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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 43/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    कु॒विन्मा॑ गो॒पां कर॑से॒ जन॑स्य कु॒विद्राजा॑नं मघवन्नृजीषिन्। कु॒विन्म॒ ऋषिं॑ पपि॒वांसं॑ सु॒तस्य॑ कु॒विन्मे॒ वस्वो॑ अ॒मृत॑स्य॒ शिक्षाः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कु॒वित् । मा॒ । गो॒पाम् । कर॑से । जन॑स्य । कु॒वित् । राजा॑नम् । म॒घ॒ऽव॒न् । ऋ॒जी॒षि॒न् । कु॒वित् । मा॒ । ऋषि॑म् । प॒पि॒ऽवांस॑म् । सु॒तस्य॑ । कु॒वित् । मे॒ । वस्वः॑ । अ॒मृत॑स्य । शिक्षाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कुविन्मा गोपां करसे जनस्य कुविद्राजानं मघवन्नृजीषिन्। कुविन्म ऋषिं पपिवांसं सुतस्य कुविन्मे वस्वो अमृतस्य शिक्षाः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कुवित्। मा। गोपाम्। करसे। जनस्य। कुवित्। राजानम्। मघऽवन्। ऋजीषिन्। कुवित्। मा। ऋषिम्। पपिऽवांसम्। सुतस्य। कुवित्। मे। वस्वः। अमृतस्य। शिक्षाः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 43; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यस्त्वं जनस्य कुविद्गोपां मा करसे। हे मघवन्नृजीषिन् यस्त्वं जनस्य कुविद्राजानं करसे सुतस्य पपिवांसं कुविदृषिं मा शिक्षाः कुविदमृतस्य मे वस्वः करसे तं त्वां वयं भजामहे ॥५॥

    पदार्थः

    (कुवित्) महान्तम् (मा) माम् (गोपाम्) धार्मिकाणां रक्षकम् (करसे) कुर्य्याः (जनस्य) (कुवित्) महान्तम् (राजानम्) (मघवन्) परमपूजितधनयुक्त (ऋजीषिन्) ऋजुभावमिच्छन् (कुवित्) महान्तम् (मा) माम्। अत्र ऋत्यक इति ह्रस्वो भूत्वा प्रकृतिभावः। (ऋषिम्) सकलवेदमन्त्रार्थवेत्तारम् (पपिवांसम्) पीतवन्तम् (सुतस्य) निष्पादितस्य सोमस्य रसम् (कुवित्) महतः (मे) मम (वस्वः) धनस्य (अमृतस्य) नाशरहितस्य (शिक्षाः) शिक्षस्व। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् ॥५॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ये युष्मान् विद्याविनयसुशिक्षादानेन महतो राज्ञः कुर्वन्ति वेदार्थं विज्ञाप्य मोक्षं साधयन्ति तान् यूयं स्वात्मवत्प्रीणीत ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे विद्वज्जन ! जो आप (जनस्य) सब लोगों के (कुवित्) श्रेष्ठ (गोपाम्) धार्मिक पुरुषों के रक्षा करनेवाले (मा) मुझको (करसे) करें। हे (मघवन्) परम प्रशंसनीय धनयुक्त (ऋजीषिन्) कोमलपन को चाहनेवाले जो आप जनसमूह का (राजानम्) राजा करें वह (सुतस्य) उत्पन्न किये हुए सोम के रस को (पपिवांसम्) पीते हुए (कुवित्) श्रेष्ठ (ऋषिम्) सम्पूर्ण वेदों के अर्थ के जाननेवाले होने की (मा) मुझको (शिक्षाः) शिक्षा दीजिये और आप (कुवित्) श्रेष्ठ (अमृतस्य) नाश से रहित (मे) मेरे (वस्वः) धन को करें, उन आपकी हम लोग सेवा करें ॥५॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो लोग आप लोगों को विद्या विनय और उत्तम शिक्षादान से बड़े राजा करते और वेद के अर्थों को समझा के मोक्ष सिद्ध करते हैं, उनको आप अपने आत्मा के सदृश प्रसन्न करें ॥५॥

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    विषय

    मैं कैसा बनूँ!

