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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 57 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 57/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अच्छा॑ विवक्मि॒ रोद॑सी सु॒मेके॒ ग्राव्णो॑ युजा॒नो अ॑ध्व॒रे म॑नी॒षा। इ॒मा उ॑ ते॒ मन॑वे॒ भूरि॑वारा ऊ॒र्ध्वा भ॑वन्ति दर्श॒ता यज॑त्राः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छ॑ । वि॒व॒क्मि॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । सु॒मेके॒ इति॑ सु॒ऽमेके॑ । ग्राव्णः॑ । यु॒जा॒नः । अ॒ध्व॒रे । म॒नी॒षा । इ॒माः । ऊँ॒ इति॑ । ते॒ । मन॑वे । भूरि॑ऽवाराः । ऊ॒र्ध्वाः । भ॒व॒न्ति॒ । द॒र्श॒ताः । यज॑त्राः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छा विवक्मि रोदसी सुमेके ग्राव्णो युजानो अध्वरे मनीषा। इमा उ ते मनवे भूरिवारा ऊर्ध्वा भवन्ति दर्शता यजत्राः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छ। विवक्मि। रोदसी इति। सुमेके इति सुऽमेके। ग्राव्णः। युजानः। अध्वरे। मनीषा। इमाः। ऊँ इति। ते। मनवे। भूरिऽवाराः। ऊर्ध्वाः। भवन्ति। दर्शताः। यजत्राः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 57; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ स्त्रीपुरुषयोः कृत्यमाह।

    अन्वयः

    हे विद्वांसोऽस्मिन्नध्वरे या इमा मनीषा सह वर्त्तमाना भूरिवारा दर्शता यजत्रा ऊर्ध्वा भवन्ति ता युजानो भवन्तो ग्राव्ण इव संयोगात्सुखिनो भवन्ति यौ स्त्रीपुरुषौ सुमेके रोदसी इव ते मनवे वर्त्तेते तौ तान् प्रत्यु अहमच्छ विवक्मि ॥४॥

    पदार्थः

    (अच्छ) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (विवक्मि) विशेषेणोपदिशामि (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव (सुमेके) सुष्ठ्वेकीभूते (ग्राव्णः) मेघात् (युजानः) (अध्वरे) संगन्तव्ये व्यवहारे (मनीषा) प्रज्ञया (इमाः) प्रजाः (उ) आश्चर्य्ये (ते) तुभ्यम् (मनवे) मनुष्याय (भूरिवाराः) भूरि बहुविधं सुखं वृण्वन्ति (ऊर्ध्वाः) उत्कृष्टाः (भवन्ति) (दर्शताः) द्रष्टुं योग्याः (यजत्राः) संगन्तुं पूजितुमर्हाः ॥४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यौ स्त्रीपुरुषौ भूमिसूर्य्याविव संयुक्तौ वर्त्तेते तौ भाग्यशालिनौ भवतः ये स्त्रीपुरुषाः सम्यक् परीक्ष्य स्वयंवरं विवाहं कुर्युस्ते मेघवदुत्तमान्यपत्यान्युत्पाद्य सर्वदा सुखिनो जायन्ते ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब स्त्रीपुरुषों के कृत्य का अगले मन्त्र में उपदेश करते हैं।

    पदार्थ

    हे विद्वानो ! इस (अध्वरे) मेल करने योग्य व्यवहार में जो (इमाः) ये प्रजायें (मनीषा) बुद्धि के सहित वर्त्तमान (भूरिवाराः) अनेक प्रकार के सुख को प्राप्त होनेवाली (दर्शताः) देखने तथा (यजत्राः) मेल और सत्कार करने योग्य (ऊर्ध्वाः) उत्तम (भवन्ति) होती हैं उनको (युजानः) प्राप्त होते हुए आप लोग (ग्राव्णः) मेघ के सदृश संयोग से सुखी होते हैं और जो स्त्री पुरुष (सुमेके) उत्तम प्रकार एक हुए (रोदसी) अन्तरिक्ष और पृथिवी के तुल्य (ते) आप (मनवे) मनुष्य के लिये वर्त्तमान हैं उन दोनों और उन आप लोगों के प्रति (उ) आश्चर्य के साथ मैं (अच्छ) उत्तम प्रकार (विवक्मि) विशेष करके उपदेश देता हूँ ॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो स्त्री और पुरुष पृथिवी और सूर्य के सदृश संयुक्त हुए वर्त्तमान हैं, वे भाग्यशाली होते हैं। जो स्त्री और पुरुष उत्तम प्रकार परीक्षा करके स्वयंवर विवाह को करैं, वे मेघ के सदृश उत्तम सन्तानों को उत्पन्न करके सब काल में सुखी होते हैं ॥४॥

