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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 18 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 18/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्रादिती छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒ता अ॑र्षन्त्यलला॒भव॑न्तीर्ऋ॒ताव॑रीरिव सं॒क्रोश॑मानाः। ए॒ता वि पृ॑च्छ॒ किमि॒दं भ॑नन्ति॒ कमापो॒ अद्रिं॑ परि॒धिं रु॑जन्ति ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒ताः । अ॒र्ष॒न्ति॒ । अ॒ल॒ला॒ऽभव॑न्तीः । ऋ॒तव॑रीःऽइव । स॒म्ऽक्रोश॑मानाः । ए॒ताः । वि । पृ॒च्छ॒ । किम् । इ॒दम् । भ॒न॒न्ति॒ । कम् । आपः॑ । अद्रि॑म् । प॒रि॒ऽधिम् । रु॒ज॒न्ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एता अर्षन्त्यललाभवन्तीर्ऋतावरीरिव संक्रोशमानाः। एता वि पृच्छ किमिदं भनन्ति कमापो अद्रिं परिधिं रुजन्ति ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एताः। अर्षन्ति। अललाऽभवन्तीः। ऋतवरीःऽइव। सम्ऽक्रोशमानाः। एताः। वि। पृच्छ। किम्। इदम्। भनन्ति। कम्। आपः। अद्रिम्। परिऽधिम्। रुजन्ति ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 18; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मेघकृत्यमाह ॥

    अन्वयः

    हे जिज्ञासो ! या एता नद्य ऋतावरीरिव संक्रोशमाना अललाभवन्तीरर्षन्ति ता एता किमिदं भनन्तीति वि पृच्छ। एता आपः कं परिधिमद्रिं रुजन्तीति च ॥६॥

    पदार्थः

    (एताः) (अर्षन्ति) गच्छन्ति (अललाभवन्तीः) अलला अलला इव शब्दयन्तीः (ऋतावरीरिव) उषस इव (संक्रोशमानाः) आक्रोशं कुर्वाणाः (एताः) गच्छन्त्यो नद्यः (वि) (पृच्छ) (किम्) (इदम्) (भनन्ति) शब्दयन्ति (कम्) (आपः) (अद्रिम्) मेघम् (परिधिम्) (रुजन्ति) भञ्जन्ति ॥६॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! एता नद्यो मेघपुत्र्यास्तटान् भञ्जन्त्य अव्यक्ताञ्छब्दान् कुर्वन्त्य उषा इव गच्छन्ति तथैव सेनाः शत्रूनभिमुखं गच्छन्तु ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब मेघ के कृत्य को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे जिज्ञासुजन ! जो (एताः) ये नदियाँ (ऋतावरीरिव) प्रातःकालों के सदृश (संक्रोशमानाः) उच्चस्वर को करती हुई (अललाभवन्तीः) अलल अर्राती हुई (अर्षन्ति) जाती हैं सो (एताः) ये (किम्) क्या (इदम्) यह (भनन्ति) शब्द करती हैं, ऐसा (वि, पृच्छ) विशेष करके पूछिये और ये (आपः) जल (कम्) किस (परिधिम्) घेर और (अद्रिम्) मेघ को (रुजन्ति) भञ्जते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! यह नदियाँ मेघों की पुत्रियाँ अर्थात् उनसे उत्पन्न हुई तटों को तोड़ती और अव्यक्त शब्दों को करती हुई प्रातःकालों के सदृश जाती हैं, वैसे ही सेना शत्रुओं के सम्मुख प्राप्त होवें ॥६॥

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    विषय

    माता की बात सुनना

    पदार्थ

    [१] (एता:) = ये गतमन्त्र में वर्णित वेदवाणियाँ-वेदमाता की वाणियाँ (अर्षन्ति) = हमें प्राप्त होती हैं। ये हमारे लिए (अलला भवन्ती:) = [अलं वारणं लान्ति] पाप से निवारण की शक्ति प्राप्त कराती हुई होती हैं। (ऋतावरी: इव) = ये हमारे लिए ऋत का सत्य का रक्षण करनेवाली होती हैं। (संक्रोशमानाः) = ये हमें पुकार-पुकार कर (अवध) = [पाप] से बचा रही हैं। [२] हे इन्द्र [जितेन्द्रिय पुरुष] ! तू (एताः विपृच्छ) = इन से पूछ-इन से यह जानने की कामनावाला हो कि (किं इदं भनन्ति) = क्या यह कह रही हैं। उनके अनुसार ही तू जीवन को बिताने का प्रयत्न कर। ये (आपः) = व्यापक ज्ञानवाली वाणियाँ [आपो अस्मान् मातरः शुन्धयन्तु], वेदवाणी रूप माताएँ, (परिधिम्) = हमें चारों ओर से घेर लेनेवाले (कं अद्रिम्) = किसी अविद्या पर्वत को (रुजन्ति) = भग्न करती हैं। अविद्या को नष्ट करके ये हमारा कल्याण करती हैं। इन की वाणी को तू सुन । यही तुझे अवध से बचाएगी।

    भावार्थ

    भावार्थ– वेदमाता की बात को हम सुनें। यह सुनना ही हमें पाप में फँसने से बचाएगा। हमारे घेर लेनेवाले अविद्या-पर्वत को विनष्ट करेगा।

