ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 53/ मन्त्र 6
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अपाः॒ सोम॒मस्त॑मिन्द्र॒ प्र या॑हि कल्या॒णीर्जा॒या सु॒रणं॑ गृ॒हे ते॑। यत्रा॒ रथ॑स्य बृह॒तो नि॒धानं॑ वि॒मोच॑नं वा॒जिनो॒ दक्षि॑णावत्॥
स्वर सहित पद पाठअपाः॑ । सोम॑म् । अस्त॑म् । इ॒न्द्र॒ । प्र । या॒हि॒ । क॒ल्या॒णीः । जा॒या । सु॒ऽरण॑म् । गृ॒हे । ते॒ । यत्र॑ । रथ॑स्य । बृ॒ह॒तः । नि॒ऽधान॑म् । वि॒ऽमोच॑नम् । वा॒जिनः॑ । दक्षि॑णाऽवत् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अपाः सोममस्तमिन्द्र प्र याहि कल्याणीर्जाया सुरणं गृहे ते। यत्रा रथस्य बृहतो निधानं विमोचनं वाजिनो दक्षिणावत्॥
स्वर रहित पद पाठअपाः। सोमम्। अस्तम्। इन्द्र। प्र। याहि। कल्याणीः। जाया। सुऽरणम्। गृहे। ते। यत्र। रथस्य। बृहतः। निऽधानम्। विऽमोचनम्। वाजिनः। दक्षिणाऽवत्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 53; मन्त्र » 6
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजविषयमाह।
अन्वयः
हे इन्द्र ! यत्र बृहतो रथस्य वाजिनो निधानं विमोचनं दक्षिणावत् कार्यं तत्र स्थित्वा या ते गृहे कल्याणीर्जाया वर्त्तते तया सह तत्र रथे स्थित्वाऽस्तं प्र याहि सोममपाः पीत्वा च सुरणं गच्छ ॥६॥
पदार्थः
(अपाः) पिब (सोमम्) सर्वरोगनाशकं महौषधिरसम् (अस्तम्) गृहम् (इन्द्र) ऐश्वर्य्ययुक्त स्वामिन् (प्र) (याहि) गच्छ (कल्याणीः)। अत्र सुपां सुलुगिति सुरादेशः। (जाया) जायन्ते यस्या अपत्यानि सा (सुरणम्) सुष्ठु रणः संग्रामो यस्मात्तत् (गृहे) (ते) तव (यत्र) यस्मिन् (रथस्य) विमानादेर्यानस्य (बृहतः) महतः (निधानम्) स्थापनम् (विमोचनम्) पृथक्करणम् (वाजिनः) अग्न्यादेः पदार्थस्य (दक्षिणावत्) दक्षिणाभिस्तुल्यम् ॥६॥
भावार्थः
राजादयो विमानादीनि यानानि निर्माय तत्र कलायन्त्राणि रचयित्वाऽग्न्यादीन् संस्थाप्य विमोच्य सपत्नीका गृहमागच्छेयुर्द्देशान्तरं च गच्छेयुः यदि पत्नी शूरवीरा स्यात्तर्हि तया सह सङ्ग्रामविजयाय गच्छेयुः ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजा के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्य से युक्त स्वामिन् ! (यत्र) जिसमें (बृहतः) बड़े (रथस्य) विमान आदि वाहन के (वाजिनः) अग्नि आदि पदार्थ के (निधानम्) स्थापन और (विमोचनम्) अलग करने को (दक्षिणावत्) दक्षिणाओं के तुल्य करें और वहाँ स्थित होकर जो आपके (गृहे) गृह में (जाया) स्त्री वर्त्तमान है उसके साथ उस वाहन के ऊपर विराज कर (अस्तम्) गृह को (प्र, याहि) आइये (सोमम्) सम्पूर्ण रोगों के नाश करनेवाले महौषधि के रस का (अपाः) पान करिये और पीकर (सुरणम्) श्रेष्ठ संग्राम जिससे उसको प्राप्त होइये ॥६॥
भावार्थ
राजा आदि विमान आदि वाहनों का निर्माण कर और उसमें कलायन्त्रों को रच के तथा अग्नि आदि पदार्थों को स्थित तथा अलग करके अपनी स्त्रियों के सहित गृह में आवें और देशान्तर को जावें, जो स्त्री शूरवीरा हो तो उसके साथ संग्राम के विजय के लिये जावें ॥६॥
विषय
क्लबों में नहीं
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! (सोमं अपा:) = तूने तो सोम का पान किया है, सो (अस्तं प्रयाहि) = बाह्य प्रयोजन के समाप्त होने पर घर को ही आनेवाला बन इधर-उधर क्लबों में जाने की न सोच। (जाया) = तेरी पत्नी (कल्याणीः) = अत्यन्त मंगल करनेवाली है। (ते गृहे) = तेरे घर में सुरणम्-शुभ ही शुभ शब्द हैं। [२] यह घर में ही वापिस आना वह मार्ग है, (यत्रा) = जहाँ (बृहतः रथस्य) = वृद्धिशील शरीर रथ का निधानम् = स्थापन होता है और वाजिनः- इन्द्रियाश्वों का विमोचनम्-विषयों से मोचन होता है, जो कि दक्षिणावत्- (दक्ष् To grow) अतिशयेन वृद्धि का साधन होता है, अर्थात् इधर-उधर न भटकने से शरीर स्वस्थ बना रहेगा और विषयों में अनासक्त इन्द्रियाँ दिन-व-दिन बढ़ती हुई शक्तिवाली होंगी।
