ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 21/ मन्त्र 3
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स इत्तमो॑ऽवयु॒नं त॑त॒न्वत्सूर्ये॑ण व॒युन॑वच्चकार। क॒दा ते॒ मर्ता॑ अ॒मृत॑स्य॒ धामेय॑क्षन्तो॒ न मि॑नन्ति स्वधावः ॥३॥
स्वर सहित पद पाठसः । इत् । तमः॑ । अ॒व॒यु॒नम् । त॒त॒न्वत् । सूर्ये॑ण । व॒युन॑ऽवत् । च॒का॒र॒ । क॒दा । ते॒ । मर्ताः॑ । अ॒मृत॑स्य । धाम॑ । इय॑क्षन्तः । न । मि॒न॒न्ति॒ । स्व॒धा॒ऽवः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स इत्तमोऽवयुनं ततन्वत्सूर्येण वयुनवच्चकार। कदा ते मर्ता अमृतस्य धामेयक्षन्तो न मिनन्ति स्वधावः ॥३॥
स्वर रहित पद पाठसः। इत्। तमः। अवयुनम्। ततन्वत्। सूर्येण। वयुनऽवत्। चकार। कदा। ते। मर्ताः। अमृतस्य। धाम। इयक्षन्तः। न। मिनन्ति। स्वधाऽवः ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे जगदीश्वर ! यो भवान्त्सूर्येण तम इव ज्ञानप्रकाशेनावयुनं नष्टं चकार वयुनवत्प्रज्ञां ततन्वदस्ति स इत्सेवनीयः। हे स्वधावो मर्त्ता ! अमृतस्य ते धामेयक्षन्तः कदा न मिनन्ति ॥३॥
पदार्थः
(सः) (इत्) एव (तमः) रात्रिः (अवयुनम्) अज्ञानमन्धकाररूपम् (ततन्वत्) विस्तृणन्। तनुधातोः शतृप्रत्यये बहुलं छन्दसि। (अ०२.४.७६) अनेन बहुलं शपः श्लुः (सूर्येण) (वयुनवत्) प्रज्ञावत् (चकार) करोति (कदा) (ते) (मर्त्ताः) मनुष्याः (अमृतस्य) मरणरहितस्य जगदीश्वरस्य (धाम) दधाति येन तत् (इयक्षन्तः) यष्टुं सङ्गमयितुमिच्छन्तः (न) निषेधे (मिनन्ति) हिंसन्ति (स्वधावः) बह्वन्नयुक्त ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । ये मनुष्या अहिंसाधर्मं स्वीकृत्य विज्ञानं वर्धयित्वा परमेश्वरप्राप्तिं चिकीर्षन्ति ते विस्तीर्णं सुखं लभन्ते ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे जगदीश्वर ! जो आप (सूर्येण) सूर्य से (तमः) रात्रि जैसे वैसे ज्ञानप्रकाश से (अवयुनम्) अज्ञानान्धकार को नष्ट (चकार) करते हैं और (वयुनवत्) बुद्धि के सदृश और बुद्धि का (ततन्वत्) विस्तार करते हुए हैं (सः) (इत्) वही सेवा करने योग्य हैं। हे (स्वधावः) बहुत अन्न से युक्त (मर्त्ताः) मनुष्य ! (अमृतस्य) मरणरहित जगदीश्वर के (ते) आपके सम्बन्ध में (धाम) धारण करते जिससे उसको (इयक्षन्तः) मिलाने की इच्छा करते हुए (कदा) कब (न) नहीं (मिनन्ति) नष्ट करते हैं अर्थात् दोष के कारण को दूर करते हैं ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य अहिंसा धर्म को स्वीकार कर और विज्ञान बढ़ाय के परमेश्वर की प्राप्ति की चिकीर्षा करते हैं, वे विस्तीर्ण सुख को प्राप्त होते हैं ॥३॥
विषय
प्रभु के अनुग्रहेच्छुओं का अहिंसा महाव्रत ।
भावार्थ
( सः ) वह परमेश्वर ( इत् ) ही ( अवयुनं ) जिसमें कुछ भी ज्ञान नहीं होता ऐसे घोर ( तमः ) अन्धकार को ( सूर्येण ) सूर्य के द्वारा ( वयुन-वत् चकार ) अभिव्यक्त, ज्ञान योग्य कर देता है । हे ( स्वधावः ) स्वयं धारण शक्ति के स्वामिन् ! हे प्रभो ! ( मर्त्ताः ) मरणधर्मा ये जीव ( अमृतस्य ते ) जरा मरण रहित, अविनाशी तेरे ( धाम ) तेजोमय जगत् के धारण करने वाले सामर्थ्य को ( इयक्षन्तः ) प्राप्त होना चाहते हुए ( कदा ) कभी भी ( न मिनन्ति ) हिंसा नहीं करते । प्रत्युत प्रभु परमेश्वर को साक्षात् करने के लिये वे अहिंसा महाव्रत का पालन करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ।। छन्दः – १, २, ९, १०, १२ विराट् त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, ११ त्रिष्टुप् । ३, ७ निचृत्त्रिष्टुप् । ८ स्वराड्बृहती ।। द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अहिंसा व स्वर्ग प्राप्ति
