ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 50/ मन्त्र 8
स इत्क्षे॑ति॒ सुधि॑त॒ ओक॑सि॒ स्वे तस्मा॒ इळा॑ पिन्वते विश्व॒दानी॑म्। तस्मै॒ विशः॑ स्व॒यमे॒वा न॑मन्ते॒ यस्मि॑न्ब्र॒ह्मा राज॑नि॒ पूर्व॒ एति॑ ॥८॥
स्वर सहित पद पाठसः । इत् । क्षे॒ति॒ । सुऽधि॑तः । ओक॑सि । स्वे । तस्मै॑ । इळा॑ । पि॒न्व॒ते॒ । वि॒श्व॒ऽदानी॑म् । तस्मै॑ । विशः॑ । स्व॒यम् । ए॒व । न॒म॒न्ते॒ । यस्मि॑न् । ब्र॒ह्मा । राज॑नि । पूर्वः॑ । एति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स इत्क्षेति सुधित ओकसि स्वे तस्मा इळा पिन्वते विश्वदानीम्। तस्मै विशः स्वयमेवा नमन्ते यस्मिन्ब्रह्मा राजनि पूर्व एति ॥८॥
स्वर रहित पद पाठसः। इत्। क्षेति। सुऽधितः। ओकसि। स्वे। तस्मै। इळा। पिन्वते। विश्वऽदानीम्। तस्मै। विशः। स्वयम्। एव। नमन्ते। यस्मिन्। ब्रह्मा। राजनि। पूर्वः। एति ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 50; मन्त्र » 8
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यो जनः परमेश्वरं भजते स इत् सुधितः सन् स्व ओकसि क्षेति विश्वदानीं तस्मा इळा पिन्वते यस्मिन् राजनि ब्रह्मा पूर्व एति तस्मै राज्ञे विशः स्वयमेवा नमन्ते ॥८॥
पदार्थः
(सः) (इत्) एव (क्षेति) निवसति (सुधितः) सुहितस्तृप्तः। अत्र सुधितवसुधितेति सूत्रेण हस्य धः। (ओकसि) निवासस्थाने (स्वे) स्वकीये (तस्मै) (इळा) प्रशंसिता वाग्भूमिर्वा (पिन्वते) सेवते (विश्वदानीम्) सर्वस्मिन् काले (तस्मै) (विशः) प्रजाः (स्वयम्) (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (नमन्ते) नम्रीभूता भवन्ति (यस्मिन्) परमात्मनि (ब्रह्मा) चतुर्वेदवित् (राजनि) प्रकाशमाने (पूर्वः) अनादिभूत आदिमः (एति) प्राप्नोति ॥८॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यद्यन्यान् सर्वान् विहायैकं परमेश्वरमेव यूयं भजत तर्हि युष्मासु श्री राज्यं प्रतिष्ठा यशश्च सदैव निवसेत् ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो जन परमेश्वर का भजन करता है (सः, इत्) वही (सुधितः) उत्तम प्रकार तृप्त हुआ (स्वे) अपने (ओकसि) निवासस्थान में (क्षेति) निवास करता है तथा (विश्वदानीम्) सब काल में (तस्मै) उसके लिये (इळा) प्रशंसित वाणी वा भूमि (पिन्वते) सेवन करती है (यस्मिन्) जिस (राजनि) प्रकाशमान परमात्मा में (ब्रह्मा) चार वेद का जाननेवाला (पूर्वः) अनादि से हुआ प्रथम (एति) प्राप्त होता है (तस्मै) उस राजा के लिये (विशः) प्रजा (स्वयम्) (एवा) आप ही (नमन्ते) नम्र होती हैं ॥८॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जो अन्य सब का त्याग करके एक परमेश्वर ही की आप लोग सेवा करें तो आप लोगों में लक्ष्मी, राज्य, प्रतिष्ठा और यश सदा ही निवास करें ॥८॥
विषय
'ब्राह्मण का आदर करनेवाला' राजा
पदार्थ
[१] (सः) = वह (इत्) = ही राजा (सुधितः) = उत्तमता से तृप्त हुआ हुआ [Satisfied] (स्वे ओकसि) = अपने गृह में (क्षेति) = निवास करता है, अर्थात् उसी का जीवन शान्तिपूर्वक बीतता है (तस्मै) = उसी के लिए (इडा) = यह पृथिवी (विश्वदानीम्) = सदा (पिन्वते) = अन्न आदि से प्रीणन [प्रीति] करनेवाली होती है, अर्थात् इसके राज्य में कभी अकाल आदि की पीड़ा नहीं होती। तथा (तस्मै) = उसके लिए (विशः) = प्रजाएँ स्वयं एव अपने आप ही (आनमन्ते) = नम्र होती हैं- झुकनेवाली होती हैं- उपद्रव आदि की भावना से शून्य होती हैं। (यस्मिन् राजनि) = जिस राजा में (ब्रह्मा) = ज्ञानी ब्राह्मण (पूर्व एति) = पहले चलनेवाला होता है, अर्थात् जिसके राज्य में ब्राह्मण को प्रथम स्थान प्राप्त होता है जो राजा उन ब्राह्मणों से दिये गये परामर्श के अनुसार चलता है। [२] ब्राह्मण के परामर्श से सब कार्यों को करनेवाले राजा के राज्य में, [क] अशान्ति नहीं होती, [ख] अकाल नहीं पड़ते तथा [ग] प्रजाएँ सदा स्वयमेव कर आदि देती हुई उपद्रव की भावना से दूर होती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- राष्ट्र में ब्राह्मण का आदर होने पर अध्यात्म, अधिदैव तथा अधिभूत सम्बन्धी कोई कष्ट नहीं होता।
