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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 17/ मन्त्र 21
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    नू ष्टु॒त इ॑न्द्र॒ नू गृ॑णा॒न इषं॑ जरि॒त्रे न॒द्यो॒३॒॑ न पी॑पेः। अका॑रि ते हरिवो॒ ब्रह्म॒ नव्यं॑ धि॒या स्या॑म र॒थ्यः॑ सदा॒साः ॥२१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नु । स्तु॒तः । इ॒न्द्र॒ । नु । गृ॒णा॒नः । इष॑म् । ज॒रि॒त्रे । न॒द्यः॑ । न । पी॒पे॒रिति॑ पीपेः । अका॑रि । ते॒ । ह॒रि॒ऽवः॒ । ब्रह्म॑ । नव्य॑म् । धि॒या । स्या॒म॒ । र॒थ्यः॑ । स॒दा॒ऽसाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नू ष्टुत इन्द्र नू गृणान इषं जरित्रे नद्यो३ न पीपेः। अकारि ते हरिवो ब्रह्म नव्यं धिया स्याम रथ्यः सदासाः ॥२१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नु। स्तुतः। इन्द्र। नु। गृणानः। इषम्। जरित्रे। नद्यः। न। पीपेरिति पीपेः। अकारि। ते। हरिऽवः। ब्रह्म। नव्यम्। धिया। स्याम। रथ्यः। सदाऽसाः ॥२१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 17; मन्त्र » 21
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथामात्यादीनामपि कार्यप्रवृत्तिमाह ॥

    अन्वयः

    हे हरिव इन्द्र ! यो गृणानस्त्वमस्माभिर्नू स्तुतोऽकारि स जरित्रे नद्यो नेषं पीपेः। हे इन्द्र ! त्वया नव्यं ब्रह्म न्वकारि तस्य ते वयं सदासा रथ्यो धियाऽनुकूलाः स्याम ॥२१॥

    पदार्थः

    (नू) सद्यः (स्तुतः) प्रशंसितः (इन्द्र) राजन् (नू) अत्र ऋचि तुनुघेत्युभयत्र दीर्घः। (गृणानः) सत्यं स्तुवन् (इषम्) अन्नं विज्ञानं वा (जरित्रे) स्तावकाय (नद्यः) सरितः (न) इव (पीपेः) वर्धय (अकारि) क्रियते (ते) (हरिवः) प्रशस्तमनुष्ययुक्त (ब्रह्म) महद्धनम् (नव्यम्) नूतनम् (धिया) प्रज्ञया कर्मणा वा (स्याम) भवेम (रथ्यः) बहुरथवन्तः (सदासाः) सेवकैः सह वर्त्तमानाः ॥२१॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! योऽनुत्तमगुणकर्मस्वभावविद्यः प्रजाहिताय धनाऽन्नानि वर्धयति तस्याऽऽनुकूल्येन वर्त्तित्वा सेनाऽङ्गानि दृढानि सम्पादनीयानीति ॥२१॥ अथेन्द्रराजप्रजाभृत्यगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥२१॥इति सप्तदशं सूक्तं चतुर्विंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब अमात्यादिकों की भी कार्य प्रवृत्ति को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (हरिवः) श्रेष्ठ मनुष्यों से युक्त (इन्द्र) राजन् ! जो (गृणानः) सत्य की स्तुति करते हुए आप हम लोगों से (नू) शीघ्र (स्तुतः) प्रशंसित (अकारि) किये गये वह आप (जरित्रे) स्तुति करनेवाले के लिये (नद्यः) नदियों के (न) सदृश (इषम्) अन्न वा विज्ञान को (पीपेः) बढ़ाओ और हे राजन् ! आप से (नव्यम्) नवीन (ब्रह्म) बड़ा धन (नू) निश्चय से किया गया उन (ते) आपके हम लोग (सदासाः) सेवकों के साथ वर्त्तमान (रथ्यः) बहुत वाहनों से युक्त (धिया) बुद्धि वा कर्म से अनुकूल (स्याम) होवें ॥२१॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो अति उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव और विद्या से युक्त और प्रजा के हित के लिये धन और अन्नों को बढ़ाता है, उसके अनुकूलपन से वर्त्ताव करके सेना के अङ्गों का दृढ़ सम्पादन करना चाहिये ॥२१॥ इस सूक्त में इन्द्र, राजा,प्रजा और भृत्यों के गुण वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥२१॥यह सत्रहवाँ सूक्त और चौबीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    नव्यं ब्रह्म

    पदार्थ

    मन्त्र व्याख्या १६.२१ पर द्रष्टव्य है । : सम्पूर्ण सूक्त यही भाव व्यक्त कर रहा है कि प्रभु ज्ञान देकर हमारे शत्रुओं का विनाश करते हैं । अगले सूक्त में इसी ज्ञान को देनेवाली 'अदिति' (अदीना देवमाता, वेद) का उल्लेख है -

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    विषय

    आचार्य इन्द्र ।

    भावार्थ

    व्याख्या देखो सू० १६ । मं० २१ ॥ इति चतुर्विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः- १ पंक्तिः । ७,९ भुरिक पंक्तिः । १४, १६ स्वराट् पंक्तिः। १५ याजुषी पंक्तिः । निचृत्पंक्तिः । २, १२, १३, १७, १८, १९ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, ८, १०, ११ त्रिष्टुप् । ४, २० , । विराट् त्रिष्टुप् ॥ एकविंशत्यृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जो अति उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव व विद्या यांनी युक्त व प्रजेच्या हितासाठी धन व अन्न वाढवितो त्याच्या अनुकूल वागून सेनेचे अंग दृढ करावे. ॥ २१ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord supreme of honour and excellence, praised and worshipped in holy voice, create and augment food, energy and sustenance for the celebrant like streams overflowing with water for all. O lord omnipresent, moving yet unmoving, we create and offer ever new songs of praise and homage in your honour, and pray, give us the will and intelligence by which we may be masters of chariots and be thankful and obedient servants of Divinity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The yardstick of the ministers' and other's behavior is pointed out.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! always admiring truth and admired by us, you multiply, like rivers, the knowledge and food grains for your admirers with the assistance of good men. You have earned great and new wealth, wisdom and other kinds. May we agree to your intellect along with our attendants, possessing many chariots and other vehicles?

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! it is your duty to act in accordance with the desire and instructions of the king, who is un-paralleled in virtues, actions, temperament and knowledge. He multiplies wealth and food materials for the welfare of the people. You should also wild an army with strong wings.

    Foot Notes

    (हरिवः) प्रशस्तमनुष्ययुक्त | हरय इति मनुष्यनाम (NG 2, 3) = Having good men. (इषम् ) अन्नं विज्ञानं वा । इषमिति अन्ननाम (NG 2, 7) = Food or knowledge. (गुणानः) सत्यं स्तुवन् । = Admiring truth.

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    हिंगलिश (1)

    Word Meaning

    हे मनुष्यो जो अति उत्तम गुण कर्म स्वभाव और विद्या से युक्त.और प्रजा के हित के लिए धन धान्य को बढाता है, उस के अनुकूल व्यवहार से राष्ट्र के बल को बढाना आप का कर्तव्य है.

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