ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 33/ मन्त्र 3
न ते त॑ इन्द्रा॒भ्य१॒॑स्मदृ॒ष्वायु॑क्तासो अब्र॒ह्मता॒ यदस॑न्। तिष्ठा॒ रथ॒मधि॒ तं व॑ज्रह॒स्ता र॒श्मिं दे॑व यमसे॒ स्वश्वः॑ ॥३॥
स्वर सहित पद पाठन । ते । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । अ॒भि । अ॒स्मत् । ऋ॒ष्व॒ । अयु॑क्तासः । अ॒ब्र॒ह्मता॑ । यत् । अस॑न् । तिष्ठ॑ । रथ॑म् । अधि॑ । तम् । व॒ज्र॒ऽह॒स्त॒ । आ । र॒श्मिम् । दे॒व॒ । य॒म॒से॒ । सु॒ऽअश्वः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न ते त इन्द्राभ्य१स्मदृष्वायुक्तासो अब्रह्मता यदसन्। तिष्ठा रथमधि तं वज्रहस्ता रश्मिं देव यमसे स्वश्वः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठन। ते। ते। इन्द्र। अभि। अस्मत्। ऋष्व। अयुक्तासः। अब्रह्मता। यत्। असन्। तिष्ठ। रथम्। अधि। तम्। वज्रऽहस्त। आ। रश्मिम्। देव। यमसे। सुऽअश्वः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 33; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे वज्रहस्त ऋष्व देवेन्द्र ! ये तेऽब्रह्मताऽयुक्तासो नाभ्यसन्। यद्यदा तेऽस्मद्दूरे निवसन्ति तदा स्वश्वस्त्वं रश्मिमिव तं रथमा यमसे तस्मादेतमधि तिष्ठा ॥३॥
पदार्थः
(न) निषेधे (ते) (ते) तव (इन्द्र) राजन् (अभि) आभिमुख्ये (अस्मत्) (ऋष्व) महापुरुष (अयुक्तासः) योगरहिताः (अब्रह्मता) अधनता (यत्) यदा (असन्) भवन्ति (तिष्ठा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (रथम्) रमणीयं यानम् (अधि) उपरि (तम्) (वज्रहस्त) शस्त्रास्त्रबाहो (आ) (रश्मिम्) किरणम् (देव) दातः (यमसे) निगृह्णासि (स्वश्वः) शोभना अश्वा अस्य ॥३॥
भावार्थः
हे ऐश्वर्य्ययुक्त ! येऽयुक्तव्यवहाराः स्युस्तेऽस्मत्त्वच्च दूरे वसन्तु, यदि त्वं यानचालनविद्यां विजानीयास्तर्हि युद्धेऽपि सामर्थ्यं प्राप्नुयाः ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (वज्रहस्त) शस्त्र और अस्त्रों को बाहुओं में धारण करनेवाले (ऋष्व) महापुरुष (देव) दानशील (इन्द्र) राजन् ! जो (ते) आपकी (अब्रह्मता) निर्धनता (अयुक्तासः) और योग से रहित पुरुष (न) नहीं (अभि) सम्मुख (असन्) होते हैं (यत्) जब (ते) वे (अस्मत्) हम लोगों से दूर वसते हैं तब (स्वश्वः) उत्तम घोड़ों से युक्त आप (रश्मिम्) किरण के सदृश (तम्) उस (रथम्) सुन्दर वाहन को (आ, यमसे) विस्तृत करते हो, इससे इसके (अधि) ऊपर (तिष्ठा) स्थित हूजिये ॥३॥
भावार्थ
हे ऐश्वर्य्य से युक्त ! जो अयोग्य व्यवहारवाले होवें वे हम लोगों के और आपके दूर वसें और आप वाहनों के चलाने की विद्या को विशेष करके जानें तो युद्ध में भी सामर्थ्य को प्राप्त होवें ॥३॥
विषय
उत्तम नायक के अधीन निर्बलों का प्रबल संघ । अध्यक्ष के कार्य ।
भावार्थ
भा०-हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन्! हे (ऋष्व ) महापुरुष ! ( यत् ) जो ( अयुक्तासः ) तेरे साथ योग न करें और जो (न ते) तेरे भी होकर न रहें । और जो ( अब्रह्मता ) धन हीनता है, वह ( ते अस्मद् ) तेरे प्रजा रूप हम लोगों से ( अभि ) परे रहें हे ( वज्रहस्त ) शक्ति और बल को अपने वश या हाथ में रखने वाले ! तू ( रथम् अधि तिष्ठ ) जिस रथ पर आरूढ़ हो (तं) उसके ( रश्मिं ) रासों को ( स्वश्वः ) उत्तम अश्वारोही के तुल्य ( यमसे ) नियन्त्रण में रख । रथ के समान ही राज्य की वागडोर को अच्छी प्रकार सम्भाल ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