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! आप (मा) = मुझे (कुवित्) = अत्यन्त (जनस्य गोपाम्) = लोगों का रक्षक (करसे) = करिये। मैं सब के रक्षण में प्रवृत्त होऊँ। [२] हे मघवन् ! [मघ:मख] हे यज्ञशील व ऐश्वर्यशालिन् (ऋजीषिन्) = [ऋजु+इष] सरलता की प्रेरणा देनेवाले प्रभो! आप मुझे (कुवित्) = अत्यन्त ही (राजानम्) = बड़े व्यवस्थित [Regulated] व दीप्त जीवनवाला बनाइये। [३] (कुवित्) = अत्यन्त ही (मा) = मुझे (ऋषिम्) = तत्त्वद्रष्टा बनाइये । और (सुतस्य) = उत्पन्न हुए हुए सोम का (पपिवांसम्) = पीनेवाला करिए । [४] ये सबकुछ करके (मे) = मेरे लिए (कुवित्) = अत्यन्त ही (अमृतस्य) = नीरोगता को जन्म देनेवालेअथवा विषयों के पीछे न मरनेवाले (वस्वः) = धन को (शिक्षा:) = दीजिए। हमें यह धन दीजिए जिससे कि हम पापों में तो फँसे नहीं, पर हमारे सब कार्य जिससे सिद्ध हो सकें।

    भावार्थ

    भावार्थ- लोगों का रक्षक, नियमित जीवनवाला तत्त्वद्रष्टा व सोमपान करनेवाला मैं बनूँ।. प्रभुकृपा से मुझे कार्यसाधक धन प्राप्त हो, वह धन जिससे मैं विषयों में न फँस जाऊँ ।

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    विषय

    प्रजा के साथ उत्तम व्यवहार।

    भावार्थ

    हे विद्वन् ! ऐश्वर्यवन् ! तू (मां) मुझको (कुवित्) बहुत बड़े भारी (जनस्य) जनसमुदाय का (गोपां करसे) रक्षक बना। (ऋजीषिन्) ऋजु, सरल धर्ममार्ग में चलने और चलाने हारे हे (मघवन्) आदरणीय धनसम्पन्न ! तू मुझको (कुवित् राजानं) बहुतों का राजा (करसे) बना। (मा) मुझको (ऋषिं) मन्त्रार्थ द्वारा विद्वान् और (सुतस्य पपिवांसं) उत्पन्न पुत्र, ऐश्वर्य और राष्ट्र का पालक और भोक्ता बना और (मे) मुझे (कुवित् वस्वः) बहुत बड़े (अमृतस्य) अमृतस्वरूप सुखद (वस्वः) सब में बसने वाले आत्मा और अक्षय ऐश्वर्य की (शिक्षाः) शिक्षा और दान कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ३ विराट् पङ्क्ति। २, ४, ६ निचृत्त्रिष्टुप्। ५ भुरिक् त्रिष्टुप्। ७, ८ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जे लोक तुम्हाला विद्या, विनय व उत्तम शिक्षणाने मोठा राजा बनवितात व वेदाचा अर्थ समजावून मोक्ष सिद्ध करवितात त्यांना आपल्या आत्म्याप्रमाणे प्रसन्न करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O lord, make me a great protector of the cow, the earth and the holy Word. Lord of wealth and power, lover of simple and natural ways of living, make me a brilliant guardian of the people. Make me a man of sagely vision, a seer of divine mantras, and bless me with knowledge and immense wealth of imperishable value.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The qualities of a friend are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person! we serve you to make me the great protector of men. O Lord of the abundant and admirable wealth, and O desirous of uprightness! make me a great king of men. Teach me to become a sage, a knower, who knows meaning of all Vedic mantras. Make me the possessor of the imperishable wealth (of wisdom etc.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should please those persons who are like you, and make you a great king by imparting-your knowledge, good education and humility and who enable you to attain emancipation by teaching you the meaning of the Vedas.

    Foot Notes

    (कुवित्) महान्तम् | Great. कुवित् इति बहुनाम ( N. G. 3, 1 ) (ऋजीषिन) ऋजुभावमिच्छन्। = Desiring of uprightness. (ऋषिम् ) सकलवेदमन्त्रार्थवेत्तारम् । ऋषिदर्शनांत् स्तोमान् ददर्शेत्योपमन्यव । तद् यदेनां तपस्यमानाम् ब्रह्म स्वयंम्बभ्यानर्षत् तदुषीणां ऋषित्वमिन् विज्ञायते । ( N. K. T 3.11 ) The sage, knower of the meaning of all Veda mantras.

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