ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 50/ मन्त्र 3
ऋषिः - वामदेवो गौतमः
देवता - बृहस्पतिः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
बृह॑स्पते॒ या प॑र॒मा प॑रा॒वदत॒ आ त॑ ऋत॒स्पृशो॒ नि षे॑दुः। तुभ्यं॑ खा॒ता अ॑व॒ता अद्रि॑दुग्धा॒ मध्वः॑ श्चोतन्त्य॒भितो॑ विर॒प्शम् ॥३॥
स्वर सहित पद पाठबृह॑स्पते । या । प॒र॒मा । प॒रा॒ऽवत् । अतः॑ । आ । ते॒ । ऋ॒त॒ऽस्पृशः॑ । नि । से॒दुः॒ । तुभ्य॑म् । खा॒ताः । अ॒व॒ताः । अद्रि॑ऽदुग्धाः । मध्वः॑ । श्चो॒त॒न्ति॒ । अ॒भितः॑ । वि॒ऽर॒प्शम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
बृहस्पते या परमा परावदत आ त ऋतस्पृशो नि षेदुः। तुभ्यं खाता अवता अद्रिदुग्धा मध्वः श्चोतन्त्यभितो विरप्शम् ॥३॥
स्वर रहित पद पाठबृहस्पते। या। परमा। पराऽवत्। अतः। आ। ते। ऋतऽस्पृशः। नि। सेदुः। तुभ्यम्। खाताः। अवताः। अद्रिऽदुग्धाः। मध्वः। श्चोतन्ति। अभितः। विऽरप्शम् ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 50; मन्त्र » 3
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे बृहस्पते ! ते या परमा नीतिरस्ति तयर्तस्पृशस्तेऽद्रिदुग्धाः खाता मध्वोऽवतास्तुभ्यमभितः श्चोतन्ति विरप्शमा निषेदुरतस्तान् वयं परावत् सत्कुर्य्याम ॥३॥
पदार्थः
(बृहस्पते) बृहतो राष्ट्रस्य पालक (या) (परमा) उत्कृष्टा नीतिः (परावत्) परा गुणा विद्यन्ते यस्मिन् (अतः) अस्मात् (आ) (ते) तव (ऋतस्पृशः) सत्यस्पर्शस्य (नि) (सेदुः) निषीदेयुः (तुभ्यम्) (खाताः) खनिताः (अवताः) कूपाः (अद्रिदुग्धाः) मेघेन पूर्णाः (मध्वः) मधुरादिगुणयुक्तजलोपेताः (श्चोतन्ति) सिञ्चन्ति (अभितः) सर्वतः (विरप्शम्) महान्तं संसारम् ॥३॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! भवन्तो वृद्धानां विदुषां राज्ञां सकाशात् सनातनीं नीतिं गृहीत्वा मेघवत्प्रजाः सुखेन सिञ्चन्तु ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (बृहस्पते) बड़े राज्य के पालन करने (ते) आपकी (या) जो (परमा) उत्तम नीति है उससे (ऋतस्पृशः) सत्य का स्पर्श करनेवाले आपके (अद्रिदुग्धाः) मेघ से पूर्ण (खाताः) खोदे गये (मध्वः) मधुर आदि गुणवाले जल से युक्त (अवताः) कूप (तुभ्यम्) आपके लिये (अभितः) सब प्रकार से (श्चोतन्ति) सींचते हैं और (विरप्शम्) महान् संसार को (आ, निषेदुः) सब ओर से स्थित करें (अतः) इससे उनका हम लोग (परावत्) गुणयुक्त सत्कार करें ॥३॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! आप लोग वृद्ध विद्वान् राजा लोगों के समीप से अनादि काल से सिद्ध नीति को ग्रहण करके मेघों के सदृश प्रजाओं को सुख से सींचो ॥३॥
विषय
यज्ञशीलता से स्वर्गप्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (बृहस्पते) = सर्वोच्च दिशा के अधिपते! परमात्मन् ! (या) = जो (ते) = आपके (परावत् परमा) = सुदूर से सुदूर देश से भी उत्कृष्ट स्थान हैं, उनमें (ऋतस्पृशः) = [ऋतं = यज्ञ] यज्ञों के सम्पर्कवाले यज्ञशील पुरुष (आनिषेदुः) = आसीन होते हैं । पृथ्वीलोक से ऊपर अन्तरिक्षलोक है, अन्तरिक्ष से ऊपर घुलक है। यह द्युलोक ['दिवो नाकस्य पृष्ठात्'] स्वर्गलोक का पृष्ठ है। इस स्थान पर यज्ञशील पुरुष ही पहुँचते हैं । [२] (तुभ्यम्) = तेरी प्राप्ति के लिए (अद्रिदुग्धाः) = उपासना द्वारा अपने अन्दर पूरित हुए हुए (मध्वः) = सोमकण (अभितः विरप्शम्) = दोनों ओर महान् शब्दराशि को [रप् व्यक्तायां वाचि] (श्चोतन्ति) = क्षरित करते हैं। अपरा विद्या की शब्दराशि ही प्रकृतिविद्या है और पराविद्या की शब्दराशि आत्मविद्या है। जब सोमकणों का हम रक्षण करते हैं, तो ये दोनों ही विद्याएँ हमें प्राप्त होती हैं। एक इहलोक को सुन्दर बनाती है, तो दूसरी परलोक को ['अभितः '] शब्द इसी भाव का द्योतक है। ये सोमकण (खाताः अवता:) = खोदे गये कुओं के समान हैं। ये कुएँ जलराशि को प्राप्त कराते हैं और ये सोमकण ज्ञान की जलराशि को प्राप्त करानेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- यज्ञशील बनकर हम स्वर्ग में स्थित होते हैं। शरीर में सुरक्षित सोमकण हमें ज्ञानजलराशि को प्राप्त कराते हैं। उसमें स्नान करके हम प्रभु को प्राप्त करनेवाले होते हैं ।
