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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 12 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 12/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    यथा॑ ह॒ त्यद्व॑सवो गौ॒र्यं॑ चित्प॒दि षि॒ताममु॑ञ्चता यजत्राः। ए॒वो ष्व१॒॑स्मन्मु॑ञ्चता॒ व्यंहः॒ प्र ता॑र्यग्ने प्रत॒रं न॒ आयुः॑ ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । ह॒ । त्यत् । व॒स॒वः॒ । गौ॒र्य॑म् । चि॒त् । प॒दि । सि॒ताम् । अमु॑ञ्चत । य॒ज॒त्राः॒ । ए॒वो इति॑ । सु । अ॒स्मत् । मु॒ञ्च॒त॒ । वि । अंहः॑ । प्र । ता॒रि॒ । अ॒ग्ने॒ । प्र॒ऽत॒रम् । नः॒ । आयुः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथा ह त्यद्वसवो गौर्यं चित्पदि षिताममुञ्चता यजत्राः। एवो ष्व१स्मन्मुञ्चता व्यंहः प्र तार्यग्ने प्रतरं न आयुः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा। ह। त्यत्। वसवः। गौर्यम्। चित्। पदि। सिताम्। अमुञ्चत। यजत्राः। एवो इति। सु। अस्मत्। मुञ्चत। वि। अंहः। प्र। तारि। अग्ने। प्रऽतरम्। नः। आयुः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 12; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! यथा त्वया नः प्रतरमायुः प्रतार्यंहः प्रतारि तथा वयं तव प्रतरमायुरपराधं च प्रतारयेम। हे यजत्रा वसवो ! यथा यूयं त्यदंहो हामुञ्चत पदि चित्सितां गौर्यं प्राप्नुत तथाऽस्मदंहः सुविमुञ्चत तथैवो वयमति पापं त्यक्त्वा सुशिक्षितां वाचं प्राप्नुयाम ॥६॥

    पदार्थः

    (यथा) (ह) खलु (त्यत्) तत् (वसवः) निवसन्तः (गौर्यम्) गौरीं वाचम्। गौरीति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (चित्) (पदि) प्राप्तव्ये विज्ञाने (सिताम्) शब्दार्थविज्ञानसम्बन्धिनीम् (अमुञ्चता) त्यजत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (यजत्राः) विदुषां सत्कर्तारः (एवो) एव (सु) (अस्मत्) (मुञ्चता) त्यजत। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वि) (अंहः) (प्र) (तारि) प्लूयते (अग्ने) विद्वन् (प्रतरम्) प्रतरन्ति येन तत् (नः) अस्माकम् (आयुः) जीवनम् ॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यथा धार्मिका आप्ता विद्वांसः पापाचरणं विहाय सत्यमाचरन्त्यन्यान् स्वसदृशान् कर्त्तुमिच्छन्ति तथैव भवन्तोऽप्याचरन्तु ॥६॥ अत्राग्निराजविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥६॥ इति द्वादशं सूक्तं द्वादशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वन् ! (यथा) जैसे आप से (नः) हम लोगों के (प्रतरम्) जिससे संसार में पार होते वह (आयुः) जीवन (प्र, तारि) पार किया जाता है (अंहः) पाप पार किया जाता, वैसा हम लोग आपके पार करानेवाले जीवन और अपराध को पार करें। हे (यजत्राः) विद्वानों के सत्कार करनेवाले (वसवः) निवास करते हुए जनो ! जैसे आप लोग (त्यत्) उस पाप का (ह) निश्चय करि (अमुञ्चत) त्याग करें (पदि) प्राप्त होने योग्य विज्ञान में (चित्) भी (सिताम्) शब्दार्थविज्ञानसम्बन्धिनी (गौर्यम्) स्वच्छ वाणी को प्राप्त हूजिये, वैसे (एवो) ही (अस्मत्) हम से आपको (सु, वि, मुञ्चत) अच्छे प्रकार विशेषता से दूर कीजिये, उसी प्रकार हम लोग भी पाप का त्याग करके उत्तम प्रकार शिक्षित वाणी को प्राप्त होवें ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जैसे धार्मिक यथार्थवक्ता विद्वान् लोग पाप के आचरण का त्याग करके सत्य आचरण में अन्यों को अपने सदृश करने की इच्छा करते हैं, वैसा ही आप लोग भी आचरण करो ॥६॥ इस सूक्त में अग्नि, राजा और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥६॥ यह बारहवाँ सूक्त और बारहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    वसवः यजत्राः

