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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 43 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 43/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ त्वा॑ बृ॒हन्तो॒ हर॑यो युजा॒ना अ॒र्वागि॑न्द्र सध॒मादो॑ वहन्तु। प्र ये द्वि॒ता दि॒व ऋ॒ञ्जन्त्याताः॒ सुसं॑मृष्टासो वृष॒भस्य॑ मू॒राः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । त्वा॒ । बृ॒हन्तः॑ । हर॑यः । यु॒जा॒नाः । अ॒र्वाक् । इ॒न्द्र॒ । स॒ध॒ऽमादः॑ । व॒ह॒न्तु॒ । प्र । ये । द्वि॒ता । दि॒वः । ऋ॒ञ्जन्ति॑ । आताः॑ । सुऽस॑म्मृष्टासः । वृ॒ष॒भस्य॑ । मू॒राः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ त्वा बृहन्तो हरयो युजाना अर्वागिन्द्र सधमादो वहन्तु। प्र ये द्विता दिव ऋञ्जन्त्याताः सुसंमृष्टासो वृषभस्य मूराः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। त्वा। बृहन्तः। हरयः। युजानाः। अर्वाक्। इन्द्र। सधऽमादः। वहन्तु। प्र। ये। द्विता। दिवः। ऋञ्जन्ति। आताः। सुऽसम्मृष्टासः। वृषभस्य। मूराः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 43; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! ये बृहन्तो युजाना सधमादो हरय इव त्वाऽऽवहन्तु द्विता दिव ऋञ्जन्ति सुसंमृष्टास आता इव वृषभस्य वेगं प्रवहन्तु तैर्ये मूरा मूढाः स्युस्तानर्वाक् त्वमावह ॥६॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (त्वा) त्वाम् (बृहन्तः) महान्तः (हरयः) सुशिक्षितास्तुरङ्गा इवाऽग्न्यादयः (युजानाः) समादधानाः (अर्वाक्) योऽर्वागञ्चति (इन्द्र) परमपूजनीय (सधमादः) समानस्थानाः (वहन्तु) प्राप्नुवन्तु (प्र) (ये) (द्विता) द्वयोर्भावः (दिवः) विद्याप्रकाशमानान् (ऋञ्जन्ति) साध्नुवन्ति (आताः) व्याप्ता दिशः। आता इति दिङ्ना०। निघं०१। ६। (सुसंमृष्टासः) श्रेष्ठरीत्या सम्यक् शुद्धाः (वृषभस्य) बलिष्ठस्य (मूराः) मूढाः ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये विद्वांसोऽश्वा इवाऽभीष्टस्थाने मूढान् प्रापयन्ति ते समग्रमृद्धिं साद्धुं शक्नुवन्ति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) अत्यन्त सेवा करने योग्य विद्वान् ! (ये) जो (बृहन्तः) बड़े (युजानाः) समाधान देते हुए (सधमादः) समान स्थानवाले (हरयः) उत्तमप्रकार शिक्षित घोड़ों के सदृश अग्नि आदि पदार्थ (त्वा) आपको (आ) सब प्रकार (वहन्तु) एक स्थान से दूसरे स्थान को पहुँचावें और वे तथा (द्विता) दो-दो पदार्थों का होना जैसे वैसे विद्वान् (दिवः) विद्याओं से प्रकाशमानों को (ऋञ्जन्ति) सिद्ध करते हैं (सुसंमृष्टासः) वा श्रेष्ठ रीति से उत्तम प्रकार शुद्ध किये हुए (आताः) व्याप्त हुई दिशाओं के सदृश (वृषभस्य) बलवान् पदार्थ के वेग को (प्र, वहन्तु) प्राप्त हों उनसे जो (मूराः) मूढ़ होवें उन पुरुषों को (अर्वाक्) नीचे के स्थल में आप पहुँचाइये ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो विद्वान् लोग घोड़ों के सदृश अभीष्ट स्थान में मूढ़ों को पहुँचाते हैं, वे संपूर्ण समृद्धि सिद्ध कर सकते हैं ॥६॥

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    विषय

    कैसे इन्द्रियाश्र्व !

