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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 21 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 21/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    स॒त्रा यदीं॑ भार्व॒रस्य॒ वृष्णः॒ सिष॑क्ति॒ शुष्मः॑ स्तुव॒ते भरा॑य। गुहा॒ यदी॑मौशि॒जस्य॒ गोहे॒ प्र यद्धि॒ये प्राय॑से॒ मदा॑य ॥७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒त्रा । यत् । इ॒म् । भा॒र्व॒रस्य॑ । वृष्णः॑ । सिस॑क्ति । शुष्मः॑ । स्तु॒व॒ते । भरा॑य । गुहा॑ । यत् । ई॒म् । औ॒शि॒जस्य॑ । गोहे॑ । प्र । यत् । धि॒ये । प्र । अय॑से । मदा॑य ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्रा यदीं भार्वरस्य वृष्णः सिषक्ति शुष्मः स्तुवते भराय। गुहा यदीमौशिजस्य गोहे प्र यद्धिये प्रायसे मदाय ॥७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्रा। यत्। ईम्। भार्वरस्य। वृष्णः। सिसक्ति। शुष्मः। स्तुवते। भराय। गुहा। यत्। ईम्। औशिजस्य। गोहे। प्र। यत्। धिये। प्र। अयसे। मदाय ॥७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 21; मन्त्र » 7
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 6; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजविषयान्तर्गतराजभृत्यकर्माह ॥

    अन्वयः

    यद्यः शुष्मः सत्रेम् भार्वरस्य वृष्णः स्तुवते भराय सिषक्ति यद्यो गुहौशिजस्य गोहे सत्यं प्र सिषक्ति यद्योऽयसे मदाय धिये गुहा प्रज्ञानमीं प्र सिषक्ति स एव सर्वं लभते ॥७॥

    पदार्थः

    (सत्रा) सत्येन (यत्) यः (ईम्) सर्वतः (भार्वरस्य) प्रजाः भर्तू राज्ञः (वृष्णः) बलिष्ठस्य (सिषक्ति) सिञ्चति (शुष्मः) बलवान् (स्तुवते) प्रशंसां कुर्वते (भराय) धारकाय (गुहा) बुद्धौ (यत्) यः (ईम्) (औशिजस्य) कामयमानेषु कुशलस्य (गोहे) संवरणीये गृहे (प्र) (यत्) यः (धिये) प्रज्ञायै (प्र) (अयसे) गमनाय (मदाय) आनन्दाय ॥७॥

    भावार्थः

    ये भृत्या धर्म्येण राज्यं शासतो राज्ञो राष्ट्रे सत्येन न्यायेन प्रजाः पालयन्ति तेऽतुलमानन्दं लभन्ते ॥७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजविषयान्तर्गत राजभृत्यों के कर्म को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (यत्) जो (शुष्मः) बलवान् (सत्रा) सत्य से (ईम्) सब प्रकार (भार्वरस्य) प्रजा के पालन करनेवाले राजा के (वृष्णः) बलिष्ठ की (स्तुवते) प्रशंसा करते हुए (भराय) धारण करनेवाले के लिए (सिषक्ति) सींचता है और (यत्) जो (गुहा) बुद्धि में (औशिजस्य) कामना करनेवालों में चतुर के (गोहे) स्वीकार करने योग्य घर में सत्य का (प्र) सिञ्चन करता है (यत्) जो (अयसे) गमन (मदाय) आनन्द और (धिये) बुद्धि के लिये बुद्धि में प्रज्ञान को (ईम्) सब प्रकार से (प्र) अत्यन्त सींचता है, वही सम्पूर्ण लाभ को प्राप्त होता है ॥७॥

    भावार्थ

    जो कर्मचारी लोग धर्म से राज्य का शासन करते हुए राजा के राज्य में सत्य-न्याय से प्रजाओं का पालन करते हैं, वे अतुल आनन्द को प्राप्त होते हैं ॥७॥

