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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 12/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒ग्निरी॑शे बृह॒तः क्ष॒त्रिय॑स्या॒ग्निर्वाज॑स्य पर॒मस्य॑ रा॒यः। दधा॑ति॒ रत्नं॑ विध॒ते यवि॑ष्ठो॒ व्या॑नु॒षङ्मर्त्या॑य स्व॒धावा॑न् ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । ई॒शे॒ । बृ॒ह॒तः । क्ष॒त्रिय॑स्य । अ॒ग्निः । वाज॑स्य । प॒र॒मस्य॑ । रा॒यः । दधा॑ति । रत्न॑म् । वि॒ध॒ते । यवि॑ष्ठः । वि । आ॒नु॒षक् । मर्त्या॑य । स्व॒धाऽवा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निरीशे बृहतः क्षत्रियस्याग्निर्वाजस्य परमस्य रायः। दधाति रत्नं विधते यविष्ठो व्यानुषङ्मर्त्याय स्वधावान् ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। ईशे। बृहतः। क्षत्रियस्य। अग्निः। वाजस्य। परमस्य। रायः। दधाति। रत्नम्। विधते। यविष्ठः। वि। आनुषक्। मर्त्याय। स्वधाऽवान् ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 12; मन्त्र » 3
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे राजप्रजाजना ! योऽग्निरिव क्षत्रियस्य बृहतो वाजस्य परमस्य राय ईशे यविष्ठः स्वधावानानुषग् विधते मर्त्यायाग्निरिव रत्नं विदधाति स सर्वैः सत्कर्त्तव्यः ॥३॥

    पदार्थः

    (अग्निः) पावक इव (ईशे) ईष्टे ऐश्वर्य्यं करोति (बृहतः) महतः (क्षत्रियस्य) क्षात्रधर्मयुक्तस्य (अग्निः) विद्युदिव वर्त्तमानः (वाजस्य) वेगस्य विज्ञानस्य वा (परमस्य) अत्युत्तमस्य (रायः) धनादेर्मध्ये (दधाति) (रत्नम्) रमणीयं धनम् (विधते) विधानं कुर्वते (यविष्ठः) अतिशयेन युवा शरीरात्मबलयुक्तः (वि) (आनुषक्) अनुकूलः (मर्त्याय) मरणधर्माय (स्वधावान्) बह्वन्नादियुक्तः ॥३॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः सूर्य्यवद्विद्युदिव राज्यैश्वर्य्यस्योन्नतिं कुर्वाणाः कीर्तिं प्रसारयन्ति ते सर्वतः सर्वथा सत्कारमाप्नुवन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे राजा और प्रजाजनो ! जो (अग्निः) अग्नि के सदृश जन (क्षत्रियस्य) क्षात्रधर्मयुक्त (बृहतः) बड़े (वाजस्य) वेग विज्ञान और (परमस्य) अत्यन्त श्रेष्ठ (रायः) धन आदि के मध्य में (ईशे) ऐश्वर्य्य करता है तथा (यविष्ठः) अत्यन्त युवा अर्थात् शरीर और आत्मा के बल से और (स्वधावान्) बहुत अन्न आदि से युक्त (आनुषक्) अनुकूल हुआ (विधते) विधान करते हुए (मर्त्याय) मरण धर्मवाले मनुष्य के लिये (अग्निः) बिजुली के समान वर्त्तमान (रत्नम्) रमण करने योग्य धन को (वि, दधाति) विधान करता है, वह सब लोगों से सत्कार करने योग्य है ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो मनुष्य सूर्य्य और बिजुली के सदृश राज्य और ऐश्वर्य्य की उन्नति करते हुए यश को विस्तारते हैं, वे सब से सब प्रकार सत्कार को प्राप्त होते हैं ॥३॥