विषय
बृहस्पति का वर्णन ।
भावार्थ
हे (बृहस्पते) बड़े ज्ञान वाणी और बड़े राष्ट्र के पालक ! विद्वन् ! एवं राजन् ! (या) जो (ते) तेरी (परमा) सर्वोत्कृष्ट (परावत्) दूर देश तक व्यापने वाली नीति, मर्यादा या सीमा है, (अतः) उसके भीतर जो (ऋतस्पृशः) सत्य धर्म पालन करने वाले वा धन, अन्न आदि उत्पन्न करने वाले (ते आ निषेदुः) तेरे अधीन, तेरे समीप, माण्डलिक आदि बसें वा आकर विराजें वे (खाताः) खने गये (अवताः) कूपों के समान गंभीर, (अद्रिदुग्धाः) पर्वत के तुल्य अप्रकम्प, शस्त्र बल द्वारा वा मेघवत् दयार्द्र विद्वान् पुरुषों द्वारा दोहे वा पूर्ण किये जाकर (तुभ्यं) तेरे लिये (मध्वः) मधुर अन्न और धन की (विरप्शम्) महान् राशि को (अभितः) सब ओर से (श्चोतन्ति) प्रदान करें। जिस प्रकार खने गये कूप, तड़ाग आदि मेघ वा गिरि पर्वतादि की धारा से पूर्ण होकर बहुत जल देते हैं उसी प्रकार बड़े राष्ट्र पालक को उसके राज्य की सीमा के भीतर के धनी, कृषक, व ज्ञानी लोग भी शस्त्र-बल, प्रेम, कर आदि के वश होकर वा मेघों और विद्वानों करके अन्न ज्ञानादि से पूर्ण होकर राजा के भी अन्नादि धन की वृद्धि करें । इसी प्रकार हे विद्वान् पुरुष ! जो ज्ञान की परम सीमा है वहां तक पहुंचे हुए धर्मात्मा लोग भी तेरे लिये कूपादि के तुल्य आदर-पूर्ण होकर मधुर ज्ञान रस की बड़ी राशि प्रदान करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ १-९ बृहस्पतिः। १०, ११ इन्द्राबृहस्पती देवते॥ छन्द:-१—३, ६, ७, ९ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ४, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ८, १० त्रिष्टुप ॥ धैवतः स्वरः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! तुम्ही वृद्ध (अनुभवी) विद्वान राजांकडून सनातनी नीतीचे ग्रहण करून मेघांप्रमाणे प्रजेला सुखाने सिंचित करा. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Brhaspati, far off and most high is your seat of majesty whence travel and ever abide your rays of light and Law which then touch the oceans of water to break them into vapours so that, like deep dug wells and clouds laden with milky showers of honey sweets, they pour down in abundant rain in your service for you and your people.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The qualities of admirable persons are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O protector of the vast State ! let us honor your good policy, as a result of which there are ponds and wells which have been bored and are full of the sweet water of the clouds. That water flows down the fields around the State. Let us honor your policy like that of a virtuous person, as you are truthful.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! you should follow the policy of old and experienced rulers and delight all the people like the clouds.
Foot Notes
(विरप्शम् ) महान्तं संसारम् । विरप्शीति महन्नाम (NG 3, 3)। = Vast world. (परावत् ) परा गुणा विद्यन्ते यस्मिन् । = Like a virtuous person. (अवता:) कूपा: । अवत इति कूपनाम (NG 3, 23 ) = Wells. (श्चोतन्ति) सिञ्चन्ति। श्च्युतिर क्षरणे (भ्वा०) = Sprinkle, water; flow.
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