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    विषय

    ज्ञान द्वारा यज्ञिय जीवन

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि मैं (सुमेके) = उत्तम निर्माणवाली (रोदसी) = द्यावापृथिवी को अच्छा-लक्ष्य करके (ग्राव्णः) = स्तोताओं को (अध्वरे युजान:) = हिंसारहित र्मों में युक्त करने के हेतु से [हेतौ शानच्] (मनीषा:) = बुद्धि द्वारा (विवक्मि) = विशेषरूप से उपदिष्ट करता हूँ। द्यावापृथिवी का इन स्तोताओं को ज्ञान देता हूँ। द्यावापृथिवीस्थ सब पदार्थों के ठीक ज्ञान से ही ये स्तोता अपने अध्वरों को ठीक प्रकार से कर सकेंगे। [२] (ते मनवे) = तुझ विचारशील पुरुष के लिए (उ) = निश्चय से (इमाः) = ये ज्ञान की वाणियाँ (भूरिवारा:) = अत्यन्त ही वरणीय पदार्थों को प्राप्त करानेवाली होती हैं तथा (दर्शताः) = काव्यमय रूप में सुन्दर व दर्शनीय ये वाणियाँ (यजत्राः) = संगतिकरण योग्य होती हैं और (ऊर्ध्वाः भवन्ति) = इसके जीवन में सर्वोपरि होती हैं। विचारशील पुरुष ज्ञान को सर्वाधिक महत्त्व देता है। वह नचिकेता की तरह कभी भी सांसारिक वस्तुओं में न फँसकर आत्मज्ञान की ही कामना करता है । 0

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु हमें द्यावापृथिवी का ज्ञान देते हैं, ताकि हम उत्तम यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त हो सकें। ज्ञानीपुरुष अपने जीवन में इस ज्ञान को ही सर्वोपरि स्थान देता है।

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    विषय

    स्त्रियों के आदर करने का उपदेश।

    भावार्थ

    मैं (मनीषा) उत्तम बुद्धि से (अध्वरे) हिंसारहित परस्पर घात या विनाश न करने वाले कार्य में (ग्राव्णः) उत्तम उपदेष्टा, लोगों को (युजानः) संयुक्त करता हुआ (सुमेके) उत्तम रीति से वीर्य निषेकादि करने में समर्थ (रोदसी) सूर्य और भूमि के समान युवा स्त्री पुरुष दोनों को (अच्छ विवक्मि) अच्छी प्रकार उपदेश करता हूं। हे पुरुष ! (ते मनवे) तुझ मननशील के लिये (इमाः) ये स्त्रियें (भूरिवाराः) बहुत प्रकार के सुख धनादि को चाहती हुईं (दर्शताः) दर्शनीय, उत्तम रूप वाली (यजत्राः) सत्संग, मैत्री करने वाली होकर भी (ऊर्ध्वाः) अग्नि की ज्वालाओं के समान ऊपर रहने वाली, आदरणीय ही (भवन्ति) होती हैं।

    टिप्पणी

    पितृभिर्भ्रातृभिश्चैता पतिभिर्देवरैस्तथा। पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:- १, ३, ४ त्रिष्टुप् । २, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप॥ धैवतः स्वरः॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे स्त्री व पुरुष पृथ्वी व सूर्याप्रमाणे संयुक्त असतात ते भाग्यशाली असतात. जे स्त्री व पुरुष उत्तम प्रकारे परीक्षा करून स्वयंवर विवाह करतात ते मेघाप्रमाणे उत्तम संतान उत्पन्न करून सदैव सुखी होतात. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O men and women abundant and generous as clouds, joined together in home yajna, with the best of mind in the best of words, I revere and celebrate heaven and earth, man and woman joined together with heart and mind in marriage as two-in-one. O men, these women are showers of love and joy and prosperity for you. They rise high, sweet and soothing and beautiful, equal partners in the family yajna and divine procreation, worthy of respect and reverence as the flames of yajna fire.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of husbands-wives pairs are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons, ! in this non-violent (pleasant) behavior of cohabitation, you become happy like the clouds. Thus you unite those who are endowed with intellect, seek happiness of various kinds, of exalted visual and adorable nature, You give proper guidance to those husbands and wives who are like the sun and the earth and who unite well with love for giving birth to a thoughtful progeny.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those husbands and wives who are united like the sun and the earth are very fortunate. Those men and women who marry of their own accord, having well examined each other, they would be real partners, beget good children like the clouds and enjoy happiness.

    Foot Notes

    (अध्वरे ) संगन्तव्ये व्यवहारे । अध्वर इति यज्ञनाम ध्वरति हिंसाकर्मा तत्प्रतिषेध: ( NRT 1, 7 ) = In the non-violent (please ! behavior of uniting (co-habitation). (सुमेके) सुष्ठ्वेकीभूते । United well with love. (रोदसी) द्यावापृथिव्याविव । रोदसीति द्यावापृथिवीनाम (NG 3, 30, ) = Who are like the sun and the earth.

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