भावार्थ
भावार्थ- मनुष्य यदि अपनी उन्नति चाहता है, तो उसे एक सद्गृहस्थ का ही जीवन बिताना चाहिये, न कि क्लब का ।
विषय
ऐश्वर्य कमा कर दुनिया के सुख उत्तम स्त्री, जाया, रथ, भवन आदि को प्राप्त करने का उपदेश।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! तू (सोमम् अपाः) उत्तम सोमादि ओषधि रस का पान कर, ऐश्वर्य का पालन कर। (अस्तं प्रयाहि) घर को उत्तम रीति से जाया कर। (ते गृहे) तेरे घर में (जाया) स्त्री (कल्याणीः) कल्याणकारिणी, सुखप्रद, सौभाग्यवती और (सुरणं) सुखपूर्वक रमण करने वाली हो। और तेरे घर में (बृहतः रथस्य निधानं) बढ़े रथ और रमणीय पदार्थों को रखने का स्थान एवं ख़ज़ाना हो और (वाजिनः विमोचनं) अश्व को खोलने का स्थान (दक्षिणावत्) दक्षिणायुक्त उत्तम यज्ञ आदि हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १ इन्द्रापर्वतौ। २–१४, २१-२४ इन्द्रः। १५, १६ वाक्। १७—२० रथाङ्गानि देवताः॥ छन्दः- १, ५,९, २१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १४, १७, १९, २३, २४ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२,२२ अनुष्टुप्। २० भुरिगनुष्टुप्। १०,१६ निचृज्जगती। १३ निचृद्गायत्री। १८ निचृद् बृहती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्।
मराठी (1)
भावार्थ
राजा इत्यादींनी विमान वगैरे वाहने निर्माण करावीत. त्यात कलायंत्रे बसवावीत. त्यात अग्नी इत्यादी पदार्थ स्थित व पृथक करावेत. आपल्या स्त्रियांबरोबर घरी यावे व देशान्तरी जावे. शूरवीरा स्त्रीबरोबर युद्धात विजयप्राप्तीसाठी जावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord of peace and joy and brilliance, drink the soma, go home, the delightful haven, there is your blessed love, there is the start and finish of your grand chariot journey for the brilliant battle, there is the harnessing and unharnessing of the horses. And there you are abundant with charity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the rulers are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Indra (prosperous King) ! dwell in an abode where there is place for parking of big, aircraft and other vehicles and for using and disconnecting fire (electricity). I like the sacrificial offerings and homes with your auspicious or blissful wife. Along with your wife, go to distant places in such comfortable vehicles and come back home. (Drink Soma invigorating and disease— destroying juice) and then go to the battle-field.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the king and other administrators to manufacture aircraft and other good vehicles, to use suitable machines equipped with fire (electricity) etc., to disconnect them when the work is done and go to distant lands with their wives. If the wives also are warrior and brave, they should take them along for achieving victory in the battle.
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