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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 31 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 31/ मन्त्र 11
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - पिपीलिकामध्यागायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒स्माँ इ॒हा वृ॑णीष्व स॒ख्याय॑ स्व॒स्तये॑। म॒हो रा॒ये दि॒वित्म॑ते ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मान् । इ॒ह । वृ॒णी॒ष्व॒ । स॒ख्याय॑ । स्व॒स्तये॑ । म॒हः । रा॒ये । दि॒वित्म॑ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्माँ इहा वृणीष्व सख्याय स्वस्तये। महो राये दिवित्मते ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मान्। इह। वृणीष्व। सख्याय। स्वस्तये। महः। राये। दिवित्मते ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 31; मन्त्र » 11
    अष्टक » 3; अध्याय » 6; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! राजँस्त्वमिहास्मान् स्वस्तये महो दिवित्मते सख्याय राये च वृणीष्व ॥११॥

    पदार्थः

    (अस्मान्) (इहा) संसारे राज्ये वा। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वृणीष्व) स्वीकुर्याः (सख्याय) मित्रत्वाय (स्वस्तये) सुखाय (महः) महते (राये) धनाय (दिवित्मते) विद्याधर्म्मन्यायप्रकाशिताय ॥११॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! यथा भवानस्मासु मैत्रीं रक्षति तथा वयमपि त्वयि सदैव सखायः सन्तो वर्त्तेमहि ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे तेजस्वी राजन् ! आप (इह) इस संसार वा राज्य में (अस्मान्) हम लोगों को (स्वस्तये) सुख के लिये (महः) बड़े (दिवित्मते) विद्या, धर्म्म और न्याय से प्रकाशित (सख्याय) मित्रत्व के लिये और (राये) धन के लिये (वृणीष्व) स्वीकार करो ॥११॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जैसे आप हम लोगों में मित्रता रखते हैं, वैसे हम लोग भी आप में सदा ही मित्र हुए वर्त्ताव करें ॥११॥

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    विषय

    प्रभु को मित्रता में कल्याण व दीप्तियुक्त ऐश्वर्य

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! (इह) = इस जीवन में (अस्मान्) = हमें (आवृणीष्व) = आप चुनिए, स्वीकार करिए। एक तो (सखाय) = अपनी मित्रता के लिए और मित्रता के द्वारा (स्वस्तये) = कल्याण के लिए, उत्तम स्थिति के लिए । प्रभु प्राणियों के दो विभाग करते हैं, एक तो वे, जो कि प्रकृति की ओर झुके हुए हैं और दूसरे वे जो कि प्राकृतिक भोगों में न फँसकर प्रभु-प्रवण हैं। उस समय हम पिछले विभाग में आकर प्रभु के ही मित्र बनें और परिणामतः प्राकृतिक भोगों से न कुचले जाकर उत्तम स्थिति को प्राप्त करें। [२] हे प्रभो! आप हमें इसलिए भी चुनिए कि हम (दिवित्मते) = दीप्तिवाले (महः राये) = महान् ऐश्वर्य को प्राप्त करनेवाले हों। प्रभु की शरण में जाने पर धन की कमी तो रहती ही नहीं, इस धन के साथ ज्ञानदीप्ति का भी निवास होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु की मित्रता में कल्याण है, इसी में दीप्ति से युक्त महान् ऐश्वर्य का लाभ है।

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    विषय

    परमेश्वर और राजा से प्रार्थना । और राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! विद्वन् ! तू (इह) इस संसार में (अस्मान्) हमको (सख्याय) मित्रता (स्वस्तये) सुखपूर्वक कल्याण जीवन और (महः दिवित्मते राये) बड़े भारी न्याय, प्रकाश आदि से युक्त, समुज्ज्वल धन सम्पदादि की प्राप्ति और वृद्धि के लिये (वृणीष्व) मित्र, भृत्य और सहायक रूप से स्वीकार कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ७, ८, ९, १०, १४ गायत्री। २, ६, १२, १३, १५ निचृद्गायत्री । ३ त्रिपाद्गायत्री । ४, ५ विराड्गायत्री । ११ पिपीलिकामध्या गायत्री ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा! जशी तू आमच्याबरोबर मैत्री ठेवतोस तसे आम्हीही तुझ्याबरोबर सदैव मैत्रीचे वर्तन करावे. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Take us up, O lord, and receive us under your divine protection for friendship, all round well being, and for the great gift of the immense wealth of this heavenly world right here.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    To treat the subjects justly is the foundation of a good rule. It is highlighted below.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O great ruler! you take us to your friendship, so that we get more wealth and your regime runs the kingdom to make it delightful and illuminated with learning of righteousness and justice.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O ruler! the way you treat us friendly, our duties are also to reciprocate by behaving in a friendly manner.

    Foot Notes

    (वृणीष्व ) स्वीकुर्याः । = Accept or take to you friendship, (सख्याय) मित्रत्वाय। = For friendship. (दिवित्मते) विद्याधर्म्मन्यायप्रका शिताय = For the sake of making illuminated with learning righteousness and justice.

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