया, शश्वधा - सदा प्रवाच्यम्-प्रशंसनीय है - इस इन्द्र का वीर्यम्- यह पराक्रम वस्तुतः प्रशंसनीय है। (२) असुरों का सेनापति यह अहि (= वृत्र) है। इसके विनष्ट होने पर अन्य असुरों का पराजय कठिन नहीं होता। वज्रेण क्रियाशीलता रूप वज्र द्वारा परिषदः - चारों ओर आसीन होनेवाले आसुरभावों को भी विजघान इस इन्द्र ने विनष्ट कर दिया। (३) इन आसुरभावों के विनष्ट हो जाने पर अयनम् (नान्यः पन्थाः विद्यते अयनाय) परमात्मप्राप्ति की इच्छमानाः = कामना करती हुई आपः = प्रजाएँ आयन्- सर्वभूतहित के दृष्टिकोण से गतिवाली हुईं। वासना को विनष्ट करके ये ब्रह्मप्राप्ति की कामनावाले लोक प्राजापत्य यज्ञ में अपनी आहुति दे डालते हैं। ये क्रियाशील होते हैं, परन्तु इनकी सब क्रियाएँ लोकहित के लिए होती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- जितेन्द्रिय पुरुष [क] वासना को विनष्ट करता है, [ख] परमात्म-प्राप्ति की कामनावाला होता है,[ग] लोकहित में सदा प्रवृत्त रहता है।
विषय
मेघ के छेदक भेदक सूर्य, वायुवत् राजा और आचार्य का शत्रु और अज्ञान का नाश।
भावार्थ
(यद् अहम् विवृश्चत्) सूर्य जिस प्रकार मेघ को छिन्न भिन्न कर देता है वह उसका बड़ा भारी बल कार्य सदा ही उत्तम कहने योग्य है। वह (वज्रेण) विद्युत् द्वारा (परिषदः जघान) चारों तरफ़ स्थित मेघस्थ जलों को आघात करता और (आपः) जल आश्रय चाहते हुए (आयन्) नीचे आ गिरते हैं। उसी प्रकार (यत्) जो वीर पुरुष (अहिम्) अभिमुख स्थित शत्रु को (विवृश्चत्) विविध उपायों से काट गिराता है और (तत्) वह (इन्द्रस्य) इन्द्र का ऐश्वर्यवान् शत्रुघाती बलवान् पुरुष का (कर्म) काम और (वीर्यं) बल (शश्वधा) सदा काल ही (प्रवाच्यम्) सबसे उत्तम रूप से कथन करने योग्य है। वह वीर पुरुष ही (परिषदः) चारों ओर घेर के बैठी शत्रु सेनाओं या छावनियों को (वज्रेण) शस्त्र बल से (वि जघान) विविध प्रकार से आघात करे और (अयनम् इच्छमानाः आपः) स्थान या शरण चाहने वाले प्रजागण (अयनम् इच्छमानाः) विशेष अधिकार चाहने वाले (आपः) समीपतम, आप्त पुरुष ही (आ अयन्) आगे बढ़ें, उन्नत पद प्राप्त करें। गृहस्थ पक्ष में—इन्द्र आचार्य का यह बड़ा उत्तम स्तुत्य कार्य है कि वह अज्ञान का नाश करता है, ज्ञान रूप वज्र से अपने चारों ओर बैठे शिष्य जनों को प्राप्त करता है। इसी प्रकार जलवत् स्वभाव युक्त सौम्य शिष्य भी (अयनं) ज्ञानेच्छुक होकर उसके शरण आते हैं। चारों ओर स्थितों को वह ज्ञान से प्राप्त होता उनके अज्ञान को नाश करता है यह उसका बड़ा स्तुत्य ज्ञानबल या विशेषोपदेश और उत्तम कर्म है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ नद्यो देवता॥ छन्द:- १ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः। ७ पङ्क्तिः। २, १० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ८, ११, १२ त्रिष्टुप्। ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १३ उष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जे धर्माचे कार्य करून दुष्ट पुरुषांच्या निवारणासाठी पराक्रम करतात त्या कर्माची प्रशंसा नेहमी केली पाहिजे. जे सभेत श्रेष्ठ असतात त्यांनी न्यायाने सर्व लोकांच्या उन्नतीची इच्छा धरावी. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
That omnipotence of Indra, that cosmic act by which he breaks the dark energy of the state of annihilation (Pralaya) is worthy of song and celebration. With his voice of thunder he breaks the silence of the inert forces of Prakrti, and the waves and waters of cosmic energy flow into existence, in-vested with the divine will.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a man do is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! the great heroic deed of the Sun is ever to be admired. He cuts into pieces the clouds. The waters of the cloud struck by the rays of the sun come down on earth. The sun destroys the clouds. In the same manner, a king should destroy all his wicked enemies, so that the councils or their members may do what they desire in the interest of the States.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! that act of the person who manifests his power to keep away the wicked by doing righteous deeds must be admired indeed. The members of councils should always endeavor for the advancement and progress of all with justice.
Foot Notes
(इन्द्रस्य) सूर्य्यस्य । एष एवेन्द्रः य एष (सूर्यः) तपति (Stph. 1, 6, 4, 18) अथ यः सः इन्द्रो सो सो आदित्यः (Stph. 8, 5, 3, 2 ) = Of the sun. (वज्रेण) किरर्णेन = With the rays (अयनम्) भूमिस्थानम् = The earth.
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