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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 33/ मन्त्र 10
    ऋषिः - संवरणः प्राजापत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त त्ये मा॑ ध्व॒न्य॑स्य॒ जुष्टा॑ लक्ष्म॒ण्य॑स्य सु॒रुचो॒ यता॑नाः। म॒ह्ना रा॒यः सं॒वर॑णस्य॒ ऋषे॑र्व्र॒जं न गावः॒ प्रय॑ता॒ अपि॑ ग्मन् ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । त्ये । मा॒ । ध्व॒न्य॑स्य । जुष्टाः॑ । ल॒क्ष्म॒ण्य॑स्य । सु॒ऽरुचः॑ । यता॑नाः । म॒ह्ना । रा॒यः । स॒म्ऽवर॑णस्य । ऋषेः॑ । व्र॒जम् । न । गावः॑ । प्रऽय॑ताः । अपि॑ । ग्म॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत त्ये मा ध्वन्यस्य जुष्टा लक्ष्मण्यस्य सुरुचो यतानाः। मह्ना रायः संवरणस्य ऋषेर्व्रजं न गावः प्रयता अपि ग्मन् ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। त्ये। मा। ध्वन्यस्य। जुष्टाः। लक्ष्मण्यस्य। सुऽरुचः। यतानाः। मह्ना। रायः। संऽवरणस्य। ऋषेः। व्रजम्। न। गावः। प्रऽयताः। अपि। ग्मन् ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 33; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    ये ध्वन्यस्य संवरणस्य रायो मह्नोत लक्ष्मण्यस्यर्षेः प्रयतास्त्ये गावो व्रजन्नापि ग्मन् तथा मह्ना मा मामपि ग्मन्। या यतानाः सुरुचो मा जुष्टाः सन्ति ताः सर्वे प्राप्नुवन्तु ॥१०॥

    पदार्थः

    (उत) (त्ये) (मा) माम् (ध्वन्यस्य) ध्वनिषु कुशलस्य (जुष्टाः) प्रीताः (लक्ष्मण्यस्य) सुलक्षणेषु भवस्य (सुरुचः) सुष्ठुप्रीतिमत्यः (यतानाः) (मह्ना) महत्त्वेन (रायः) धनस्य (संवरणस्य) स्वीकृतस्य (ऋषेः) मन्त्रार्थविदः (व्रजम्) व्रजन्ति यस्मिन् (न) इव (गावः) धेनवः (प्रयताः) प्रयतमानाः (अपि) (ग्मन्) गच्छन्ति ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये मनुष्याः प्रयत्नेनाऽप्राप्तस्य प्राप्तिं लब्धस्य रक्षणं कुर्वन्ति ते वत्सान् गाव इव धनमाप्नुवन्तीति ॥१०॥ अत्रेन्द्रविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति त्रयस्त्रिंशत्तमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो (ध्वन्यस्य) ध्वनियों में कुशल और (संवरणस्य) स्वीकार किये हुए (रायः) धन के (मह्ना) महत्त्व से (उत) और (लक्ष्मण्यस्य) श्रेष्ठ लक्षणों में उत्पन्न (ऋषेः) मन्त्रों के अर्थ जाननेवाले के सम्बन्ध में (प्रयताः) प्रयत्न करते हुए जन हैं (त्ये) वे (गावः) गौवें (व्रजम्) गोष्ठ को (न) जैसे (अपि) निश्चित (ग्मन्) जाती हैं, वैसे महत्त्व से (मा) मुझ को भी प्राप्त होते हैं और जो (यतानाः) यत्न करती हुई (सुरुचः) उत्तम प्रीतिवाली मुझ को (जुष्टाः) प्रसन्नतापूर्वक प्राप्त हैं, उनको सब प्राप्त होवें ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो मनुष्य प्रयत्न से नहीं प्राप्त हुए की प्राप्ति और प्राप्त हुए की रक्षा करते हैं, वे जैसे बछड़ों को गौवें वैसे धन को प्राप्त होते हैं ॥१०॥ इस सूक्त में इन्द्र और विद्वान् के गुण वर्णन करने से इस सूक्त के अर्थ की इस से पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह तेंतीसवाँ सूक्त और द्वितीय वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    मुद्रांकित राजशासनों का प्रचार ।