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    विषय

    क्षत्रिय-वाज-परमधन-रत्न

    पदार्थ

    (१) (अग्निः) = वे प्रभु (बृहतः) = वृद्धि के कारणभूत (क्षत्रियस्य) = बल के (ईशे) = ईश हैं। (अग्निः) = वे प्रभु ही (वाजस्य) = [वज गतौ] सब गतिशीलता के व (परमस्य रायः) = सर्वोत्कृष्ट ज्ञानैश्वर्य के ईश हैं। उपासक को भी क्षतों से त्राण करनेवाला बल, गतिशीलता व उत्कृष्ट ज्ञानैश्वर्य प्राप्त कराते हैं । [२] वे (यविष्ठः) = बुराइयों को दूर करनेवाले प्रभु (स्वधावान्) = आत्मधारण शक्तिवाले हैं। वे (विधते मर्त्याय) = पूजा करनेवाले मनुष्य के लिये (आनुषक्) = निरन्तर (रत्नम्) = रमणीय पदार्थों को (विदधाति) = विशेषरूप से धारण करते हैं। इन रत्नों को प्राप्त करके यह उपासक भी 'स्व धावान्' बनता है, अपना धारण करनेवाला होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ-प्रभु के उपासक को 'क्षतों से बचानेवाला बल, गतिशीलता, उत्कृष्ट ज्ञानैश्वर्य व रमणीय वस्तुएँ' प्राप्त होती हैं। इनके द्वारा वह आत्मधारण करनेवाला बनता है।

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    विषय

    अग्नि का स्वरूप, अग्निवत् तेजस्वी अग्र नायक । उसके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    अग्नि का स्वरूप बतलाते हैं । (अग्निः) अग्नि के समान तेजस्वी अग्र नायक पुरुष ही (बृहतः) बड़े भारी (क्षत्रियस्य) क्षत्रिय अर्थात् क्षात्र-धर्म युक्त बल का (ईशे) स्वामी है । (अग्निः) वह अग्रणी पुरुष, (परमस्य) सबसे उत्कृष्ट (वाजस्य) बल और (रायः) ऐश्वर्य का (ईशे) स्वामी हो। वह (यविष्ठः) अति युवा, बलवान् पुरुष (स्वधावान्) अपने राष्ट्र के धारण, पालन करने की शक्ति से युक्त होकर (आनुषक्) सबके अनुकूल होकर, (विधते) सेवा परिचर्या या कर्म करने वाले (मर्त्याय) मनुष्य के हितार्थ (रत्नं) नाना रमणीय पदार्थ, धन अन्न आदि (वि दधाति) प्रदान करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः— १, ५ निचृत्त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३,४ भुरिक् पंक्तिः । ६ पंक्तिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जी माणसे सूर्य व विद्युतप्रमाण्ेा राज्य व ऐश्वर्याची वाढ करतात व यश वाढवितात ती सर्वांकडून सर्व प्रकारे सत्कार करवून घेण्यास पात्र असतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni rules and commands the great order of defence, governance and law of society. Agni rules over the highest wealth of food, energy and movement. Strongest and most youthful, Agni, holding and commanding his own essential sustenance, food, energy and power, ever in unison with the celebrant, bears and secures the jewel assets of life for mortal humanity all round.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties and qualities of the learned persons are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O rulers and the people ! that man should be respected by all who like the purifying fire is the master (leader) of the great Kshatriyas (brave warriors) and others. Like the electricity, he should be the master of the scientific knowledge and exalted wealth. Being endowed with physical and spiritual wealth and abundant food materials, he being agreeable, gives to the worshipper of God and followers of the laws of the State previous gift or wealth like Agni (fire and electricity etc.)

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons advancing the prosperity of the State, shine like the sun and electricity and spread its good reputation. They are respected everywhere.

    Foot Notes

    (यविष्ठः) अतिशयेन युवा शरीरात्मबलयुक्तः। = A young man endowed with physical and spiritual power, most energetic. (वाजस्य ) वेगस्य विज्ञानस्य वा । = Of speed or scientific knowledge.

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