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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 21/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    धि॒षा यदि॑ धिष॒ण्यन्तः॑ सर॒ण्यान्त्सद॑न्तो॒ अद्रि॑मौशि॒जस्य॒ गोहे॑। आ दु॒रोषाः॑ पा॒स्त्यस्य॒ होता॒ यो नो॑ म॒हान्त्सं॒वर॑णेषु॒ वह्निः॑ ॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धि॒षा । यदि॑ । धि॒ष॒ण्यन्तः॑ । स॒र॒ण्यान् । सद॑न्तः । अद्रि॑म् । औ॒शि॒जस्य॑ । गोहे॑ । आ । दु॒रोषाः॑ । पा॒स्त्यस्य॑ । होता॑ । यः । नः॒ । म॒हान् । स॒म्ऽवर॑णेषु । वह्निः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धिषा यदि धिषण्यन्तः सरण्यान्त्सदन्तो अद्रिमौशिजस्य गोहे। आ दुरोषाः पास्त्यस्य होता यो नो महान्त्संवरणेषु वह्निः ॥६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धिषा। यदि। धिषण्यन्तः। सरण्यान्। सदन्तः। अद्रिम्। औशिजस्य। गोहे। आ। दुरोषाः। पास्त्यस्य। होता। यः। नः। महान्। सम्ऽवरणेषु। वह्निः ॥६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 21; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राज्ञा सह प्रजाजनविषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यो नः पास्त्यस्य संवरणेषु वह्निरिव महान् दुरोषा होता भवेद्यदि तमद्रिमिवौशिजस्य गोहे धिषण्यन्तः सरण्यानासदन्तो धिषा यूयं गृह्णीत तर्हि युष्मान्त्सर्वं सुखम्प्राप्नुयात् ॥६॥

    पदार्थः

    (धिषा) स्तुत्या (यदि) (धिषण्यन्तः) स्तुवन्तः (सरण्यान्) सरणं प्राप्तान् (सदन्तः) निवासयन्तः (अद्रिम्) मेघमिव (औशिजस्य) कामयमानाऽपत्यस्य (गोहे) संवरणीये गृहे (आ) (दुरोषाः) दुर्गतो दूरीभूत ओषः क्रोधो यस्य सः (पास्त्यस्य) गृहे भवस्य (होता) दाता (यः) (नः) अस्माकम् (महान्) (संवरणेषु) आच्छादकेषु व्यवहारेषु (वह्निः) वोढाग्निरिव ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यदि राजादयो मनुष्याः प्रशंसितान् प्रशंसयेयुः प्राप्तान् रक्षेयुस्तर्हि ते महान्तो भवेयुः ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजा के साथ प्रजाजनों के विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (यः) जो (नः) हम लोगों के (पास्त्यस्य) गृह में उत्पन्न हुए के (संवरणेषु) आच्छादक अर्थात् ढाँपनेवाले व्यवहारों में (वह्निः) पदार्थ पहुँचानेवाले अग्नि के सदृश (महान्) बड़ा (दुरोषाः) क्रोध से रहित (होता) देनेवाला हो (यदि) जो उसके (अद्रिम्) मेघ के सदृश (औशिजस्य) कामना करनेवाले के सन्तान के (गोहे) ढाँपने योग्य गृह में (धिषण्यन्तः) स्तुति करते और (सरण्यान्) सरण्यान् अर्थात् सन्मार्ग को प्राप्त जनों को (आ, सदन्तः) निवास देते हुए (धिषा) स्तुति अर्थात् प्रशंसा के साथ आप लोग ग्रहण करो तो आप लोगों को सब सुख प्राप्त होवे ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा आदि मनुष्य प्रशंसित पुरुषों की प्रशंसा करावें =करें और प्राप्त हुए पुरुषों की रक्षा करें तो वे श्रेष्ठ होवें ॥६॥

