ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 53/ मन्त्र 7
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒मे भो॒जा अङ्गि॑रसो॒ विरू॑पा दि॒वस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्य वी॒राः। वि॒श्वामि॑त्राय॒ दद॑तो म॒घानि॑ सहस्रसा॒वे प्र ति॑रन्त॒ आयुः॑॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मे । भो॒जाः । अङ्गि॑रसः । विऽरू॑पाः । दि॒वः । पु॒त्रासः॑ । असु॑रस्य । वी॒राः । वि॒श्वामि॑त्राय । दद॑तः । म॒घानि॑ । स॒ह॒स्र॒ऽसा॒वे । प्र । ति॒र॒न्ते॒ । आयुः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमे भोजा अङ्गिरसो विरूपा दिवस्पुत्रासो असुरस्य वीराः। विश्वामित्राय ददतो मघानि सहस्रसावे प्र तिरन्त आयुः॥
स्वर रहित पद पाठइमे। भोजाः। अङ्गिरसः। विऽरूपाः। दिवः। पुत्रासः। असुरस्य। वीराः। विश्वामित्राय। ददतः। मघानि। सहस्रऽसावे। प्र। तिरन्ते। आयुः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 53; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे राजन् ! य इमेऽङ्गिरस इव भोजा विरूपा दिवोऽसुरस्य पुत्रासो वीराः सहस्रसावे विश्वामित्राय मघानि ददतः सन्त आयुः प्र तिरन्ते त एव भवता सत्कृत्य रक्षणीयाः ॥७॥
पदार्थः
(इमे) (भोजाः) भोक्तारः प्रजापालकाः (अङ्गिरसः) प्राणा इव बलिष्ठाः (विरूपाः) विविधरूपा विकृतरूपा वा (दिवः) प्रकाशस्वरूपस्य (पुत्रासः) वायुरिव बलिष्ठाः (असुरस्य) शत्रूणां प्रक्षेपकस्य (वीराः) व्याप्तयुद्धविद्याः (विश्वामित्राय) विश्वं सर्वं जगन्मित्रं यस्य तस्मै (ददतः) (मघानि) अत्युत्तमानि धनानि (सहस्रसावे) सहस्रस्याऽसङ्ख्यस्य धनस्य सावः प्रसवो यस्मिन् सङ्ग्रामे (प्र) (तिरन्ते) उल्लङ्घन्ते (आयुः) जीवनम् ॥७॥
भावार्थः
हे राजन् ! भवानीदृशैर्वीरैः सहितां हृष्टां पुष्टां युद्धविद्यायां कुशलां सेनामुन्नीय सर्वदा विजयस्व ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे राजन् ! जो (इमे) ये (अङ्गिरसः) प्राणों के सदृश बलयुक्त (भोजाः) भोजन करने तथा प्रजा के पालन करनेवाले (विरूपाः) अनेक प्रकार के रूप वा विकारयुक्त रूपवाले और (दिवः) प्रकाशस्वरूप (असुरस्य) शत्रुओं के फेंकनेवाले के (पुत्रासः) वायु के समान बलिष्ठ (वीराः) युद्धविद्या में परिपूर्ण (सहस्रसावे) संख्यारहित धन की उत्पत्ति जिसमें उस संग्राम में (विश्वामित्राय) संपूर्ण संसार मित्र है जिसका उसके लिये (मघानि) अतिश्रेष्ठ धनों को (ददतः) देते हुए जन (आयुः) जीवन का (प्र, तिरन्ते) उल्लङ्घन करते हैं वे ही लोग आपसे सत्कारपूर्वक रक्षा करने योग्य हैं ॥७॥
भावार्थ
हे राजन् ! आप ऐसे वीरों के सहित प्रसन्न पुष्ट और युद्ध विद्या में कुशल सेना की वृद्धि करके सर्वदा विजय को प्राप्त होइये ॥७॥
विषय
भोज बनना व दीर्घजीवी होना
पदार्थ
[१] गतमन्त्र के अनुसार एक सद्गृहस्थ का जीवन बितानेवाले (इमे) = ये व्यक्ति (भोजाः) = अपना व दूसरों का पालन करनेवाले होते हैं- परिवार का समुचित पालन करते हैं। विषयासक्त न होने से (अंगिरस) = अंग-प्रत्यंग में रसवाले होते हैं। विरूपा:-विशिष्टरूपवाले होते हैं- तेजस्वी होते हैं। दिवः पुत्रासः = ये ज्ञान के पुतले बनते हैं- अत्यन्त ज्ञानी तथा असुरस्य उस महान् प्राणशक्ति का संचार करनेवाले प्रभु के वीराः- वीरपुत्र होते हैं । (२) ये व्यक्ति विश्वामित्राय - सब के मित्र उस प्रभु के लिए मघानि धनों को ददत:- देते हुए सहस्त्रसावे शतश: यज्ञों में प्रवृत्त हुए हुए आयुः प्रतिरन्ते अपने आयुष्य को बढ़ाते हैं। प्रभु के लिए धन देने का भाव यही है कि लोकहित के लिए धनों को देना । वस्तुतः लोकहित के लिए धनों को देना ही यज्ञ है। इस यज्ञ में प्रवृत्त होने पर जीवन विलासमय नहीं बनता, परिणामतः यह व्यक्ति दीर्घजीवन प्राप्त करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम औरों का पालन करते हुए, लोकहित के लिए धन का विनियोग करते यज्ञशील बनें और दीर्घजीवनवाले हों ।