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    विषय

    जलधारावत् प्रवाह रूप से प्रकट होने वाली प्रकृति की विकृतियों से उनके विकर्त्ता के विषय में विवेकपूर्ण प्रश्न ।

    भावार्थ

    (ऋतावरीः इव) जिस प्रकार जल से भरी हुई नदियां (अलला भवन्तीः) अव्यक्त ध्वनि से कलकल करती हुई जाती हैं और (ऋतावरीः इव) जिस प्रकार उषाएं (अलला भवन्तीः) पक्षियों की अव्यक्त ध्वनि करती हुई (अर्षन्ति) आती हैं उसी प्रकार (एतत्) ये (ऋतावरी:) ‘ऋत’ सत्य कारण परमेश्वर की शक्ति को धारण करने वाली सब विकृति में (अलला भवन्तीः) अति मनोहर ध्वनि करती हुईं वा अद्भुत आश्चर्यजनक होती हुईं (अर्षन्ति) प्रकट होती हैं, और (संक्रोशमानाः) बड़े प्रकट शब्दों से कुछ पुकार रही हैं । हे विद्वान् पुरुष (एताः वि पृच्छ) इनसे तू विशेष रूप से पूछे कि ये (इदं किम् भनन्ति) यह क्या कह रही हैं । (कम्) क्या (आपः) जलधाराएं (परिधिं) अपने को धारण करने वाले मेघ वा पर्वत को स्वयं (रुजन्ति) तोड़ कर बाहर निकलती हैं ? और क्या (आपः) व्यापक उषाएं अपने धारक (अद्रिं) मेघ तुल्य अन्धकार को स्वयं तोड़ती हैं । उसी प्रकार क्या (आपः) ये समस्त प्राण एवं प्राणी गण (अद्रिं) पर्वतवत् अभेद्य (परिधिम्) अपने धारक इस स्थूल देह या जड़ प्रकृति तत्व को स्वयं (रुजन्ति) पीड़ित एवं भग्न करते हैं । नहीं, जिस प्रकार मेघ से जल-धाराओं को बहा देने में विद्युत्, उषाओं को प्रकट करने में सूर्य कारण उसी प्रकार इन लोकों, प्राणों और प्राणियों के जड़ प्रकृति से उत्पन्न होने में परमात्मा और आत्मा चेतन कारण हैं। ये सब यही बात बतला रहे । वही चेतन ‘इन्द्र’ है । (२) राज्य में (ऋतावरीः) धन के बल पर चलने वाली अव्यक्त शब्द करने वाली सेनाएं (संक्रोशमानाः) शत्रुपक्ष को ललकारती हुई जाती हैं। क्या बतलाती हैं, क्या वे (आपः) जल धारावत् जाने वाली प्रजाएं और सेनाएं स्वयं (अद्रिं परिधिं) पर्वतवत् तुंग परिकोट के तुल्य शत्रु बल या सर्वतोरक्षक (अद्रिं = वज्रं) शस्त्र बल को तोड़ सकती हैं ! नहीं, केवल सेनापति ही तोड़ सकता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः । इन्द्रादिती देवत ॥ छन्द:– १, ८, १२ त्रिष्टुप । ५, ६, ७, ९, १०, ११ निचात्त्रष्टुप् । २ पक्तः । ३, ४ भुरिक् पंक्ति: । १३ स्वराट् पक्तिः। त्रयोदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! या नद्या मेघांच्या कन्या असून तटाचे बंधन तोडतात व अव्यक्त आवाज करत प्रातःकाळाप्रमाणे तीव्र गतीने जातात, तसेच सेनेने शत्रूसमोर जावे. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    These streams of water, flowing, murmuring, ecstatically singing, msh on like beauteous rays of the dawn. Ask them what they say thus, what mounts they strike and circle, what banks they overflow, what limitations they overcome, what clouds they touch.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of clouds is dealt by the way of illustration.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O seeker after truth ! these rivers flow making some indistinct roaring sound, and look charming like the dawns. Ask wise poets what do they say? What is the bank or the land around which they stoop getting water from the cloud?

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! these rivers are daughters of the clouds, flow overflowing the banks and making indistinct sounds. In the same manner, the armies should go Infront of the enemies.

    Foot Notes

    (अललाभवन्ताः ) अलला अलला इव शब्दयन्तीः = Making some indistinct sound. (ऋतावरी रिव) उषस इव । = Cloud. (अद्रिम् ) मेघम् । अद्रिरिति मेघनाम (NG 1, 10)। ऋतमिति सत्यनाम (NG 3, 10) सत्यस्वरूपस्य ब्रह्मणो ध्यानं यस्यां वेलायां प्रधानतया क्रियते सा, ऋतावरी उषा = Like dawns. The fanciful poets can tell the message of rivers, which is the message of benevolence पिबन्ति नद्यः स्वयमेव नाम्भः । परोपकारार्थमिदं शरीरम् as expressed by a well known poet. The rivers also remind men of God- who is their creator. They sing His Glory (so to speak). यस्येमे हिमवन्तो महित्वा यस्य समुद्र रसया सहाहुः । यस्येमाः प्रदिशो यस्य बाहुः । कस्मै देवाय हविषा विधेम (ऋ. 10, 121, 8)।

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