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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 57 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 57/ मन्त्र 6
    ऋषिः - विश्वामित्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    या ते॑ अग्ने॒ पर्व॑तस्येव॒ धारास॑श्चन्ती पी॒पय॑द्देव चि॒त्रा। ताम॒स्मभ्यं॒ प्रम॑तिं जातवेदो॒ वसो॒ रास्व॑ सुम॒तिं वि॒श्वज॑न्याम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । ते॒ । अ॒ग्ने॒ । पर्व॑तस्यऽइव । धारा॑ । अस॑श्चन्ती । पी॒पय॑त् । दे॒व॒ । चि॒त्रा । ताम् । अ॒स्मभ्य॑म् । प्रऽम॑तिम् । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । वसो॒ इति॑ । रास्व॑ । सु॒ऽम॒तिम् । वि॒श्वऽज॑न्याम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या ते अग्ने पर्वतस्येव धारासश्चन्ती पीपयद्देव चित्रा। तामस्मभ्यं प्रमतिं जातवेदो वसो रास्व सुमतिं विश्वजन्याम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या। ते। अग्ने। पर्वतस्यऽइव। धारा। असश्चन्ती। पीपयत्। देव। चित्रा। ताम्। अस्मभ्यम्। प्रऽमतिम्। जातऽवेदः। वसो इति। रास्व। सुऽमतिम्। विश्वऽजन्याम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 57; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 2; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स्त्रीपुरुषयोः कृत्यमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने ते यासश्चन्ती चित्रा पर्वतस्येव धारा पीपयत्तां प्रमतिं विश्वजन्यां सुमतिं त्वं रास्व। हे देव वसो जातवेदो भगवँस्त्वं दम्पतीभ्योऽस्मभ्यमेतां विद्यां प्रज्ञां वाचमीदृशीं स्त्रियमीदृशं पतिं च कृपया देहि यतो वयं सर्वदा सुखिनो भवेम ॥६॥

    पदार्थः

    (या) (ते) तव (अग्ने) स्त्रि पुरुष वा (पर्वतस्येव) मेघस्येव (धारा) प्रवाहवद्वाणी। धारेति वाङ्नाम। निघं० १। ११। (असश्चन्ती) असमवयन्ती (पीपयत्) पिबति (देव) दिव्यगुणसम्पन्न (चित्रा) अद्भुता (ताम्) (अस्मभ्यम्) (प्रमतिम्) प्रकृष्टां प्रज्ञाम् (जातवेदः) जातेषु विद्यमानेश्वर (वसो) सर्वत्र वसन् (रास्व) देहि। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (सुमतिम्) शोभनप्रज्ञां स्त्रियमुत्तमप्रज्ञं पुरुषं वा (विश्वजन्याम्) विश्वं समग्रमपत्यं जायते यस्यास्ताम् ॥६॥

    भावार्थः

    स्त्रीपुरुषैर्ब्रह्मचर्य्येण विद्यासुशिक्षाः प्राप्य युवावस्थायां तुल्यगुणकर्मस्वभावान्त्सुपरीक्ष्य द्विगुणबलायुष्कं पतिं हृद्यां च प्राप्य गृहाश्रमे सुखेन निवसनीयमिति ॥६॥ । अत्र वाक्प्रज्ञागृहाश्रमस्त्रीपुरुषविवाहकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह संगतिर्वेद्या ॥ इति सप्तपञ्चाशत्तमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर स्त्री पुरुष के कृत्य को अगले मन्त्र में कहते हैं।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) स्त्रि या पुरुष ! (ते) आपकी (या) जो (असश्चन्ती) असम्बन्ध रखती हुई (चित्रा) अद्भुत (पर्वतस्येव) मेघ के (धारा) प्रवाह के सदृश वाणी बुद्धि को (पीपयत्) पीती है (ताम्) उस (प्रमतिम्) उत्तम बुद्धि को और (विश्वजन्याम्) जिससे सम्पूर्ण सन्तान उत्पन्न होता है उस (सुमतिम्) उत्तम बुद्धिवाली स्त्री वा उत्तम बुद्धिवाले पुरुष को आप (रास्व) दीजिये। हे (देव) उत्तम गुणों से युक्त (वसो) सर्वत्र वसते हुए (जातवेदः) उत्पन्न हुए पदार्थों में विद्यमान भगवन् ईश्वर ! आप (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये ऐसी विद्या बुद्धि वाणी और ऐसी स्त्री तथा ऐसे पति के कृपा से दीजिये, जिससे कि हम लोग सदा सुखी होवें ॥६॥

    भावार्थ

    स्त्री और पुरुषों को चाहिये कि ब्रह्मचर्य्य से विद्या और उत्तम शिक्षाओं को प्राप्त होकर युवावस्था में तुल्य गुण-कर्म और स्वभावों की परीक्षा करके द्विगुण बल और अवस्थावाले पति और प्रेमपात्र स्त्री को प्राप्त होकर गृहाश्रम में सुख से रहें ॥६॥ इस सूक्त में वाणी बुद्धि गृहाश्रम और स्त्री पुरुषों के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह सत्तावनवाँ सूक्त और दूसरा वर्ग पूरा हुआ ॥