विषय
परमेश्वर का राजवत् वर्णन ।
भावार्थ
(सः इत्) वह परमेश्वर राजा के समान (स्वे) अपने (सुधिते ओकसि) सुरक्षित जगत्-रूप स्थान वा महान् आकाश में (क्षेति) निवास करता है, व्यापक है (तस्मै) उसकी (विश्वदानीम्) सदा (इडा) वेद वाणी (पिन्वते) सब पर ज्ञान का वर्षण करती और सबको अन्न वा भूमिवत् पुष्ट करती है । (तस्मै) उसके आदर के लिये (विशः) सभी प्रजाएं (स्वयम् एव) आप से आप ही (नमन्ते) प्रेम और भक्ति से झुकते हैं । (यस्मिन्) जिस (राजनि) सर्वप्रकाशक, परमेश्वर में (पूर्व ब्रह्मा) अनादि, सब से प्रथम, सर्वश्रेष्ठ ज्ञानी वेदज्ञ विद्वान् (एति) प्राप्त होता है । (२) राजा के पक्ष में—जिस राजा के रहते हुए वेदज्ञ विद्वान् पूर्व, सर्वश्रेष्ठ होकर उत्तम पद पाता है। जो स्वरक्षित देश में निवास करता है उसको (इडा) सब भूमियां पुष्ट करती हैं, सब प्रजाएं उसके आगे झुकती हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः॥ १-९ बृहस्पतिः। १०, ११ इन्द्राबृहस्पती देवते॥ छन्द:-१—३, ६, ७, ९ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, ४, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ८, १० त्रिष्टुप ॥ धैवतः स्वरः ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! इतर सर्व गोष्टींचा त्याग करून एका परमेश्वराचा स्वीकार केल्यास तुम्हाला सदैव श्री, राज्य, प्रतिष्ठा व यश मिळेल. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Surely he dwells with peace and contentment in his own home, and him nature favours with all her gifts as her loving all-generous child, and to him all people spontaneously bow in reverence, whom Brahma, Lord Supreme as well as visionary of the Vedas, prime Spirit and prime person, favours and blesses as the brilliant ruler with the divine presence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of learned men's duties is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! the man who always adores God, dwells firmly and properly in his home contented and admirable noble speech or the land, serve him. To him, all the people submit or surrender to themselves. He is the worshipper of that one God who is attained by the first Brahma or knower of the four Vedas.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men ! if you worship only One God, then wealth, kingdom, good reputation and glory, may be firmly established in you forever.
Foot Notes
(सुधित:) सुहितस्त्रिप्तः। अत्र सुधितवसुधियेति सूत्रेण हस्य ध:। = Perfectly satisfied. (इड़ा) प्रशंसिता वाग्भूमिर्वा । इडेति वाङ्नाम (NG 1, 11) इडेति पृथिवीनाम (NG 1, 1) = Admirable speech or land. (ब्रह्मा) चतुर्वेदवित् । (ब्रह्मा) अथमेवामुं विद्याये तेजोरसं प्रावृहत् तेन ब्रह्मा ब्रह्मा भविति (कौषीतकी ब्राह्मणे ६, ११) अथ येन ब्रह्मत्वं क्रियत इति तय्या विद्यमेति ऐतरेय ५, ३३) ब्रह्मा सर्व विश्वः सर्वं वेदितुमर्हति । ब्रह्मा परिवाः श्रुततः (NKT 1, 3, 8) = The knower of all the four Vedas. (पिन्वते ) सेवते । पिवि-सेवने (भ्वा० ) Serves.
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