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    विषय

    प्रभु से प्राप्त शक्ति के जीवन में परिणाम

    पदार्थ

    [१] (यद्) = जब (ईम्) = निश्चय से (भार्वरस्य) = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का भरण करनेवाले (वृष्णः) = शक्तिशाली प्रभु का (शुष्मः) = बल (स्तुवते) = स्तुति करनेवाले के लिए (सिषक्ति) = सेवन करता है, अर्थात् जब स्तोता को प्रभु का बल प्राप्त होता है, तो (सत्रा) = सचमुच (भराय) = यह उसके भरण के लिए होता है। [२] (यद्) = जब (ईम्) = निश्चय से (औशिजस्य) = प्रभुप्राप्ति की प्रबल कामनावाले के (गोहे) = इस शरीरगृह में (गुहा) = हृदयरूप गुहा में प्रभु का निवास होता है, तो प्रभु इस औशिज के [भराय=] भरण के लिए होते हैं । (यत्) = जो प्रधिये प्रकृष्ट बुद्धि के लिए होते हैं। 'प्र अयसे' प्रकृष्ट गमन के लिए होते हैं और (मदाय) = हर्ष के लिए होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- स्तवन से प्राप्त बल हमारा भरण करता है यह हमारी बुद्धि, गति व हर्ष के लिए होता है।

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    विषय

    राजा के सब प्रयत्न राष्ट्रहित हों ।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (भार्वरस्य वृष्णः) सबके पालक पोषक सूर्य बल (सत्रा स्तुवते भराय) सचमुच स्तुतिकर्त्ता जीवनगण के भरण पोषण के लिये (ईं सिषक्ति) जल सेचन करता है उसी प्रकार (भार्वरस्य कृष्णः) समस्त राष्ट्र को भरण पोषण करने वाले, सबसे बलवान् पुरुष का (शुष्मः) शत्रु को शोषण करने वाला बल वा उद्योग भी (यत्) जब (ईं) इस राष्ट्र को (सिषक्ति) प्राप्त होता है तो वह (सत्रा) सचमुच या साथ २ (स्तुवते) राजा से प्रार्थना करने वाले प्रजाजन के (भराय) भरण पोषण के लिये ही होना चाहिये । और (औशिजस्य) कान्तिमान् तेजस्वी राजा के (गुहा) बुद्धि में (यत्) जो भी विचार हों और (यत् गोहे) जो एकान्त स्थान में मन्त्रणा हों वे (सत्रा) सदा (ईम्) राष्ट्र के (धिये प्र) उत्तम कर्म करने के लिये, (अयसे प्र) उत्तम मार्ग पर बढ़ने के लिये और (मदाय प्र) सबके हर्ष सुख के लिये (षिसक्ति) प्राप्त हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, १० भुरिक् पंक्तिः । ३ स्वराड् पंक्तिः । ११ निचृत् पंक्तिः । ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप । ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ९ त्रिष्टुप् ॥ एकादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे कर्मचारी धर्माने राज्याचे शासन करतात, राजाच्या राज्यामध्ये सत्य, न्यायाने प्रजेचे पालन करतात ते अत्यंत आनंद प्राप्त करतात. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    When truly in yajnic session in honour of the lord sustainer of humanity, Indra, the light and power of the generous lord showers upon the celebrant for his fulfilment, then the hidden wealth and potential in the mind and home of the loving and faithful yajamana blooms forth for the fruition of his intelligence, advancement and life’s joy.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the public servants are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    That man gets all, who is Very powerful and truthful. He admires and upholds the most powerful king-the king who provides security to his subjects, and sprinkles (fills) truth from all sides among the men seeking the welfare of all deliberately, and fills true knowledge for the intellect, moving capacity and delight.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those State officials who during their service period rule righteously, protect the people with true justice, attain incomparable delight and bliss,

    Foot Notes

    (भार्वरस्य) प्रजाभर्त राज्ञः । = Of the king who is preserver of his subjects. (ईम् ) सर्वत: । = From all sides. (सिषक्ति ) सिचति । = Sprinkles, fills.

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