विषय
समृद्धों को दान का उपदेश।
भावार्थ
(इमे) ये (भोजाः) प्रजाओं के पालक, रक्षक (अंगिरसः) देह में प्राणों के तुल्य राष्ट्र में जीवित जागृत एवं अंगारों के सदृश तेजस्वी (विरूपाः) विविध रूपों वाला (दिवः) प्रकाशमान सूर्य के तुल्य (असुरस्य) बलवान् सेनानायक के (पुत्रासः) पुत्रों के तुल्य (वीराः) वीर, वीर्यवान् बलवान् पुरुष (सहस्रसावे) सहस्रों प्रकार के ऐश्वर्यों के लाभ कराने वाले संग्राम में (विश्वामित्राय) सबके स्नेही और सबको मरने से बचाने वाले नायक को (मघानि) नाना प्रकार के ऐश्वर्य (ददतः) देते हुए (आयुः प्रतिरन्त) जीवन की वृद्धि करें या जीवन व्यतीत करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ १ इन्द्रापर्वतौ। २–१४, २१-२४ इन्द्रः। १५, १६ वाक्। १७—२० रथाङ्गानि देवताः॥ छन्दः- १, ५,९, २१ निचृत्त्रिष्टुप्। २, ६, ७, १४, १७, १९, २३, २४ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १५ स्वराट् त्रिष्टुप्। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्। १२,२२ अनुष्टुप्। २० भुरिगनुष्टुप्। १०,१६ निचृज्जगती। १३ निचृद्गायत्री। १८ निचृद् बृहती॥ चतुर्विंशत्यृचं सूक्तम्।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा! तू प्रसन्न, पुष्ट व युद्ध विद्येत कुशल वीरांसह सेनेची वृद्धी करून सदैव विजय प्राप्त कर. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
These lovers and creators of food, scholars of the secrets of the body system and inspirers of pranic energies, various children of the light of heaven, heroes of universal vitality, giving health and wealth of life to the darling friend of humanity cross over the seas of existence through a hundred yajnic programmes of action.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of rulers are elaborated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king! you should protect those brave persons who are mighty like the Pranas (Vital airs), multiformed, sons of the enlightened persons, and are valiant fighters with the enemies. They throw missiles in the battle, give wealth in charity to those who have regard for all their friends and thus lengthening the span of their lives.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! you should always achieve victory by raising an army consisting of brave and mighty persons because they are well-versed in the art of warfare.
Foot Notes
(अंङ्गिरस:) प्राणा इव बलिष्ठः । प्राणो वा आंगिरा. (Stph 6, 1, 2, 28)= Mighty like the Pranas (Vital airs) (विश्वामित्राय) विश्वं संर्व जगन्मित्रं यस्य तस्मै । = For him who regards the whole world as friend. (भोजा:) भोक्तारः प्रजापालका: Protectors of the people. भोजा: is from भुज — पालनाभ्यवहारयोः । Here the meaning of protection has been taken. । (सहस्रसांवे ) सहस्रस्यासंङ्ख्यस्य धनस्य साव: प्रसवो यस्मिन् संग्रामे। = In the battle in which much wealth is gained by defeating the enemy. Prof. Wilson, Griffith and others have taken Bhoja, Angirah and Vishvāmitra as Proper Nouns and interpreted them as the names of some particular individuals. In fact, these are derivative words denoting some attributes and should be taken in general terms and as. attributes or Common Noun.
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