    भावार्थ

    भा०- ( गावः व्रजं न ) गौएं जिस प्रकार गोशाला को प्राप्त होती हैं और ( ऋषेः संवरणस्य प्रयताः गावः व्रजं न ) मन्त्रार्थद्रष्टा गुरु की प्रदान की वाणियां जिस प्रकार समीप आये शिष्य को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार ( ध्वन्यस्य ) उत्तम ध्वनि करने वाले, ठीक खरी आवाज़ देने वाले ( लक्ष्मण्यस्य ) राज-मुद्रा चिह्न से अंकित ( रायः मह्ना ) धनैश्वर्य के महान् सामर्थ्य से ( संवरणस्य ) मिल कर वरण किये गये राजा और वरण करने वाले प्रजाजन की ( सुरुचः ) उत्तम रुचि कर, सबको रुचने वाली मनोहर ( यतानाः ) यत्नशील ( गावः ) भूमियां और आज्ञावाणियां या धाराएं (प्रयताः ) सुप्रबद्ध और अच्छी प्रकार नियत रूप होकर ( व्रजं अपि ग्मन् ) मार्ग और संसार को प्राप्त करें । अर्थात् भूमियों में मार्ग हों, आज्ञाओं का प्रसार हो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, २, ७, पंक्तिः । ३ निचृत्पंक्ति: । ४, १० भुरिक् पंक्ति: । ५, ६ स्वराट्पंक्तिः । । ८ त्रिष्टुप ९ निचृत्त् त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'ध्वन्य व लक्ष्मण्य' के ऐश्वर्य

    पदार्थ

    १. प्रभु के नामों की ध्वनि में उत्तम यह 'ध्वन्य' है। प्रभु को ही अपना लक्ष्य बनानेवाला यह 'लक्ष्मण्य' है— यह उस लक्ष्यवेध में उत्तम है 'प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते' । (उत) = और (त्ये) = वे (मा) = मुझे (ध्वन्यस्य) = प्रभु नामस्मरण करनेवाले के (जुष्टा:) = प्रीतिपूर्वक कार्यों में प्रवृत्त होनेवाले कर्मेन्द्रियरूप अश्व तथा (लक्ष्मण्यस्य) = प्रभुरूप लक्ष्यवेध में उत्तम लक्ष्मण्य के (सुरुचः) = उत्तम दीप्तिवाले (यतानाः) = सतत यत्नशील ज्ञानेन्द्रियाश्व (अपिग्मन्) = प्राप्त हों । २. (मह्ना) = इन उत्कृष्ट कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों की महिमा से (संवरणस्य ऋषे:) = इस उत्तम वरणवाले प्रभु का [न कि प्रकृति का] वरण करनेवाले- ज्ञानी पुरुष के समीप (प्रयताः रायः) = पवित्र ऐश्वर्य (अपिग्मन्) = प्राप्त हों। इस प्रकार प्राप्त हों (न) = जैसे कि (गाव:)= गौएँ (व्रजम्) = बाड़े में प्राप्त होती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें प्रभु स्मरण करनेवाले की कर्मेन्द्रियाँ प्राप्त हो, अर्थात् हम प्रभु स्मरणपूर्वक कार्यों में प्रवृत्त रहें। प्रभुरूप लक्ष्य का वेध करनेवाले की ज्ञानेन्द्रियाँ प्राप्त हों, अर्थात् हम ज्ञानवृद्धि करते हुए प्रभुदर्शन करनेवाले बनें। इन इन्द्रियों की महिमा से हमें पवित्र ऐश्वर्य प्राप्त हों। हम प्रभु का वरण करें और तत्त्वद्रष्टा बनें। 'संवरण प्राजापत्य' का ही अगला भी सूक्त है

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे प्रयत्नपूर्वक अप्राप्तीची प्राप्ती व प्राप्त केलेल्याचे रक्षण करतात. वासरू जसे गाईला भेटते तसे ते धन मिळवितात. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    May the living voices of Vedic mantras and wealths of existence with all their grandeur of meaning and value, coexistent with the lord of original Word, loved by the scholar of holy intention and purpose, divined and envisioned in right selection of words by the Rshis, all dynamic and relevant by moving forward to modern contexts come to me like cows going to their stalls.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of learned person is further elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The persons who are engaged to know the visualizers of mantras (Rishis) and attempt at it, they come to me like the cows go to their destined places. In fact, such Rishis are skilled through citations and are recognized by noble tokens of acceptable wealth. I wish the desired riches are acquired by hard work, let me get them gladly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Here is a simile. The persons who get the unachieved objects and after acquiring protect it well, they get wealth like the calves go to their cow mothers.

    Foot Notes

    (ध्वन्यस्य) ध्वनिषु कुशलस्य । = Of the good at citations. (लक्ष्मणयस्य) सुलक्षणेषु भवस्य । = Of the one cloaked in virtues (प्रयता:) प्रयतमाना:। = Attempting. (ग्मन्) गच्छन्ति । = Go.

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