    पदार्थ

    [१] (यथा) = जैसे (यजत्राः) = यज्ञों के द्वारा अपना त्राण करनेवाले (वसवः) = अपने निवास को उत्तम बनानेवाले लोग (ह) = निश्चय से (पदि षिताम्) = पाँव में बन्धी हुई (गौर्यं चित्) = गौ को निश्चय से (अमुञ्चत) = मुक्त करते हैं। 'गौ' यहाँ इन्द्रिय है। यह विषयरूप बन्धन से बद्ध हो जाती है। यजत्र वसु लोग इस इन्द्रियरूप गौ को विषयों के बन्धन से मुक्त करते हैं। [२] (एवो) = इस प्रकार ही, अर्थात् इन्द्रियरूप गौ को विषय बन्धन से मुक्त करके ही (अस्मान्) = हमें (अंहः विमुञ्चत) = पापों से छुड़ाओ, पाप को हमारे से पृथक् करो। हे (अग्ने) = परमात्मन्! निष्पाप बनाकर (नः) = हमारी (प्रतरम्) = इस प्रवृद्ध (आयु:) = आयु को (प्रतारि) = और अधिक प्रवृद्ध करिये, हम खूब ही दीर्घजीवनवाले हों। पाप आयुष्य को नष्ट करता है। आप पाप को नष्ट करके हमारे आयुष्य का वर्धन करिये।

    भावार्थ

    भावार्थ– हम इन्द्रियों को विषयों के बन्धन से मुक्त करके, जीवन को निष्पाप बनायें। निष्पापता से दीर्घ आयुष्य को प्राप्त करें। सूक्त का भाव यही है कि प्रभु का उपासन करके हम निष्पाप व दीर्घ जीवन को प्राप्त करें। अगले सूक्त का प्रारम्भ प्रभु उपासन से ही प्रारम्भ होता है-

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    विषय

    पाप मोचन ।

    भावार्थ

    हे (यजत्राः) ज्ञान प्रदान करने एवं सत्संग करने हारे (वसवः) अन्यों को बसाने और स्वयं राष्ट्र में बसनेवाले प्रजाजनो ! (यथा) जिस प्रकार (ह) भी हो सके (चित् पदि सितां गौर्यम्) पैरों में बंधी गौ के तुल्य (पदि) ज्ञातव्य विषय में (सिताम्) शब्दार्थ सम्बन्ध से बंधी हुई (त्वां) उस उत्तम (गौर्यं) वाणी को (अमुञ्चत) अन्यों को प्रदान करते हो (एव उ) उसी प्रकार (अस्मत्) हम से (अंहः) पाप को (सु वि मुञ्चत) उत्तम रीति से दूर करो । (नः) हमारी (प्रतरं) संसार से पार उतारने वाले सुदीर्घ (आयुः) आयु को (प्रतारि) बढ़ाओ । इति द्वादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः— १, ५ निचृत्त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३,४ भुरिक् पंक्तिः । ६ पंक्तिः ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे धार्मिक आप्त विद्वान लोक पापाचरणाचा त्याग करून सत्याचरणाने इतरांनाही आपल्याप्रमाणे करण्याची इच्छा बाळगतात, तसेच तुम्हीही वागा. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Vasus, holy divines of knowledge and speech dedicated to Dharma and education, just as you release language, bonded in word, meaning and object all integrated, free into expression and communication, similarly loosen the bonds of sin from us to set us free and take us across the seas of life which must be crossed with merit and virtue.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of learned persons are highlighted.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person ! you help us to prolong our life and are free from the sins, so we may also help to do so. O respecters of the enlightened person. ! you live in knowledge and therefore set us entirely free from all sins like past occasions. Attain the pure speech in order to acquire true knowledge, which consists of the words and their meanings and their underlying purpose. Let us also give up all sins and attain well-trained speech in the same manner.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should also behave like the righteous absolutely truthful learned persons. They having given up all sinful conduct, observe perfect truthfulness and have desire to make others also truthful like themselves.

    Foot Notes

    (गोर्यम्) गौरीं वाचम् । गौरीति वाङ्नाम (NG 1 / 11) To the speech. (पदि) प्रप्तव्ये विज्ञाने । = In the true attainable knowledge. (सिताम् ) शब्दार्थविज्ञानसम्बन्धिनीम् = Belonging to the words, their meanings and their underlying purpose. (वसव:) निवसन्तः। = Living.

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