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    विषय

    विश्वजन्या वेदवाणी

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = सृष्टि के अग्रणी प्रभो ! (देव) = प्रकाशमय प्रभो ! (याः) = जो (ते) = आपकी (पर्वतस्य धारा इव) = पर्वत की धारा की तरह (असश्चन्ती) = [सश्च cling or stick to] कहीं आसक्त न होती हुई (चित्रा) = अद्भुत व ज्ञानप्रदा [चित्+र] वेदज्ञान की धारा है, वह (पीपयत्) = हमारा आप्यायन करती है। [२] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ, (वसो) = ज्ञान द्वारा हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले प्रभो ! (ताम्) = उस (प्रमतिम्) = प्रकृष्ट ज्ञान को (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (रास्व) = दीजिए। जो वेदज्ञान (सुमतिम्) = हमें उत्तम मति देनेवाला है तथा (विश्वजन्याम्) = सब लोगों का हित करनेवाला है।

    भावार्थ

    भावार्थ– वेदज्ञान की धारा सतत प्रवाहवाली है। इसमें स्नान करके हम भी सुमति प्राप्त करें तथा सर्वलोकहित में प्रवृत्त हों। प्रस्तुत सूक्त में वेदवाणी के विषय में सब कुछ कह दिया गया है। क्या तो उसकी प्राप्ति साधन हैं ? और क्या फल है ? इसका सम्यक् प्रतिपादन हो गया है। अगले सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि हम प्रातः- प्रातः इसका अध्ययन करें-

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    विषय

    नदीवत् वाणी।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! हे विद्वन् ! तेजस्विन् ! (पर्वतस्य इव धारा) पर्वत से निकलती नदी या मेघ से निकलती धारा या मेघ से निकलती वाणी गर्जना जिस प्रकार (असश्चन्ती) अनासक्त (निःसङ्ग) रहती हुई, (चित्रा) अद्भुत मार्ग से गति करती हुई (पीपयत्) अन्नादि ओषधियों को पुष्ट करती है उसी प्रकार (या) जो (पर्वतस्य) पालन करने वाले, या पर्वो अध्यायों से युक्त ग्रन्थ के समान ज्ञानवान् (ते) तेरी (धारा) ज्ञान धारण करने वाली (चित्रा) आश्चर्यकारिणी अद्भुत वाणी या शुभ मति (पीपयत्) सबको तृप्त करती है (ताम्) उस (प्रमतिं) उत्तम कोटि के ज्ञान से युक्त (विश्व-जन्याम्) समस्त जनों की हितकारिणी (सुमतिं) शुभ मति को या शुभ ज्ञानमयी वाणी को (देव) हे विद्वन् ! हे ज्ञानदातः ! हे (जातवेदः) समस्त उत्पन्न पदार्थों के जानने हारे ! हे (वसो) अपने अधीन प्रजाओं और शिष्यों का बसाने हारे ! तू (अस्मभ्यं रास्व) हमें प्रदान कर। (२) पालक राजा की धारा, वाणी, हम सैनिकों को बलवान् और शुभ ज्ञानयुक्त सर्वजन हितकारिणी हो। इति द्वितीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विश्वामित्र ऋषिः॥ विश्वे देवा देवताः॥ छन्द:- १, ३, ४ त्रिष्टुप् । २, ५, ६ निचृत्त्रिष्टुप॥ धैवतः स्वरः॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    स्त्री व पुरुषांनी ब्रह्मचर्याने विद्या व उत्तम शिक्षण प्राप्त करून युवावस्थेत समान गुण, कर्म, स्वभावाची परीक्षा करून दुप्पट बल व अवस्था असणाऱ्या पती व प्रिय स्त्रीसह गृहस्थाश्रमात सुखी राहावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, presiding power and light divine of the yajnic home, wonderful is the flame and fragrant flow of your generosity which swells and showers like the streams of a cloud without reserve or fear or favour. With that same abundant flow, pioneer intelligence, noble wisdom and universal mother fertility, O treasure home of prosperity and power omniscient and omnipresent, we pray, bless us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of married couple are defined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O leading man or woman endowed with divine virtues! give us that wonderful speech which is like the rain shower from the cloud because it is free from evil ideas and satisfies to all. It is equally good intellect, beneficent to all mankind. O Omnipresent and Omniscient God! you are everywhere. We desire to lead ideal hosnatlfe like an intelligent noble wife or husbands endowed with noble intellect and wisdom who can beget noble progeny. Grant us all that.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men and women should receive good education and wisdom by the observance of Brahmacharya, should procure suit- able and loving match in youth after proper examination and should live happily during their married life.

    Foot Notes

    (पर्वतस्यैव ) मेघस्येव । पर्वत इति मेघनाम (NG 1, 10) = Of the cloud. (धारा) प्रवाहवद् वाणी । धारेति वाङ्नाम (NG 1, 11 ) = Fluent speech. = (असश्चन्ती) असमवयन्ती । सश्चति गतिकर्मा (NG 2, 14) = Not mixed with evil ideas of words. (विश्वजन्याम् ) विश्वां समग्रम् अपत्यंजायते यव्पास्ताम्। = Giving birth to whole or noble progeny.

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