ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 103/ मन्त्र 3
यदी॑मेनाँ उश॒तो अ॒भ्यव॑र्षीत्तृ॒ष्याव॑तः प्रा॒वृष्याग॑तायाम् । अ॒ख्ख॒ली॒कृत्या॑ पि॒तरं॒ न पु॒त्रो अ॒न्यो अ॒न्यमुप॒ वद॑न्तमेति ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । ई॒म् । ए॒ना॒न् । उ॒श॒तः । अ॒भि । अव॑र्षीत् । तृ॒ष्याऽव॑तः । प्रा॒वृषि॑ । आऽग॑तायाम् । अ॒ख्ख॒ली॒कृत्य॑ । पि॒तर॑म् । न । पु॒त्रः । अ॒न्यः । अ॒न्यम् । उप॑ । वद॑न्तम् । ए॒ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदीमेनाँ उशतो अभ्यवर्षीत्तृष्यावतः प्रावृष्यागतायाम् । अख्खलीकृत्या पितरं न पुत्रो अन्यो अन्यमुप वदन्तमेति ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । ईम् । एनान् । उशतः । अभि । अवर्षीत् । तृष्याऽवतः । प्रावृषि । आऽगतायाम् । अख्खलीकृत्य । पितरम् । न । पुत्रः । अन्यः । अन्यम् । उप । वदन्तम् । एति ॥ ७.१०३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 103; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 7; वर्ग » 3; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्, ईम्) यदा हि (प्रावृषि, आगतायाम्) वर्षाकाल आगते सति (तृष्यावतः, उशतः, एनान्) तृषया जलमिच्छून् जलजन्तून् (अभि, अवर्षीत्) मेघो वर्षति सिञ्चति, तदा (अख्खलीकृत्य) मनोहरशब्दं कृत्वा (पितरम्, न, पुत्रः) पुत्रः पित्रान्तिकमिव (अन्यः, अन्यम्, उपवदन्तम्, एति) एको द्वितीयान्तकं शब्दायमानं गच्छति ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यत्, ईम्) जब (प्रावृषि, आगतायाम्) वर्षाऋतु के आने पर (तृष्यावतः, उशतः, एनान्) तृषा से जल को चाहनेवाले इन जन्तुओं पर (अभि, अवर्षीत्) वृष्टि होती है, तब (अख्खलीकृत्य) सुन्दर शब्दों को करते हुए (पितरम्, न, पुत्रः) जैसे पुत्र पिता के पास जाता है, वैसे ही (अन्यः, अन्यम्, उपवदन्तम्, एति) शब्द करते हुए दूसरे के पास जाते हैं ॥३॥
भावार्थ
वर्षाऋतु में जीव ऐसे आनन्द से विचरते हैं और अपने भावों को अपनी चेष्टा तथा वाणियों से बोधन करते हुए पुत्रों के समान अपने वृद्ध पितरों के पास जाते हैं। इस मन्त्र में स्वभावोक्ति अलङ्कार से वर्षा के जीवों की चेष्टा का वर्णन किया है और इसमें यह भी शिक्षा दी है कि जैसे क्षुद्र जन्तु भी अपने वृद्धों के पास जाकर अपने भाव को प्रकट करते हैं, इस प्रकार तुम भी अपने वृद्धों के पास जाकर अपने भावों को प्रकट करो ॥३॥
विषय
मण्डूकों के दृष्टान्त से ब्रह्मज्ञानी, तपस्वी और नाना विद्याओं के विद्वानों के कर्त्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
( उशतः ) वर्षा को चाहने वाले और ( तृष्यावतः एनान् ) प्यासे इनके प्रति ( प्रावृषि आगतायाम् ) वर्षा काल आजाने पर ( अभि अवर्षीत् ) मेघ वर्षता है, ( पुत्रः पितरं न ) पिता के प्रति पुत्र के समान ( वदन्तम् अन्यम् अन्यः उप एति ) बोलते एक मेंडक के पास दूसरा जैसे आजाता है उसी प्रकार ( आगतायां प्रावृषि ) वर्षाकाल आनेपर ( यद् ईम्) जब भी ( उशतः ) विद्या की कामना करने वाले और ( तृष्यावतः एनान् ) ज्ञान की पिपासा से युक्त इन शिष्यों के प्रति विद्वान् पुरुष मेघ के समान ( अभि अवर्षीत् ) ज्ञान की वर्षा करता है तब ( वदन्तम् अन्यम् उप ) उपदेश करते हुए एक के पास ( अन्यः ) दूसरा शिष्य ( पुत्रः पितरं न ) पिता के पास पुत्र के समान ही ( अक्खलीकृत्य ) विनम्र होकर ( उप एति ) आता है और उसकी शुश्रूषा कर ज्ञान प्राप्त करता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः॥ मण्डूका देवताः॥ छन्दः—१ आर्षी अनुष्टुप् । २, ६, ७, ८, १० आर्षी त्रिष्टुप्। ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ९ विराट् त्रिष्टुप् ॥ तृचं सूक्तम्॥
विषय
वेद-प्रचार
पदार्थ
पदार्थ- (उशतः) = वर्षा को चाहनेवाले और (तृष्यावतः एनान्) = प्यासे इनके प्रति (प्रावृषि आगतायाम्) = वर्षा काल आ जाने पर (अभि अवर्षीत्) = मेघ वर्षता है, (पुत्रः पितरं न) = पिता के प्रति पुत्र के तुल्य (वदन्तम् अन्यम् अन्यः उप एति) = बोलते एक मेंढक के पास दूसरा जैसे आ जाता है वैसे ही (आगतायां प्रावृषि) = वर्षाकाल आने पर (यद्-ईम्) = जब भी (उशतः) = विद्या के इच्छुक और (तृष्यावतः एनान्) = ज्ञान-पिपासा से युक्त इन शिष्यों के प्रति विद्वान् पुरुष मेघ के तुल्य (अभि अवर्षीत्) = ज्ञान- वर्षा करता है तब (वदन्तम् अन्यम् उप) = उपदेश करते हुए एक के पास (अन्यः) = दूसरा शिष्य (पुत्रः पितरं न) = पिता के पास पुत्र के तुल्य ही (अक्खलीकृत्य) = विनम्र होकर उप एति आता है और ज्ञान प्राप्त करता है।
भावार्थ
भावार्थ-वर्षा ऋतु के आने पर विद्वान् लोग बस्तियों के समीप आकर वेदवाणी का उपदेश किया करें। इससे एक-एक करके अनेकों श्रोता शिष्यगण उन विद्वानों के समीप पहुँचकर ज्ञान प्राप्त कर लेते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
And when the rainy season has set in, then, if the cloud showers rain upon these longing celebrants of life, thirsting for the divine waters of life, one goes to meet another, chanting and shouting hilariously like the child going to meet the father.
मराठी (1)
भावार्थ
जसे पुत्र आपला प्रयत्न व वाणीद्वारे बोधन (शिक्षण) घेण्यासाठी वृद्ध पितरांजवळ जातात तसे वर्षाऋतूत जीव आनंदी होतात व सुंदर शब्द व भाव प्रकट करीत एकमेकांना भेटतात. या मंत्रात स्वभावोक्ती अलंकाराद्वारे वर्षाऋतूतील जीवांच्या हालचालींचे वर्णन आहे. या मंत्रात ही शिकवण आहे, की जसे क्षुद्र जंतू ही आपले भाव दुसऱ्यासमोर प्रकट करतात तसे तुम्हीही आपल्या वृद्ध पितराजवळ जाऊन आपले भाव प्रकट करा. ॥३॥
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