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (त्वा) = तुझे (हरयः) = इन्द्रियाश्व (अर्वाग्) = अन्दर की ओर [=प्रभु के समीप] (आ वहन्तु) = ले चलनेवाले हों। कैसे इन्द्रियाश्व जो कि (बृहन्तः) = दिन व दिन बढ़ती हुई शक्तिवाले हैं। (युजानः) सदा शरीररूप रथ में जुते हुए हैं- योगमार्ग की ओर प्रवृत्तिवाले हैं। (सधमादः) = परस्पर हर्ष के साथ रहनेवाले हैं- 'ज्ञानेन्द्रियों के ज्ञानानुसार कर्म, कर्मेन्द्रियों के कर्म से ज्ञान की वृद्धि' इस प्रकार ये दोनों इन्द्रियाश्व मिलकर चलते हैं-दोनों मिलकर शरीर रथ का वहन करते हैं । [२] (ये) = जो घोड़े (द्विता) = दो प्रकार से- शक्ति व प्रकाश से (दिवः आता:) = इस द्युलोक की सब दिशाओं को (प्र ऋञ्जन्ति) = प्रसाधित करते हैं। सब दिशाओं में ये शक्ति व प्रकाश का प्रसार करते हैं। ये इन्द्रियाश्व (सुसंमृष्टासः) = सम्यक्तया शोधित हैं। ये वृषभस्य शक्तिशाली पुरुष के इन्द्रियाश्व (मूराः) = शत्रुओं के मारक हैं- शत्रुओं का विनाश करके ये यात्रा में आगे और आगे बढ़ते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे शरीर रथ के ये इन्द्रियाश्व वृद्धिवाले, सतत कार्यशील, मिलकर चलनेवाले निर्मल व शत्रुओं के मारक होकर सब ओर शक्ति व प्रकाश का प्रसार करते हैं।

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    विषय

    प्रजा के साथ उत्तम व्यवहार।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (बृहन्तः) बड़े २ (हरयः) कार्यभार को वहन करने वाले विद्वान् पुरुष (युजानाः) योग वा मनोयोग द्वारा समाहित चित्त होकर (सधमादः) एक साथ मिलकर, सुप्रसन्न होकर (त्वा) तुझको (अर्वाग्) सबके सन्मुख (आवहन्तु) आदरपूर्वक बुलावें और धारण करें। (वे) जो (दिवः) सूर्य के समान तेजस्वी (वृषभस्य) बलवान् पुरुष के (द्विता) दोनों ओर रहकर (मूराः) शत्रुओं को मारते हुए (सु-सं-मृष्टासः) शुभ उत्तम प्रकार से शुद्ध एवं विचारवान् होकर (आताः ऋञ्जन्ति) सब दिशाओं में जाते हैं और उनको अपने अधीन वश करते और विजय करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ३ विराट् पङ्क्ति। २, ४, ६ निचृत्त्रिष्टुप्। ५ भुरिक् त्रिष्टुप्। ७, ८ त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. घोडा जसा लोकांना इच्छित स्थानी पोचवितो तसे विद्वान मूढांची वृद्धी करू शकतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, adorable lord giver of honour, excellence and prosperity, the motive powers of your chariot, mighty and harnessed together like fire and wind, impetuous forces of potent and generative nature, rise and fly to the heights of the sky, dividing the space, as if, into two. May these powers, well refined, reinforced and accelerated, complementarily exhilarated, carry you forward and transport you to our house of yajnic development.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The qualities of a friend are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O adorable learned person ! may your mighty and well-groomed horses (or horse-power, energy) harnessed in your car bring you to us. The learned men accomplish the works of the enlightened persons shining with knowledge and noble deeds and make all directions well purified. Those who are ignorant, bring them before the mighty and wise men and make them also learned.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those learned persons who lead even ignorant men to the desired goal, can accomplish all prosperity.

    Foot Notes

    (हरयः) सुशिक्षितास्तुरङ्गा इव अग्न्यादय: । हरयइति मनुष्यनाम (N.G. 2,3) = Fire. electricity etc. sources of energy which are like well-trained horses. (दिवः) विद्याप्रकाशमानान् । = Shining with knowledge. (आता:) व्याप्ता दिशः । आता इति दिङ्नाम (N.G. 1, 6 ) = Directions (सुसंमुण्टासः) श्रेष्ठरीत्या सम्यक् शुद्धाः । (ऋजन्ति) साध्नुवन्ति (ऋ जन्ति) ऋञ्जतिः प्रसाधनकर्मा (NKT 6, 4, 21 ) = Accomplished, well purified.

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