संवरणः प्राजापत्य ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द: – १, २, ७, पंक्तिः । ३ निचृत्पंक्ति: । ४, १० भुरिक् पंक्ति: । ५, ६ स्वराट्पंक्तिः । । ८ त्रिष्टुप ९ निचृत्त् त्रिष्टुप । दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
वे प्रभु के नहीं हैं, जोकि -
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् (ऋष्व) = महान् प्रभो ! (अस्मद् अभि) = हमारे से भिन्न वे लोग जो (अयुक्तासः) = उपासना द्वारा आपके साथ अपना मेल करनेवाले नहीं और (यद्) = कि वे (अब्रह्मता) = ज्ञानशून्यता में (असन्) = निवास करते हैं (ते न) = आपके नहीं है। प्रभु का प्रिय वही है जो कि उपासना व ज्ञान को अपनाता है। मस्तिष्क में ज्ञान और हृदय में उपासना ही हमें प्रभु का प्रिय बनाती है। २. हे (वज्रहस्त) = निरन्तर क्रियाशील हाथोंवाले 'विश्वतो बाहु' प्रभो! आप हम उपासना व ज्ञान को अपनानेवाले पुरुषों के (तं रथम्) = उस शरीररथ पर (अधितिष्ठ) = होइए और आरूढ़ (देव) = ऐ प्रकाशमय प्रभो! हमारे सब व्यवहारों के साधक प्रभो ! (स्वश्वः) = उत्तम इन्द्रियाश्वों को प्राप्त करानेवाले आप ही (रश्मिम्) = उस रथ की लगाम को (आयमसे) = काबू करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- उपासना के द्वारा प्रभु से अपना मेल करनेवालों तथा ज्ञान को अपनानेवालों के शरीररथ में उत्तम इन्द्रियाश्वों को जोतते हुए प्रभु ही अधिष्ठित होते हैं और वे ही लगाम को काबू करते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे ऐश्वर्ययुक्ता! जे अयोग्य व्यवहार करणारे असतील त्यांनी तुमच्या आमच्यांपासून दूर राहावे. जर तुम्ही वाहने चालविण्याची विद्या विशेष करून जाणली तर युद्धातही सामर्थ्य प्राप्त व्हावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, mighty lord, refulgent and generous, those who are not with us and are not for you are disjoined from reality. It is their ignorance and impiety toward the motherland. O lord of the force of thunder in hand, ride the chariot, take up the reins, equipped as you are with excellent forces for advancement. Guide and lead.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of Indra moves on.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O wielder of weapons and arms ! you are indeed great and philanthropist king. The poverty-stricken people who are incompetent in the Yoga, they can not face you. They live at distance from us. Equipped with good horses, you drive your beautiful chariot (vehicle) like the rays and get extended. Therefore, you should stay with us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O prosperous Indra ! the person of improper behavior should always settle at distance from you and from us. You should particularly know the science of transport and running road- ways, and it will extend your power in the battlefield.
Foot Notes
(अभि ) आभिमुख्ये । = At the face. (ऋष्व ) महापुरुष । = Great man. (भयुक्तासः) योगरहिता: । = Incompetent in the Yoga. (अब्रह्मता ) निर्धनता । = Poverty. (वज्रहस्त) शस्त्रास्त्रबाहो ।= Wielder of weapons and arms. (स्वश्वः) शोभना अश्वा अस्य । = Equipped with good horses.
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