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    विषय

    संवरणेषु वह्निः

    पदार्थ

    [१] (धिषण्यन्तः) = बुद्धि की प्राप्ति की कामना करते हुए (यदि) = यदि (धिषा) = [Hymn] स्तोत्रों द्वारा (सरण्यान्) = उस प्रभु की ओर गतिवाले होते हैं और (औशिजस्य) = [Devoted to] प्रभुप्राप्ति की प्रबल कामनावाले के (गोहे) = घर में (अद्रिम्) = उस उपासनीय प्रभु का (सदन्तः) = उपासन करते हैं उसकी उपासना में बैठते हैं, तो ये प्रभु (आ) = [यातु] अवश्य हमें प्राप्त होते हैं । [२] वे प्रभु हमें प्राप्त होते हैं, जो कि (दुरोषा:) = [दुर-उष्-दाहे] सब बुराइयों को दग्ध करनेवाले हैं। (पास्त्यस्य) = शरीरगृह को उत्तम बनानेवाले के (होता) = सब कुछ देनेवाले हैं। (यः) = जो (नः) = हमारे लिए (महान्) पूजनीय हैं। संवरणेषु शत्रु सम्बन्धी निरोधों में काम-क्रोध आदि के आक्रमणों में (वह्निः) = हमें पार पहुँचानेवाले हैं। प्रभु ही हमारे लिए इन शत्रुओं का पराजय करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- बुद्धिप्राप्ति की कामना से हम प्रभुस्तवन करते हुए प्रभु की ओर चलें- सदा प्रभुप्राप्ति की प्रबल कामनावाले होकर प्रभु की उपासना करें। प्रभु हमारी सब बुराइयों को दग्ध कर देंगे और हमें शत्रुओं से पार ले जानेवाले होंगे।

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    विषय

    नायक का दीपवत् कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    (यदि) जब (ओशिजस्य) मान धनादि कामना करने वाले पुरुष के (गोहे) गृह में (सदन्तः) उत्तम पदों पर प्रतिष्ठा प्राप्त करते हुए दर्वारी लोग (अद्रिम्) शत्रुओं का नाश करने वाले और स्वयं न डरने वाले पुरुष को (धिषा) उत्तम बुद्धि या वाणी से (धिषण्यन्तः) स्तुति करते हुए (तम् सरण्यान्) उसको प्राप्त हों तो (यः) जो (नः) हमारे लिये (संवरणेषु) आच्छादित गूढ़ अन्धकार पूर्ण स्थानों में (वह्निः) अग्नि के समान तेजोमय होकर, नायक होकर हमें ले चलने हारा है। वह (पास्त्यसस्य) गृहों में वसी प्रजा के हितकारक, ऐश्वर्य (होता) देने वाला (दुरोषाः) दुस्तर क्रोध या तेज से युक्त होकर भी हमारे प्रति (दुरोषाः) क्रोध रहित होकर हमें (आ) प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, १० भुरिक् पंक्तिः । ३ स्वराड् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः । ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप । ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजे इत्यादी प्रशंसित पुरुषांची प्रशंसा करतात व जवळ असलेल्यांचे रक्षण करतात तेव्हाच ते श्रेष्ठ होतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    If the wise people sitting in the house of a loving and nobly ambitious man of yajna, were to do homage with their intelligence and wisdom to the generous giver and yajaka and to those who are realised souls worthy of company, then the one, Indra himself, really great, beyond anger and fear, would come and join there as the leader and high priest, as indeed the very fire, winner and carrier of fragrance, in the battles of life in the house of the yajamana taking it as his own affair in his own house.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The kings method of dealing with his subjects is pointed out.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! if you want to enjoy happiness, admire and appreciate the dealings of a liberal donor, who is great like fire in dealings with a person living a decent house, is devoid of anger, benevolent like the cloud, and son of a man desiring the welfare of all, you give shelter to those who come to you for the purpose.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    If king and others praise those persons who are praiseworthy and protect those who come to them, they become great and glorious.

    Foot Notes

    If king and others praise those persons who are praiseworthy and protect those who come to them, they become great and glorious.

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