पदार्थ
[१] (सः) = वें प्रभु (इत्) = ही (ततन्वत्) = वृत्र से, वासना से विस्तीर्यमाण (अवयुनम्) = प्रज्ञान-नाशक (तमः) = अन्धकार को (सूर्येण) = मस्तिष्करूप द्युलोक में उदित किये गये ज्ञानसूर्य से (वयुनवत् चकार) = प्रकाशवाला कर देते हैं। ज्ञान सूर्योदय से अज्ञान्धकार को नष्ट करके प्रभु हमारी वासनाओं को विलीन कर देते हैं । [२] हे (स्वधावः) = [स्व+धाव्-शुद्धि] अज्ञानान्धकार के विनाश के द्वारा आत्मा को शुद्ध कर देनेवाले प्रभो ! (मर्ताः) = मनुष्य (अमृतस्य ते) = अमरणधर्मा तेरे (धाम) = मोक्षरूप स्थान को, अमृत लोक को (इयक्षन्तः) = अपने साथ संगत करने की कामनावाले होते हुए कदा [कदाचित्] = कभी भी (न मिनन्ति) = हिंसा को नहीं करते हैं। हिंसा से ऊपर उठकर ही वे मोक्ष को प्राप्त करने के पात्र बनते हैं।
भावार्थ
भावार्थ– वासना जनित अन्धकार को प्रभु ज्ञानसूर्योदय से विनष्ट करते हैं। ज्ञान प्राप्त मनुष्य मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से सर्व प्राणि विहिंसा का वर्जन करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जी माणसे अहिंसेने विज्ञानयुक्त बनून परमेश्वराच्या प्राप्तीची इच्छा करतात ती अत्यंत सुखी होतात. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The lord of his own absolute omniscience and omnipotence illuminates the world of darkness and ignorance by the light of expansive knowledge like the sun which dispels the darkness of night. The mortals, O lord immortal, who seek to join your domain never violate your laws.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should men do-is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O lord of the world! you destroy all ignorance by the light of knowledge and spread intellect, as the sun dispels all darkness. Therefore, you alone are worthy of service. O God, the Lord of abundant food-materials! the men desiring to attain your Divine nature, never resort to violence.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The men enjoy vast happiness who having accepted the Dharma (duty) of non-violence or harmlessness and having increased knowledge and wisdom, desire to attain God.
Foot Notes
(अवयुनम्) अज्ञानमन्धकाररूपम् । वयुनमिति प्रज्ञानाम (NG 3, 9 ) = Darkness of ignorance. (वयुनवत्) प्रज्ञावत । वयुनमिति प्रशंस्यनाम (NG 3,8)। = Endowed with intellect. (मिनन्ति ) मीञ् हिंसायाम् (क्रया०.) = Resort to violence.
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